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Thursday, May 02, 2024

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गांवों को लीलते शहर

आम आदमी के हित में नहीं कहा जा सकता स्थानीय निकायों का सीमा विस्तार।
भारत एक ग्रामीण अर्थव्यवस्था वाला देश है और सरकार द्वारा किए जाने वाले तमाम विकास संबंधी दावों के बावजूद इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि संकटकालीन परिस्थितियों में देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने ही संकटमोचक की भूमिका निभाते हुए स्थितियों को संभाला है लेकिन वर्तमान हालातों को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो राष्ट्र एवं राज्य की राज सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा ने भारत के ग्रामीण जनजीवन व इस पर आधारित अर्थव्यवस्था को खत्म करने का पूरा मन बना लिया है। हालांकि यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि देश में तेजी के साथ बढ़ी आबादी को देखते हुए शहरों व कस्बों का फैलना लाजमी है और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सीमित खेती योग्य भूमि को देखते हुए इसके आधार पर अधिकतम लोगों को रोजगार दिया जाना संभव भी नहीं है लेकिन यह देखने में आ रहा है कि भारतवर्ष में लगभग सभी जगह न सिर्फ खेती योग्य जमीन तेजी से सिकुड़ रही है बल्कि सरकारी लापरवाही व कानूनी खामियों के चलते बंजर होती कृषि योग्य जमीन पर कंकरीट के जंगल लहलहाने लगे हैं और सरकारी तंत्र इसे विकास का नाम देकर ग्रामीण जनजीवन को नष्ट करने की एक साजिश रच रहा है। यह ठीक है कि पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ी आबादी के चलते ग्रामीण नौजवानों ने रोजगार की तलाश में तेजी के साथ शहरों व कस्बों की ओर रूख किया है जिसके चलते कुछ नए क्षेत्रों को आवश्यक जनसुविधाएं देने की मांग भी तेजी से उठी है लेकिन यह समाज का एक पहलू है और इस पहलू को ध्यान में रखते हुए व्यवस्थाएं जुटाने के लिए तत्पर दिख रहे सरकारी तंत्र ने अन्य पहलुओं की ओर ध्यान देने की जरूरत ही महसूस नहीं की है। नतीजतन घाटे का सौदा नजर आ रही खेती तेजी से दम तोड़ती दिख रही है और किसान अपनी ऋण वापसी व अन्य छोटे-बड़े मुद्दों को लेकर या तो आंदोलन कर रहे हैं या फिर उनके बीच आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। हालांकि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ग्राम समाज को सबसे छोटी इकाई माना गया है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती को ध्यान में रखते हुए इसमें ग्रामसभा व पंचायतों को असीमित अधिकार भी दिए गए हैं लेकिन इन तमाम प्रावधानों पर हावी नजर आती अफसरशाही ने कानून की मंशा ही बदलकर रख दी है और ऐसा प्रतीत होने लगा है कि गांव अर्थव्यवस्था पर एक बोझ बनते जा रहे हैं। कर संग्रह को ही अपना एकमात्र दायित्व समझ बैठी कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारी से विमुख होती जा रही है और ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था व कुटीर उद्योग के जरिये ग्रामीण क्षेत्रों को रोजगार से जोड़ने में सरकार पूरी तरह असफल दिखाई दे रही है। नतीजतन शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में अकुशल अथवा अर्द्धकुशल मजदूरों की भीड़ है जबकि खेती जैसे उत्पादक कार्यों के लिए मानव श्रम का न मिलना एक समस्या बनता जा रहा है। शहरी व कस्बाई क्षेत्रों में लगातार बढ़ते दिख रहे जनसंख्या के इस दबाव को देखते हुए सरकारी तंत्र की मजबूरी है कि वह नए शहर बसाने अथवा पूर्व में स्थापित नगर निगमों, नगर पालिकाओं व नगर पंचायतों के सीमा विस्तार को लेकर आगे बढ़ें। स्थानीय जनता के एक बड़े हिस्से को भी इस सरकारी कवायद से कोई ऐतराज नहीं है और न ही विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर लिए जाने वाले इस तरह के फैसलों का बड़ा व संगठित विरोध सामने आ रहा है लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार पूर्व से स्थापित तमाम स्थानीय निकायों के दायरे में आने वाली जनता को उसके अधिकार व वह सुविधाएं देने में सक्षम है जिन्हें न्यूनतम् दैनिक जीवन के लिए आवश्यक समझा जाता है। भारत के तमाम महानगरों समेत लगभग सभी नगरीय क्षेत्रों व कस्बाई इलाकों में फैली अव्यवस्था को देखकर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि केन्द्र अथवा तमाम राज्यों की सरकारें स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार को लेकर किए जाने वाले अपने तमाम दावों पर सत्यता की कसौटी के साथ खरी उतर सकती है या फिर देश के विभिन्न राज्यों में स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार को लेकर चल रही कवायद के बाद एक नये भारत का स्वरूप सामने आ सकता है लेकिन इस सबके बावजूद बड़े-बड़े दावों व वादों के साथ नये शहरों को बसाये जाने तथा आधुनिक भारत के नाम पर ग्रामीण भारत के स्वरूप को लीलने का काम तेजी के साथ चलता दिख रहा है और यह कहने में कोई हर्ज प्रतीत नहीं होता कि भारतीय राजनीति में तेजी के साथ उदित होती दिख रही नव सामन्तवादी ताकतों के लिए भारत के गांव व यहां की ग्रामीण व्यवस्था एक बेकार की विषय वस्तु बनकर रह गयी है। शायद यही वजह है कि अब देश की सरकारें हरित क्रांति या श्वेत क्रांति जैसे सामान्य एवं ग्रामीण जनजीवन से जुड़े विषयों को छोड़कर ‘कान्टेक्ट फार्मिंग’ और हाईब्रिड बीज पर जोर दे रही है जिसके चलते ग्रामीण जनजीवन व परम्पराओं को बचाकर रखने वाले तमाम विषय खतरे की जद से गुजर रहे हैं। यह माना कि देश की लगातार बढ़ती जा रही आबादी हिसाब से हर सर को छत मुहैय्या कराने के लिए शहरों व कस्बाई क्षेत्रों का विस्तारीकरण आवश्यक है और तेजी से आधुनिक हो रहे भारत को व्यवसायिक स्वरूप देने व रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिए कारखाने लगाने के लिए भी जरूरत के हिसाब से जमीन उपलब्ध कराया जाना आवश्यक है लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सब ग्रामीण जनजीवन को ही दांव पर लगाकर हासिल किया जा सकता है और वह कौन से कारण हैं जिनके चलते ग्रामीण क्षेत्रों को नगर निगम या नगर पालिकाओं में शामिल करने के बाद या फिर ग्रामसभाओं को नगर पंचायत का स्वरूप प्रदान किए जाने के बाद ही इन क्षेत्रों का विकास किया जाना संभव है। कोई भी सरकार यह कहने की स्थिति में नहीं है कि उसके सीमा क्षेत्र में पड़ने वाले तमाम स्थानीय निकायों में पेयजल, सीवर लाइन, सड़क यातायात, स्कूल अथवा विद्युत व्यवस्था जैसी तमाम मूलभूत आवश्यकताएं या फिर बरसाती जल के निकास, नालियों की साफ-सफाई व्यवस्था और कूड़ा निस्तारण जैसी न्यूनतम जिम्मेदारियां ठीक तरह से निभाई जा रही हैं लेकिन इस सबके बावजूद राज्यों में स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार को लेकर एक जिद देखी जा सकती है और विभिन्न राज्यों की सरकारें जरूरी न होने के बावजूद विकास के नाम पर इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देने के लिए प्रयासरत् दिखती हैं। यह ठीक है कि साफ-सफाई समेत अन्य तमाम तरह की जरूरतों को पूरा करने व व्यापक जनहित से जुड़ी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए स्थानीय निकायों का भी एक अलग अपना ही तंत्र होता है तथा लोकतंत्र की एक स्वतंत्र इकाई के रूप में जनता के बीच से चुने जाने वाले इन निकायों के तमाम प्रतिनिधि भी सीधे तौर पर जनता के प्रति ही जवाबदेह होते हैं लेकिन स्थायी निकायों व लोकतंत्र का आधारभूत स्तंभ मानी जाने वाली ग्रामसभाओं में एक बड़ा फर्क यह होता है कि ग्रामीण जनजीवन के अधिकांश कार्य सहभागिता व सामाजिक जिम्मेदारी के आधार पर निपटाये जाते हैं और प्रत्येक ग्रामीण बड़ी ही सहजता के साथ इन व्यवस्थाओं से खुद को जोड़कर चलता है जबकि इसके ठीक विपरीत स्थानीय निकायों के तहत होने वाले कार्यों में सहभागिता व सामाजिकता का आभाव होता है और पूरी तरह बाबूगिरी के भरोसे चलने वाली यह व्यवस्था जनता से वसूले गए करों के जरिये ही आगे बढ़ती है। वर्तमान में केन्द्रीय सत्ता पर काबिज देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब सहभागिता व सामाजिक जिम्मेदारी का नारा देते हुए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का नारा दिया था तो एक बार जाने-अनजाने में यह जरूर महसूस हुआ था कि भारत की राजनैतिक सत्ता पर काबिज होने के लिए अपनी राजनैतिक ताकत को तोल रही भाजपा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करते हुए नव भारत निर्माण का मन बना रही है लेकिन इधर देखने में आ रहा है कि भाजपाई झंडे के साथ तमाम राज्यों में अपनी सरकार बनाने के बाद यह पक्ष भी नये शहरों के निर्माण व स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार पर ही जोर दे रहा है। सत्ता के शीर्ष पद को संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की थी कि सत्तापक्ष का हर सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में एक गांव को गोद लेकर उसे आदर्श गांव के रूप में स्थापित करेगा और इस तरह समस्त राष्ट्र के ग्रामीण जनजीवन को विकास व उत्पादकता से जोड़ने की पहल की जाएगी लेकिन इधर सरकार व सांसदों का चार वर्षों का कार्यकाल पूरा हो चुका है जबकि अभी तक आदर्श गांवों की कोई खबर ही नहीं है। इससे तो यह ही स्पष्ट होता है कि सरकार की करनी व कथनी में पहले दिन से ही फर्क है और इस फर्क पर जनमत को फुसलाने के लिए सरकारी तंत्र एक बार फिर तैयार दिख रहा है।

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