क्या है औचित्यहीन चर्चा का उद्देश्य | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 27, 2024

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क्या है औचित्यहीन चर्चा का उद्देश्य

महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर सदन में चर्चा ही नहीं करना चाहते भारत के राजनीतिज्ञ
लोकसभा में बजट सत्र पर चर्चा जारी है और अगर इन चर्चाओं के विषयों पर गौर किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि सदन में मौजूद सत्ता पक्ष व विपक्ष को अपनी वेतन वृद्धि के अलावा किसी फैसले में दिलचस्पी नहीं है। नतीजतन लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं को मजबूती प्रदान करने वाली सदन की कार्यवाही अब उबाऊ लगने लगी है और सदन में मौजूद चेहरों को देखने व उनके बयानेअन्दाज को महसूस करने के बाद ऐसा लगने लगा है कि मानो सब कुछ कामचलाऊ व टालने वाले अन्दाज में आगे बढ़ रहा हो लेकिन इस सबके बावजूद जनता का भरोसा नेताओं पर कायम है और पढ़ा-लिखा माना जाने वाला देश का मध्यम वर्ग ही नहीं बल्कि राजनैतिक प्रक्रिया व गतिविधियों से प्रायः दूरी बनाकर चलने वाला उच्च वर्ग व चुनावी मोर्चे पर हर तरह से इस्तेमाल किया जाने वाला निम्न वर्ग भी सरकार द्वारा बजट में किए गए प्रावधानों व सरकार की मंशा को समझने का प्रयास कर रहा है और बजट के सदन पटल पर प्रस्तुत होते ही शेयर बाजार के धड़ाम से गिरने की घटना को कई तरह से समझने की कोशिश की जा रही है। हालांकि पूर्ण बहुमत के दम्भ से चूर सत्ता पक्ष द्वारा बजट में किए गए प्रावधानों को बदलने या फिर उनमें आंशिक रूप से परिर्वतन किए जाने की कोई सम्भावना नहीं है और न ही विपक्ष इस हद तक एकजुट है कि वह सदन के साथ सड़कों पर भी सरकार की नीतियों का विरोध कर उसे अपनी बात समझने के लिए मजबूर कर दे लेकिन इस सबके बावजूद सदन में हल्ला-गुल्ला, बर्हिगमन व औचित्यहीन तर्कों के साथ जनता को बेवकूफ बनाने का क्रम जारी है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जनता के बीच से चुने गए जनप्रतिनिधि सत्ता के इस शीर्ष प्रतिष्ठान में बैठकर आपसी तालमेल से आम आदमी का मजाक उड़ा रहे हों। कितना आश्चर्यजनक है कि सरकार बजट-2018 को प्रस्तुत करती है लेकिन उसके तर्कों, योजनाओं व प्रावधानों में 2022 की छाप स्पष्ट दिख रही है और किसी भी बहस अथवा भाषण के दौरान सरकार के प्रतिनिधि यह जानकारी देना जरूरी नहीं समझ रहे कि बजट में किए गए धन के प्रावधानों को जुटाने के लिए सरकार क्या उपाय करने जा रही है या फिर जन सामान्य को इस वित्तीय वर्ष में इन प्रावधानों से क्या लाभ अथवा हानि होने जा रही है। ठीक इसी प्रकार विपक्ष भी हो-हल्ले का मार्ग छोड़कर तार्किक चर्चा के लिए तैयार नहीं है और न ही उसने वैकल्पिक विषयों को लेकर आपस में कोई चर्चा ही की गयी मालूम होती है बल्कि सदन में हो रहे हो-हल्ले तथा रोजाना की कार्यवाही बाधित करने के प्रयासों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि विपक्ष का विरोध सिर्फ विरोध होता दिखने के लिए है और विपक्षी राजनैतिक दलों का सरकार की घेराबंदी कर सत्ता प्राप्त करने के अलावा कोई दूसरा एजेण्डा ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि सदन में जानकार लोगों या फिर स्पष्ट वक्ताओं का आभाव है और सिर्फ जोड़-जुगाड़ तक सीमित रह गए भारतीय लोकतंत्र ने ज्ञान-विज्ञान व योजना बनाये जाने का महत्वपूर्ण जिम्मा नौकरशाही पर सौंप दिया है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सरकार की गतिविधियों व व्यापक जनहितकारी योजनाओं को लेकर चल रही प्रवृत्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी पारदर्शिता खोती जा रही है तथा सत्ता पर काबिज होने के बाद नेता व राजनैतिक दल सब कुछ जनता के समक्ष रखने की अपेक्षा बहुत कुछ छिपा लेने पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। कुछ अर्सा पहले तक मीडिया जनपक्ष को सामने रखने तथा व्यापक जनहित की पैरोकारी करने में अग्रणी भूमिका अदा करता था तथा सरकार के फैसलों व बजट के प्रावधानों को लेकर लम्बी-लम्बी चर्चाओं के उपरांत इसके पक्ष अथवा विपक्ष में लंबे-लंबे आलेख सामने आते थे लेकिन इधर पिछले कुछ समय में जनता के बीच भी पढ़ने व सीखने की प्रवृत्ति कम हुई है और लोगों ने बुद्धू बक्से के सामने बैठकर होने वाली लम्बी-लम्बी व निरर्थक चर्चाओं को ही पत्रकारिता मान लिया है जिसके परिणाम ज्वलंत विषयों व व्यापक जनहित से जुड़े सवालों से तेजी के साथ दूर होते दिख रहे मीडिया के रूप में हमारे सामने हैं और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि अपने इस नये कलेवर को अख्तियार करने के बाद लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहलाये जाने वाले पत्रकारिता के पेशे में न सिर्फ गिरावट महसूस की गयी है बल्कि पत्रकारों की लोकप्रियता व जनपक्षीय मुद्दों पर आम जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता को भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह माना कि जनता के बीच से चुनकर आयी सरकारों को तय समय सीमा तक अपनी नीतियों एवं विवेक के आधार पर शासन चलाने का हक है तथा इसके लिए वार्षिक आय-व्यय का विवरण देने व योजनाएं बनाने के कई प्रावधान हमारी विधायिका में किए गए हैं लेकिन यह देखने में आ रहा है कि व्यापक जनहित के दावे के साथ अस्तित्व में आयी यह तमाम सरकारें एक बार सत्ता पर काबिज होने के बाद इस कब्जेदारी को लगातार बढ़ाते रहने तथा अपनी मनमर्जी के हिसाब से सरकार चलाने के लिए प्रयासरत् दिखती है जिसके नतीजे सदन में होने वाले कामकाज के दौरान विपक्ष द्वारा किए जाने वाले हल्ले-गुल्ले व बर्हिगमन के रूप में हमारे सामने आते हैं और बजट जैसी महत्वपूर्ण व्यवस्था अक्सर बिना चर्चा अथवा बहस के पारित मान ली जाती है। अगर देश की आजादी के तत्काल बाद की स्थितियों का अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि जनपक्षीय सरकारों ने उस दौर में विपक्ष के कमजोर होेने के बावजूद उसका सम्मान रखा है तथा देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा होने के बाद भी तत्कालीन सरकारों का प्रयास रहता था कि बजटीय प्रावधानों व जनहित में चलायी जाने वाली तमाम योजनाओं के पक्ष-विपक्ष को व्यापक जन चर्चाओं का विषय बनाया जाय लेकिन इधर सरकार की प्राथमिकताएं बदली हैं और सरकार चलाने वाली विचारधारा व सत्ता के शीर्ष पर काबिज नेताओं ने यह मान लिया है कि जनचर्चाओं अथवा बहस के माध्यम से किसी भी योजना का प्रभाव जानने का प्रयास करने अथवा उसका प्रचार करने से कहीं ज्यादा अच्छा है कि विज्ञापन के जरिये अपने पक्ष को मजबूती के साथ जनता के समक्ष रखकर वाहवाही लूटी जाय। हो सकता है कि सरकारी पक्ष का मानना हो कि विज्ञापन के जरिये वह अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच ले जा सकती है और ज्यादा जानकारी से अधिकतम् लोगों को लाभ अथवा राहत की प्राप्ति हो सकती है लेकिन अगर तथ्यों की गंभीरता पर गौर किया जाय तो चर्चा के स्थान पर विज्ञापन का यह तरीका न सिर्फ विरोध की गुंजाईश को समाप्त करता है बल्कि राजनीति के तौर-तरीकों में बढ़ती जा रही सामंतशाही का भी प्रतिनिधित्व करता है। हम देख रहे हैं कि मौजूदा दौर के नेता अपने विरोधी पक्ष को सुनने अथवा देखने तक को तैयार नहीं हैं और कानून से इतर हटकर विरोधी पक्ष की आवाजें दबाने या फिर अनसुनी करने के लिए सरकारें कई तरह के हथकंडे अपनाती दिख रही है। नतीजतन लोकतंत्र का प्रभावी स्वरूप बदलता नजर आ रहा है और जनता के बीच से चुनी गयी तथाकथित रूप से जनहितकारी सरकारों के प्रतिनिधि खुद को जनता के नुमाइन्दों के रूप में प्रस्तुत करने की जगह क्षत्रपों या फिर अपने-अपने इलाकों के हुक्मरानों की तरह प्रस्तुत करने लगे हैं जिसके कारण राजनीति की प्राथमिकताएं व परम्पराएं तेजी से बदलती प्रतीत हो रही हैं। इन बदलती प्राथमिकताओं के बीच व्यापक जनहित कैसे सुरक्षित रह पाएगा तथा किसी भी स्तर पर अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार नहीं दिखता सत्ता पक्ष आंकड़ों की कलाबाजी के जरिये दिवास्वप्न दिखाकर जनसामान्य को भ्रमित करने के अपने क्रियाकलाप से कब बाज आएगा, यह कहा नहीं जा सकता लेकिन अगर वक्त की नजाकत व हालातों के इशारे पर गौर करें तो हम इस तथ्य को आसानी से महसूस कर सकते हैं कि चुनावों के दौरान जनसामान्य को दिखाया गया अच्छे दिन का ख्वाब पूरा करना हाल-फिलहाल इस सरकार के बस से बाहर है और सत्ता पक्ष यह भी महसूस करने लगा है कि जनता धीरे-धीरे कर ही सही किंतु सत्ता पक्ष की हकीकत समझ रही है। शायद यही वजह है कि सरकार कई विवादित मामलों को तूल देकर व्यापक जनचर्चाओं के विषय बदलना चाहती है और राफेल सौदे में हेरा-फेरी का मुद्दा सामने आने से पहले ही उसने बोफोर्स के मुद्दे को पुर्नजीवित करने की कोशिश कर हवा का रूख बदलने की मुहिम शुरू कर दी है।

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