
राजनैतिक दलों व उनके आकाओं ने तय की अपनी प्राथमिकताऐं
अगर राजनीति के नजरिये से देखे तो जाता हुआ वर्ष 2016 राजनैतिक उलटफेर या आन्दोलनों की वजह से नहीं बल्कि सरकारों द्वारा लिये गये राजनैतिक फैसलों व उनके विरोध या समर्थन में एकत्र किये जाने वाले प्रायोजित जनमत के लिऐ याद किया जायेगा। साल के शुरूवाती दौर में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार अपनी घोषणाओं के अनुरूप पूर्ण शराबबंदी करने के कारण चर्चाओं में रहे तथा कई प्रदेशों में बिहार की तर्ज पर शराबबंदी करने की आवाज भी जनता के बीच से सुनाई दी लेकिन राजनीति में स्थापित नेताओं व अन्य तमाम राजनैतिक दलों का नितीश के इस फैसले को समर्थन नही मिला और कुछ स्थानों पर ढंके-छुपे तरीके से तो अन्य जगह खुले रूप से नेता नितीश के इस फैसले के विरोध में देखे गये। इस सबके बावजूद नितीश अपने फैसले पर अड़े रहे और न्यायालय ने भी नितीश के इस फैसले को संबल देने का काम किया। नतीजतन आज बिहार पूर्ण शराबबंदी वाला प्रदेश है और वहां की गरीब जनता सरकार के इस फैसले के बाद खुद को राहत में महसूस कर रही है। इसके ठीक विपरीत वर्ष 2016 के लगभग अंतिम सत्र में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक झटके के साथ सारे देश में एक हजार व पांच के नोटों पर पाबंदी लगा दी ओर सरकार द्वारा स्पष्ट तौर पर यह कहा गया कि इस फैसले के बाद देश का काला धन बाहर आयेगा। मजेे की बात यह है कि मोदी के इस फैसले का देश की तमाम जनता के अलावा समुचे विपक्ष ने भी शुरूवाती दौर में स्वागत् किया और यह माना गया कि सरकार ने इतना बड़ा फैसला लेने से पहले अपनी तमाम प्राथमिक तैयारी पूरी कर ली होगी लेकिन नोटबंदी के फैसले पर सरकारी व्यवस्थाऐं शुरूवाती दौर में ही चरमराती दिखी और जन सामान्य के अपार सहयोग के बावजूद बैंक की तमाम शाखाओं, आरबीआई व सरकार का रवैय्या ऐसा रहा कि मानो सारी जनता ही चोर हो। हालात अगर यहीं तक सीमित रहते तो भी गनीमत थी लेकिन नोटबंदी के तत्काल बाद विदेश की धरती से लाईन में लगी जनता को चोर व भ्रष्ट बताने वाले प्रधानमंत्री ने जब इस मुद्दे को लेकर संसद में अपना वक्तव्य देने से ही इनकार कर दिया तो लगा कि दान में जरूर काला है और था भी शायद ऐसा ही क्योंकि आरबीआई द्वारा छापे गये एक हजार व पांच सौ के कुल नोटों के एक बडे़ हिस्से के बैंको में वापस आ जाने के कारण जनसामान्य के बीच नकदी के रूप में काला धन छुपा होने की आंशका निर्मूल साबित हो चुकी थी जिस कारण सरकार को जवाब देना मुश्किल था। आनन-फानन में सरकार द्वारा कैशलेश का नारा दिया गया ओर संघ के उत्साही कार्यकर्ताओं व मीडिया मेनजमेंट में लगी बड़ी कम्पनियों के माध्यम से आम आदमी को यह समझाया जाने लगा की कर चोरी से बचने व नोटों की तंगी से जूझने के लिऐ कैशलेस व्यवस्था व प्लास्टिक मनी को अपनाया जाना जरूरी है लेकिन पूरा सरकारी तंत्र अपना सारा जोर लगाने के बावजूद भी आम आदमी को यह समझाने में नाकाम रहा है इस कैशलेस व्यवस्था के चलते लाखों करोड़ का मुनाफा कमाने वाली चन्द कम्पनियाँ खुद को बिना मेेहनत मिले इस धन के बदले आम आदमी या सरकार को क्या राहत देंगी। नोटबंदी के इस फैसले का असर आगामी वर्ष में देश की राजनीति उतना ही स्पष्ट दिखाई देगा जितना कि बीते वर्ष पर नीतिश सरकार द्वारा लिये गये शराबबंदी के फैसले का असर दिखाई दिया लेकिन फर्क सिर्फ इतना होगा कि नितीश का फैसला जहाँ बिहार की गरीब-गुरबा जनता को राहत देनेे वाला था वहीं मोदी का फैसला देश के चन्द्र पूँजीपतियों को लाभ पहुँचानें वाला साबित होगा। हांलाकि मोदी के रंग में रंगे कुछ नौजवान और जाति-धर्म के आंकड़ों को सामने रखकर चुनावी समीकरण बनाने वाले नेता यह मानकर चल रहे है कि वर्ष 2016 में मोदी सरकार द्वारा लिया गया नोटबंदी का फैसला ऐतिहासिक माना जायेगा तथा वर्ष 2017 के शुरूवाती दौर में होने वाले पाँच राज्यों के चुनाव में जनता भाजपा के पक्ष में मतदान कर सरकार के इस फैसले पर मोहर लगायेगी लेकिन हालात कुछ और ही कहानी कह रहे है और ऐसा मालुम दे रहा है कि नोटबंदी का असर अभी महिने दो महिने नहीं बल्कि दो-एक साल तक लगातार दिखाई देगा तथा सरकार द्वारा बिना किसी तैयारी के लिऐ गये इस फैसले द्वारा से महंगाई एवं बेरोजगारी दोनों ही बढ़ेगी। वैसे मोदी सरकार के इन दो ढ़ाई वर्षों के कार्यकाल पर एक नजर मारी जाय तो सिर्फ जुमलों की भाषा में बात करने वाले भाजपा के नेताओं की यह सरकार अपनी ही घोषणाओं व वायदों को पूरा करने में असफल दिखती है तथा इस सरकार द्वारा लायी गयी नीतियाँ व सदन में पारित किये गये विधेयकों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि केन्द्र की वर्तमान भाजपा सरकार आज वही तमाम कार्य कर रही है जिनका कि उसने विपक्ष में रहते हुऐ विरोध किया था। अब इसे विपक्ष की कमजोरी कहें या फिर मोदी का रणनैतिक कौशल लेकिन यह सच है कि विभिन्न मोर्चों पर मोदी को मिली असफलता व लगातार बढ़ रही महंगाई के बावजूद मोदी अपना आभामण्डल बचाये रखने में कामयाब दिखाई देते है। खैर हाल-फिलहाल हम मोदी पर चर्चा न कर इस साल के अन्य चर्चित मुद्दों पर गौर फरमाते है और अपनी इस कोशिश में हमें दिल्ली के जेएनयू छात्रों का विवाद व सर्जिकल स्ट्राइक का मुद्दा कुछ अलग हटकर नजर आता है। हांलाकि जयललिता की आकस्मिक मृत्यु व उत्तराखंड में साल के शुरूवाती दौर मे सत्ता पक्ष की बगावत का फायदा उठाते हुऐ केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाये जाने की कोशिश भी चर्चा योग्य बिन्दु नजर आते है और राजनैतिक दलों के बीच उमड़ता दिखाई दिया अंबेडकर प्रेम भी इस वर्ष के प्रमुख मुद्दों में एक माना जा सकता है लेकिन ‘हर-हर मोदी के स्थान पर लगे ‘अरहर मोदी के नारे और रिलाइंस जिओ द्वारा देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर लगाकर शुरू की गयी निशुल्क नैट व टेलीफोन सेवाओं के आगामी मार्च तक विस्तारित किये जाने ने आम आदमी की जरूरतों को लेकर सवाल भी खड़े करने शुरू कर दिये है तथा बतौर एक लेखक में स्वंय अपनी प्राथमिकताएं तय करने में असुविधा सी महसूस कर रहा हूँ।