व्यापक जनसमर्थन के आभाव में | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 27, 2024

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व्यापक जनसमर्थन के आभाव में

इस बार जनचर्चाओं का विषय बनने में असफल रहा अन्ना का आंदोलन
जनलोकपाल की मांग और किसानों की समस्याओं को लेकर आमरण अनशन पर बैठे अन्ना इस बार जनता का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में असफल दिखे और भीड़ की कमी के चलते उम्मीदों से पहले ही पस्त दिखा अन्ना हजारे का यह आंदोलन भारतीय जनमानस पर अपना व्यापक प्रभाव छोड़ने में असफल रहा। यह ठीक है कि उनके इस प्रयास को केन्द्र सरकार द्वारा पूरी अहमियत दी गयी और विभिन्न स्तर पर चली वार्ताओं के बाद वह सरकार से कुछ लिखित आश्वासन लेने में भी सफल रहे लेकिन ऐसा नहीं लगता कि भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के पिटारे से निकले इन आश्वासनों के बाद किसानों को कुछ राहत महसूस होगी या फिर विभिन्न स्तरों पर आंदोलन कर रहे किसानों के तमाम संगठन अन्ना व केन्द्र सरकार के बीच हुए इस समझौते से आश्वस्त होकर अपना आंदोलन अधर में ही छोड़ देंगे और आगामी लोकसभा चुनावों से पहले केन्द्र सरकार द्वारा एक सशक्त लोकपाल का गठन कर लिया जाएगा। यह माना कि अन्ना का वर्तमान आंदोलन असफल रहने या फिर इसके जनता की निगाहों में न चढ़ने के पीछे एक बड़ी वजह इस सम्पूर्ण घटनाक्रम की मीडिया द्वारा की गयी अनदेखी रही और वर्तमान सरकार ने भी अन्ना को बहुत ज्यादा गम्भीरता से नहीं लिया लेकिन यह भी तो हो सकता है कि अन्ना के इस आंदोलन की ओर जनता के कम रूझान को देखते हुए ही मीडिया ने इसे हाथोंहाथ न लिया हो और जो मुद्दे अन्ना द्वारा अपने आंदोलन के माध्यम से उठाये गये हों वह सामयिक न रहने के कारण जनता की दिलचस्पी इसमें कम दिखी हो। जहां तक लोकपाल के गठन का सवाल है तो अपनी ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा ने अपने इन चार सालों के शासनकाल में यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर सरकारी तंत्र चाहे तो वह चुनाव आयोग न्यायपालिका या सीबीआई जैसी तमाम स्वतंत्र व स्वायत्त संस्थाओं को अपने हिसाब से चलने व फैसले लेने के लिए मजबूर कर सकता है और राजनैतिक व्यक्तित्वों द्वारा पूर्व में किए गए कदाचार को सीढ़ी बनाकर न सिर्फ राजनैतिक सफलता हासिल की जा सकती है बल्कि विपक्ष के नेताओं को जेल और कानून का भय दिखाकर आसानी के साथ मिला चुनावी जीत सुनिश्चित की जा सकती है। इन हालातों में सशक्त लोकपाल की अवधारणा तथा इस अवधारणा से सरकार द्वारा सहमति व्यक्त किए जाने पर अन्ना हजारे द्वारा तोड़ा गया आमरण अनशन कितना औचित्यपूर्ण व चर्चा योग्य हो सकता है, कहा नहीं जा सकता। ठीक इसी तरह किसानों की समस्याओं व किसान संगठनों की मांगों को अपने आंदोलन का विषय बनाकर तमाम बिंदुओं पर सरकार के साथ सहमति व्यक्त करने वाले अन्ना अगर किसानों की ओर से सरकार के साथ समझौता करने से पूर्व आंदोलनरत् संगठनों की सहमति प्राप्त करना या फिर उनसे इस संदर्भ में वार्ता करना तक उचित नहीं समझते तो फिर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि उनके आमरण अनशन समाप्त करने पर किसानों के संगठनों का आंदोलन भी समाप्त हो जाएगा और अगर आंदोलनरत् किसानों व उनके नेताओं को यह महसूस नहीं होता कि अन्ना व सरकार के बीच हुए किसी भी समझौते के बाद उनकी समस्याओं का समाधान हो जायेगा तो फिर जबरदस्ती का नेता बनने वाले अंदाज में शुरू हुए इस आमरण अनशन व इसकी समाप्ति का क्या औचित्य। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि अपने पिछले आंदोलन के दौरान केन्द्र सरकार को हिलाकर रख देने वाले तथा अपने गांधीवादी अंदाज से जनता को अपने साथ खड़े होने के लिए मजबूर कर देने वाले अन्ना इस बार जनता के बीच अपना कोई विशेष प्रभाव छोड़ पाने में असफल रहे और उनकी पूरी कवायद को देखकर ऐसा महसूस हुआ कि मानो वह किसानों के आक्रोश व उनके आंदोलनों के आगामी लोकसभा चुनावों पर पड़ने वाले प्रभाव से भाजपा को बचाने के लिए एक छद्म आभामंडल का निर्माण कर सरकार को क्लीन चिट देने की कोशिश कर रहे हों। वैसे भी अन्ना के पहले आंदोलन के पीछे संघ का हाथ होने तथा आंदोलन के दौरान उन्हें संघ का मूक सहयोग मिलने के चर्चे सामने आते रहे हैं तथा उनके आंदोलन में सक्रिय पूर्व पुलिस अधिकारी किरन बेदी व पूर्व सैन्य अधिकारी वीके सिंह समेत अन्य कई नामचीन चेहरों के भाजपा में शामिल होकर चुनाव लड़ने के बाद यह भी स्पष्ट हो गया था कि खुद को गैरराजनैतिक घोषित करने वाले अन्ना को भाजपा की राजनीति अथवा रणनीति से कोई परहेज नहीं था। हां वह केजरीवाल द्वारा मेला लूटकर ले जाने वाले अंदाज में नया राजनैतिक दल बनाने या चुनाव लड़ने से खफा जरूर थे और इसके लिए उन्होंने इस बार आंदोलन शुरू करने से पूर्व खुले मंचों से स्वीकार भी किया कि अब वह कोई नया केजरीवाल नहीं बनने देंगे लेकिन उनके मंतव्य से यह कभी स्पष्ट नहीं हुआ कि उन्हें अपने कार्यकर्ताओं के किरन बेदी या वीके सिंह बनने से ऐतराज था कि नहीं। हालांकि इस बार अन्ना के मंच से वह तमाम चेहरे भी गायब दिखे जो पूर्व की कांग्रेस सरकार के विरोध में अन्ना के आंदोलन को हर तरह की सम्भव मदद का आश्वासन देकर राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं और संघ के सहयोग के आभाव में इस बार अन्ना के धरना स्थल पर खुले भण्डारे जैसे तमाम आयोजन भी नदारद दिखे लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के सहयोगियों व समर्थकों का यह तबका दूर से ही सारे माहौल पर नजर रखे हुए था और माहौल का नियंत्रण अन्ना के हाथों से निकलने से पहले ही इनके द्वारा सरकार व टीम अन्ना को समझौते का इशारा कर दिया गया। ठीक इसी तरह दृढ़ प्रतिज्ञ व धुन के पक्के माने जाने वाले अन्ना इस बार किसी भी मुद्दे या समझौते के बिंदु पर जिद में अड़ते नहीं दिखाई दिए और न ही उन्होंने अपने मंच से उन तमाम ज्वलंत विषयों का चर्चा ही किया जो केन्द्र सरकार की असफलता या गलत नीयत की ओर इशारा करते थे। नतीजतन मोदी राज में बढ़ी बेरोजगारी व महंगाई अन्ना के इस आंदोलन के दौरान चर्चा की विषय वस्तु ही नहीं बनी और न ही सरकारी शह पर भाजपा में शामिल होते व चुनाव जीतते भ्रष्ट नेताओं पर ही कोई टीका-टिप्पणी की गयी जिसके चलते अन्ना का यह आंदोलन युवा वर्ग के एक बड़े तबके का ध्यान अपनी ओर खींचने में असफल रहा तथा देश के विभिन्न हिस्सों में छोटे-बड़े तमाम मुद्दों को लेकर सरकार की मंशा के खिलाफ आंदोलन कर रहे अनेकानेक जनवादी संगठन व युवाओं के समूह अंतिम समय तक इस आंदोलन का हिस्सा बनने या इसे समर्थन देने से हिचकते रहे। नतीजतन इस पूरे आंदोलन में इस बार ऐसा कुछ भी नहीं था कि मीडिया इसमें दिलचस्पी लेता या फिर इसे समग्र किसानों व आंदोलनरत् युवा वर्ग का आंदोलन माना जाता और यह अपेक्षा की जाती कि अन्ना हजारे एक बार फिर सरकार को हिलने या झुकने के लिए मजबूर करने में कामयाब होंगे लेकिन इस सबके बावजूद मीडिया के एक बड़े हिस्से से खफा रहने वाले हमारे साथी अगर मीडिया पर यह आरोप लगाते हैं कि मोदी की गोद में बैठा बिकाऊ मीडिया जानबूझकर इस सारे आंदोलन को अनदेखा कर रहा था और जनता को दिगभ्रमित करने वाले अंदाज में जानबूझकर जन्तर-मंतर की खबरों को आम जनता तक नहीं पहुँचने दिया जा रहा था तो इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अन्ना के इस आंदोलन के निष्कर्षों व सरकार बनाम अन्ना के बीच हुए समझौते की भाषा पर ध्यान देना चाहिए जिसे पढ़कर दूर-दूर तक यह नहीं लगता कि तथाकथित रूप से जिद्दी अन्ना ने अपनी ओर से कोई भी विशेष शर्त या शब्द इस समझौते में जोड़ने की जिद की हो बल्कि अगर व्यापक परिपेक्ष्य में विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि देश के विभिन्न हिस्सों में चरम् पर चल रहे किसान आंदोलन से सरकार की छवि को हो रहे नुकसान को देखते हुए शहरी या कस्बाई क्षेत्रों में रहने वाले मध्यम वर्ग का ध्यान असल मुद्दों से हटाने के लिए कुछ लोगों द्वारा अन्ना के इस आंदोलन की रूपरेखा रची गयी और एक अंतर्राष्ट्रीय छवि के रूप में प्रतिष्ठित होने के लोभ में अन्ना हजारे एक बार फिर इस्तेमाल कर लिए गए।

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