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Saturday, April 27, 2024

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जाति और धर्म के नाम पर

आयोग के निर्देशो के बावजूद मुश्किल है जाति एवं धर्म के नाम पर होने वाली राजनैतिक लामबन्दी पर किसी भी तरह की रोक।

राजनीति में धर्म व जाति के आॅकड़ो का उपयोग करते हुए इसे आधार बनाकर वोट माॅगना तथा चुनावी लामबन्दी करना देश के उच्चतम न्यायालय व चुनाव आयोग दोनो के द्वारा ही प्रतिबन्धित करार दिया जा चुका है लेकिन संवेधानिक व्यवस्थाओं के तहत कुछ विधानसभाओ व लोकसभा क्षेत्रो को दलितों व पिछड़ो के चुनाव लड़ने के लिए छोड़ने के विषय पर आयोग ने कोई टिप्पणी नही की है और इसकी वजह भी साफ है। हाॅलाकि माननीय उच्चतम् न्यायालय द्वारा कुछ समय पूर्व की गयी हिन्दू धर्म की व्याख्या के तहत इसे एक धर्म मानने के स्थान पर जीवन पद्धति का तरीका व भारतीय परम्पराओं का हिस्सा बताये जाने के बाद इस विषय पर अभी संसय है कि हिन्दुत्व को शक्तिशाली बनाने के नारे के साथ उग्र राष्ट्रवाद का नारा लगाने वाली राजनैतिक ताकते आगामी पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों में न्यायालय व आयोग के इस आदेश को किस तरह लेंगी और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पूर्णतः जातीय व धार्मिक लामबन्दी से लड़े जाने वाले विधानसभा चुनावों में जातीय नेताओं व समीकरणों के आधार पर चुने जाने वाले प्रत्याशियों की भूमिका कैसे तय होगी लेकिन यह उम्मीद करनी चाहिए कि सभी राजनैतिक दल आयोग व न्यायालय के इस फैसले का सम्मान करेंगे और उ0प्र0 विधानसभा के चुनावों के दौरान ‘राम मन्दिर वहीं बनाने की जिद’ व चुनावी फतवों की गूंज नही सुनाई देगी। यह ठीक है कि यह सब कुछ हो पाना इतना आसान नही है और न ही आयोग के पास कोई जादू की छड़ी है कि वह अपने इरादे को अमल में लाने में बिना किसी मशक्कत के सफलता प्राप्त कर लेगी लेकिन फिर भी जनता इस बार आशाविन्त है क्योंकि मतदाताओं को धर्म या जाति के नाम पर लामबन्द होने के लिए प्रेरित करने वाले जातीय दंगे इस बार उ0प्र0 में असर नही दिखा रहे और न ही उत्तर प्रदेश सरकार के आधीन आने वाली कानून व्यवस्था का अनुपालन कराने के लिए जिम्मेदार पुलिस इतनी कमजोर दिख रही है कि वह दंगे के हालातो या फिर जातीय हिंसा से न निपट सके। कुल मिलाकर कहने क तात्पर्य यह है कि इन पाॅच राज्यों के चुनाव के माध्यम से भारत और ज्यादा धर्मनिरपेक्षता की ओर जाना चाहता है तथा भारतीय लोकतन्त्र के एक स्तम्भ की ओर ये यह प्रयास शुरू हो गये है कि देश में तेजी से बढ़ रहे धार्मिक व जातीय वैमनस्य पर प्रभावी रोक लगाये जाए लेकिन सवाल यह है कि विभिन्न राजनैतिक दलो द्वारा गठित अल्पसंख्यक मोर्चो व दलितो के नाम पर बनाये गये अनुषंगिक संगठनो को खारिज किए बिना यह उम्मीद भी कैसे की जा सकती है कि चुनावी मौसम में इन मोर्चो अथवा अनुषंगिक संगठनो की आड़ में अपनी राजनैतिक रोटी सेक रहे नेता एकाएक ही मुख्यधारा की राजनीति में आ जायेंगे और चुनावी जीत के लिए प्रत्याशी का स्थानीय मतदाताओं के ही समान जाति व धर्म का होने के स्थान पर विकास के लिए प्र्रतिबद्ध होना व लोकप्रिय होना एक आवश्यक शर्त हो जायेगी। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि वर्तमान तक लगभग सभी राजनैतिक दल निर्वाचन क्षेत्र मंे मतदाताओं के धार्मिक आॅकड़े व जातिगत् समीकरणो को देखते हुए ही प्रत्याशी तय करते है और चुनावी दौर में तमाम समाचार पत्र व मीडिया के अन्य प्रचलित संसाधनो के जरिये इन आॅकड़ो को जोर-शोर से प्रचारित व प्रसारित किया जाता है कि अमुक विधानसभा क्षेत्र में इतने मुसलिम, इतने दलित, इतने ब्राहमण या इतने वैश्य मतदाता है। मतदाताओं के संदर्भ में स्पष्ट रूप से आने वाले यह आॅकड़े तथा इन आॅकड़ो के आधार पर तय होने प्रत्याशियों की एक बड़ी संख्या को देखते हुए इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि चुनावों में टिकट वितरण, विधानसभा क्षेत्रों के आरक्षण व प्रचार को लेकर बनायी जाने वाली रणनीति में मूलभूत परिवर्तन किये बिना यह सम्भव ही नही है कि कोई आयोग या न्यायालय राजनीतिज्ञो व राजनैतिक दलो को बाध्य कर सके कि वह चुनावों के दौरान धर्म व जाति के आधार पर मतदान करने की अपील न करे। यह ठीक है कि भारत देश मे संविधान में किये गये संशोधनो के क्रम में दलितोत्थान को ध्यान मे रखते हुए लोकसभा व विधानसभा में कुछ स्थान दलित व पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित करने की परम्परा रही है और ठीक इसी क्रम में देश की महिला मतदाताओं का एक वर्ग भी अपने लिऐ सत्ता के उच्च सदनों में एक निश्चित अनुपात में आरक्षण की माॅग करने लगा हैं। अधिकाशतः यह देखा गया है कि इन आरक्षित सीटो पर दावेदारी करने की ललक और एक जाति, क्षेत्र अथवा भाषा विशेष के आधार पर मतदाताओं को अपने साथ जोड़े रखने की तिकड़म ही राजनीति में धर्म अथवा जातिगत् आॅकड़ो के उपयोग को उकसाती है और सरकार अथवा किसी अन्य व्यवस्था के पास ऐसा कोई नुस्खा नही है कि वह कुछ सीटो को आरक्षित किये जाने की परम्परा में बदलाव लाये बिना, मतदान के वक्त या फिर चुनावों के मौके पर जातीय अथवा धार्मिक आधार पर लामबन्दी को रोक सके। सरकार अगर चाहती तो सभी राजनैतिक दलो की आम सहमति से सत्ता के उच्च सदनो में प्रस्ताव लाकर यह व्यवस्था लागू की जा सकती थी कि आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से एक या दो बार निर्वाचित होने के बाद उम्मीदवार अगर सक्रिय रूप से राजनीति में भागीदारी चाहता है तो उसे सामान्य सीटो से ही चुनाव लड़ना होगा। इस स्थिति में दलित अथवा जातीय नेताओं को सामान्य सीटो का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलने से सामाजिक सामजस्य व आपसी भाईचारा तो बढ़ेगा ही, साथ किसी भी नेता पर दलितो या किसी अन्य जाति विशेष का नेता होने का ठप्पा लगने की सम्भावनाऐं भी क्षीण होगी तथा समाज के निचले वर्ग को लगातार नया नेतृत्व मिलने की सम्भावना भी बनी रहेगी। उपरोक्त के अलावा चुनाव आयोग सक्रिय राजनीति में भागीदारी करने वाले तमाम राजनैतिक दलो को अपने द्वारा तय किये गये प्रत्याशियों में से कुछ निश्चित संख्या दलितो, महिलाओ, पिछड़ो व युवाओं के लिए भी सुरक्षित किये जाने को बाध्य कर सकता है लेकिन यह तय करना होगा कि यह आरक्षण क्षेत्रीय समीकरण के आधार पर न होकर सिर्फ संख्या के आधार पर हो। सम्पूर्ण भारत को एकता व समरसता के सूत्र में बाॅधने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने जनप्रतिनिधियों को समाज के विभिन्न वर्गो के क्षत्रपों के रूप में पहचानने के स्थान पर उन्हे लोकतान्त्रिक व्यवस्था के पहरूओं व विकास की सोच को लेकर आने बढ़ने वाले तत्पर राजनीतिज्ञो के रूप में पहचाने और अगर ऐसा हो पाया तो हमारे समाज में व्याप्त कई तरह की कमियों के अलावा लोकतान्त्रिक व्यवस्थो के तहत होने वाले चुनावो को लेकर भी हमे कुछ आश्चर्यजनक सुधार देखने को मिल सकते है लेकिन सवाल यह हेै कि हमें जाति, धर्म और सम्प्रदाय में बाॅट कर सत्ता की राजनीति करने वाले चंद चेहरे इतनी आसानी से यह सब क्यों होने देगे क्योंकि व्यवस्था मंे होने वाला इस तरह का कोई भी परिवर्तन उनके सिंहासन को डांवाडोल जो करने लगता है।

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