आन्दोलनों की जद में | Jokhim Samachar Network

Wednesday, April 24, 2024

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आन्दोलनों की जद में

बेरोजगारी के मुद्दे पर सड़कों में उतरे युवाओं को नकारना या अनदेखा करना हो सकता है हर दृष्टिकोण से नुकसानदेह।
हड़तालों और आन्दोलनों से जूझते उत्तराखंड में बेरोजगारी के खिलाफ एकजुट छात्रों व युवाओं का सरकार की कार्यशैली के खिलाफ प्रदर्शन तथा शासन स्तर पर रिक्त चल रहे पदों पर भर्ती खोले जाने को लेकर दिया गया धरना अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना है और सरकारी तंत्र द्वारा आंदोलित युवा शक्ति पर किया गया लाठीचार्ज यह अहसास कराता है कि सरकार के पास युवाओं के तमाम सवालों का कोई जवाब नहीं है। हालांकि राज्य के इतिहास में यह कोई पहली घटना नहीं है जब आक्रोशित जन समूह ने बिना किसी नेतृत्व के सड़कों पर किंतु शान्तिपूर्ण व अनुशासित तरीके से सरकार के खिलाफ आंदोलन किया है और न ही सरकार इस तमाम कवायद को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित ही दिखाई दे रही है लेकिन अगर इस राज्य के इतिहास पर गौर करें तो हम पाते हैं कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए लड़े गए निर्णायक आंदोलन की शुरूआत भी कुछ इसी तरह बेरोजगारी व शैक्षणिक व्यवस्था में आरक्षण के खिलाफ उमड़े युवाओं के आक्रोश के माध्यम से हुई थी जिसने बाद में पृथक राज्य के आंदोलन का रूप ले लिया था और यह माना गया था कि राज्य बनने के बाद सत्ता के शीर्ष पर बनने वाली अपने लोगों की सरकार आसानी के साथ इस समस्या का समाधान ढूंढने में सफल होगी लेकिन अफसोस राज्य बनने के इन सत्रह सालों में राज्य में गठित तथाकथित जनहितकारी सरकारों ने इस दिशा में कोई प्रयास ही नहीं किए जिसके परिणाम आन्दोलनरत् युवा वर्ग के रूप में समय-समय पर हमारे सामने आने लगे हैं। यह माना कि सरकार के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है कि वह एक झटके में राज्य के तमाम युवाओं को सरकारी नौकरियां रेवड़ी वाले अंदाज में बांट दे या फिर सरकारी धन की मदद से युवाओं को बारोजगार बनाने के सभी कार्यक्रमों को एक साथ सफलता मिल जाये लेकिन अगर हालातों पर गौर करें तो यह साफ दिखाई देता है कि राज्य में अब तक गठित होने वाली किसी भी सरकार ने इन गंभीर समस्या की ओर ध्यान ही नहीं दिया और अब बेरोजगारों की संख्या बढ़ते-बढ़ते स्थिति विस्फोटक होने की कगार पर है। यह ठीक है कि राज्य बनने के तत्काल बाद गठित पहली जनता द्वारा चुनी गयी सरकार के मुखिया पंडित नारायण दत्त तिवारी ने राज्य के मैदानी इलाकों में सिडकुल की स्थापना कर उद्योगों को आमंत्रित करते हुए रोजगार के नये संसाधन पैदा करने का प्रयास किया तथा इसके बाद आयी अन्य तमाम सरकारों ने भी राज्य के मैदानी व पर्वतीय क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना के लिए विभिन्न योजनाएं व नीतियां बनाकर रोजगार के नये जरिये खोजने की घोषणा की लेकिन नीतियों में पारदर्शिता के आभाव व बेरोजगारी के खिलाफ लड़ने की सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति के चलते इन तमाम व्यवस्थाओं का जन सामान्य को कोई फायदा नहीं हुआ और इस सारी जद्दोजहद में अगर कुछ रोजगार के अवसर पैदा हुए भी तो उन सब में से अधिकांश पर देश के अन्य राज्यों से आये अनुभवी व सुशिक्षित युवाओं ने कब्जा जमा लिया। हालांकि सरकार लगातार यह दावा करती रही कि विभिन्न योजनाओं व नीतियों के तहत तमाम तरह की छूट व आर्थिक लाभ ले रहे यह नवस्थापित कल-कारखाने रोजगार पैदा किए जाने के अभूतपूर्व अवसर हैं तथा इन तमाम उद्योगों में स्थानीय जनता को रोजगार दिया जाना एक आवश्यक शर्त के रूप में जोड़ा गया है लेकिन हकीकत में किसी भी उद्योग या कल-कारखाने ने इस सम्बंध में निर्धारित किए गए सत्तर फीसदी के आंकड़े को छूने की कभी कोशिश ही नहीं की और वर्तमान में तो हालात ज्यादा ही संगीन हो गए हैं क्योंकि सरकार द्वारा निर्धारित की गयी छूट की समय सीमा का लाभ लेने के बाद अधिकांश उद्योग व उद्योगपति श्रमिक समस्याओं का बहाना बनाकर उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों से अपना कामकाज समेटने की तैयारी में हैं जिसके चलते अल्पकालीन रोजगार अथवा अन्य माध्यमों से अपनी न्यूनतम आय व अन्य संसाधनों के साथ अपनी गुजर-बसर कर रहा यह श्रमिक वर्ग खुद को ठगा महसूस कर रहा है। सरकार की गलत नीतियों व तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण जहां एक ओर वर्षों से शोषण का शिकार हो रहा यह कारखाना मजदूर रोजी-रोटी के संकट से जूझ रहा है वहीं दूसरी ओर श्रमिकों के इस बड़े तबके के बीच वैचारिक संगठनों के रूप में काम कर रहे तमाम माओवादी व नक्सलवादी संगठनों की घुसपैठ से राज्य में होने वाले किसी भी किस्म के आंदोलन के हिंसक होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे मौके पर बेरोजगारी के खिलाफ व्यापक जनसंघर्ष के नारे के साथ युवाओं के बड़े हुजूम अगर सड़कों पर उतरने लगे तथा सरकार इन आंदोलनरत् युवा संगठनों की वाजिब मांगों पर ध्यान देने के स्थान पर लाठीचार्ज या अन्य माध्यमों से आंदोलन को दबाने की दिशा में सक्रिय नजर आयी तो स्थितियों के विस्फोटक होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी सत्ता के शीर्ष सदन पर काबिज जनप्रतिनिधियों द्वारा सरकार की शह पर अपने वेतन दुगने और तिगुने कर लेने के संदर्भ में लिए गए फैसले से जनता खुश नहीं है और न ही यह माना जा रहा है कि पूर्ववर्ती सरकार द्वारा बेरोजगारों के हितों को ध्यान रखते हुए लिए गए बेरोजगारी भत्ता प्रदान करने के फैसले को यूं ही एक झटके में बंद कर दिए जाने के सम्बंध में वर्तमान सरकार द्वारा लिया गया निर्णय सही है। इसलिए जनता की हमदर्दी पूरी तरह बेरोजगारों व युवाओं के साथ है और अगर हमदर्दी व संवेदना का यह शांत ज्वालामुखी अपना विकराल रूप लेता हुआ राज्य में पहले से ही आंदोलनरत् गैरसैण को राज्य की स्थायी राजधानी बनाये जाने की मांग कर रहे जन संगठनों को भी अपने आगोश में ले लेता है तो फिर राज्य की सीमाओं के भीतर बड़े स्तर की राजनैतिक क्रांति की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। हालांकि सत्ता पक्ष के नेताओं व सरकार के प्रवक्ताओं का मानना है कि गैरसैण राजधानी के मुद्दे पर चल रहे आंदोलन व युवाओं द्वारा बेरोजगारी के सवाल पर किए गए प्रदर्शन के पीछे मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का हाथ है और विपक्ष मुद्दों के आभाव में इस तरह के विषय उठाकर सत्ता पक्ष को बदनाम करना चाहता है लेकिन यह एक बड़ा सवाल है कि अगर कांग्रेस के नेताओं की आंदोलनरत् जनसंगठनों व बिना किसी बैनर के स्वतः स्फूर्त अंदाज में बेरोजगारी के खिलाफ प्रदर्शन को सड़कों पर उतरे युवा वर्ग के बीच इतनी गहन पैठ थी तो फिर कांग्रेस राज्य के विधानसभा चुनावों में इतनी बुरी तरह पराजित कैसे हुई। यह एक बड़ा सवाल है और इस तरह के तमाम सवालातों का जवाब देने के लिए सरकार को जनता के बीच आना ही होगा। जहां तक बेरोजगारी भत्ते का सवाल है तो सरकार का यह कथन अपनी जगह सही हो सकता है कि मात्र पन्द्रह सौ रूपये के बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था कर बेरोजगारों को परजीवी बनाना न्यायसंगत नहीं है लेकिन अगर हालातों की गंभीरता पर गौर करें तो हम पाते हैं कि बेरोजगारी भत्ता पाने वाले अधिकांश बेरोजगारों द्वारा यह धनराशि सरकार द्वारा विज्ञापित किए जाने वाले विभिन्न पदों पर आवेदन के वक्त निर्धारित किए गए शुल्क के रूप में या फिर विभिन्न परीक्षाओं में भागीदारी के लिए आवागमन हेतु ही खर्च की जाती रही है और यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि सरकार ने इस धनराशि को अवमुक्त करने से इंकार करते हुए युवाओं पर बड़ा कुठाराघात किया है। यह माना कि भाजपा व उसके तमाम अनुषांगिक संगठन वर्तमान तक हिन्दू-मुस्लिम के साम्प्रदायिक विभेद व इसी तरह के अन्य छदम् राष्ट्रवादी मुद्दों को उठाकर युवाओं के एक बड़े वर्ग को अपने पक्ष में खड़ा करने में कामयाब रहे हैं और मीडिया के एक हिस्से का उपयोग कर खड़ी की गयी देश के प्रधानमंत्री मोदी की चमत्कारी छवि के माध्यम से भाजपा अभी आगे भी चुनावी जीत हासिल करने की सम्भावनाओं के नये मार्ग तलाशने में जुटी है लेकिन इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि रोजी-रोटी से जुड़े सवालातों और राज्य में लगातार बढ़ रहे पलायन जैसे गंभीर मुद्दों को लेकर सरकार की कोई स्पष्ट नीति नहीं है जिसके कारण राज्य का बुद्धिजीवी वर्ग व मतदाताओं की एक बड़ी तादाद में अपना असर रखने वाला पढ़े-लिखे नवजवानों का एक बड़ा तबका सरकार के खिलाफ होता जा रहा है। यह हालात किसी भी सूरत में राज्य की बेहतरी के लिए ठीक नहीं कहे जा सकते और सरकार जनता के बीच खड़े हो रहे आंदोलनों से निपटने के लिए जिस तरह के बल प्रयोग का सहारा ले रही है उसे किसी भी कीमत पर न्यायोचित नहीं कहा जा सकता लेकिन पूर्ण बहुमत के मद में मदमस्त सरकार व सत्ता पक्ष के जनप्रतिनिधि इन तमाम विषयों से अनभिज्ञ नजर आ रहे हैं या फिर जानबूझकर जनापेक्षाओं की अनदेखी का प्रयास किया जा रहा है। यह दोनों ही परिस्थितियां राज्य की बेहतरी के लिए ठीक नहीं हैं और साधारण से साधारण सोच वाला कोई भी सामान्य व्यक्ति इन तमाम विषयों पर चल रहे जनान्दोलनों व इन तमाम मुद्दों को लेकर सड़कों पर उतरे युवाओं या जनसंगठनों को गलत नहीं ठहरा सकता।

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