उत्तराखंड के सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार को लेकर उत्साहित नजर आती हैं महिलाएं
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर ग्रामीण एवं पर्वतीय उत्थान समिति (रजि.) द्वारा आयोजित महिला पखवाड़े में भागीदारी के दौरान उत्तराखंड के सुदूरवर्ती क्षेत्रों व ग्रामीण इलाकों में जाने का मौका मिला तो पाया कि पलायन एवं रोजगार के आभाव जैसी समस्याओं से रोजाना ही दो-चार होने के बावजूद हमारा पहाड़ तेजी से बदल रहा है व इस पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाली आबादी की मानसिकता में तेजी से बदलाव आता दिख रहा है। हालांकि पलायन की मार से पहाड़ का कोई हिस्सा भी अछूता नहीं है और स्थानीय आबादी ने अपने-अपने संसाधन व निजी पूंजी के हिसाब से सड़कों के किनारे तेजी से पनप रहे नये कस्बों और बाजारों के नजदीक रहना शुरू कर दिया है लेकिन खेती व काश्तकारी के प्रति उनका मोह स्पष्ट झलकता है और ग्रामीण क्षेत्र की जनता हेतु आर्थिक संसाधन जुटाने के संदर्भ में चलायी जाने वाली हर सम्भावित योजना को लेकर ग्रामीण व इन तथाकथित नये शहरों में बसी आबादी उत्सुक दिखाई देती है। यह माना कि दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों से हटकर सड़कों के किनारे पनपी नयी कस्बाई संस्कृति ने पहाड़ों पर कंकरीट के जंगल का दबाव बढ़ाया है और इन आबादी के दबाव वाले नये क्षेत्रों में पेयजल की समस्या समेत अन्य तमाम तरह की छोटी-बड़ी कठिनाईयों से दो-चार होता आम आदमी पहाड़ों की बर्बादी के लिए कम जिम्मेदार नहीं है लेकिन सरकारी स्कूलों की दुर्दशा व अध्यापकों की कमी के चलते निजी स्कूलों की बढ़ती प्राथमिकता तथा सड़कों के किनारे एकजुट हो रही आबादी के हिसाब से छोटी-मोटी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं निजी तौर पर उपलब्ध कराने के लिए सेना व अन्य सरकारी रोजगार से अवकाश प्राप्त कार्मिकों द्वारा दी जा रही छुटमुट सेवाएं जनसामान्य को मजबूर कर रही हैं कि वह अपने गांव व खेती-बाड़ी को वीरान छोड़कर अपने बच्चों का भविष्य बचाने तथा अपनी जिंदगी की चंद सांसों के साथ सुविधाओं का जखीरा जोड़ने के लिए संघर्ष करे। यह सब कुछ भी इतना आसान नहीं है क्योंकि, बंदरों, जंगली सूअरों व अन्य जंगली जानवरों द्वारा पहुंचाये जाने वाले नुकसान व भय के चलते लगभग बंदी के कगार पर पहुंच चुकी खेती के छूट जाने के बाद रोजी-रोटी का संकट बढ़ा है और मेहनत-मजदूरी के दम पर जुटाई जाने वाली दो वक्त की रोटी पर शराब माफिया की टकटकी लगी हुई है लेकिन इस सबके बावजूद जिंदगी ने हार नहीं मानी है और अपने रीति-रिवाज, सामाजिक परिवेश व संस्कृति को बचाये रखते हुए समग्र पहाड़ पूरी एकजुटता के साथ संघर्ष कर रहा है। पहाड़ की मेहनतकश महिलाएं पर्वतों की छाती फोड़कर अन्न व अन्य स्थानीय कृषि उत्पाद उगाना चाहती हैं और उन्हें यह जानकारी भी है कि पिछली सरकार द्वारा स्थानीय कृषि उपजों को दिए गये विशेष महत्व के बाद देश के तमाम हिस्सों में इस उत्पादन की मांग बढ़ने की संभावना भी है लेकिन बीज के संदर्भ में सरकार पर बढ़ती जा रही निर्भरता और बेलगाम हो चुके जंगली जानवरों का भय उन्हें हताश व निराश करता है। हताशा और निराशा के इस माहौल में वह रोजगार के नये संसाधनों की मांग उठाती है तथा सिलाई-बुनाई, बड़ियां बनाने या फिर जेम-मुरब्बा-जेली का व्यवसायिक लिहाज से उत्पादन करने के अलावा स्थानीय स्तर पर रोजगार को बढ़ावा देने के लिए बड़े कल-कारखाने लगाये जाने तक के सुझाव व संकल्प सामने आते हैं लेकिन किसी एक निष्कर्ष तक पहुंच पाना आसान नहीं है क्योंकि वन्य जीवों की सुरक्षा के नाम पर कठोर होते जा रहे वन कानूनों ने आम आदमी के जीने के अधिकार को प्रभावित किया है। हालांकि पहाड़ में कई तरह के सामाजिक व गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं तथा इनमें से अधिकांश ने किसी न किसी रूप में इन समस्याओं को उठाने का प्रयास किया है लेकिन इस सबके बावजूद समस्याएं जस की तस हैं क्योंकि सरकारी तंत्र जनपक्ष की समस्याओं को लेकर संवेदनशील नहीं है और न ही कोई राजनैतिक दल या फिर नेता इन तमाम समस्याओं को चुनावी मुद्दा बनाने में सफल रहा है। हालातों के मद्देनजर यह कहना आसान है कि आंशिक अथवा पूर्णकालिक रोजगार के संसाधन तलाशती पहाड़ की स्थानीय आबादी के एक बड़े हिस्से को राजनैतिक रूप से इस्तेमाल करना या फिर किसी भी छोटे-बड़े आंदोलन में भागीदारी के लिए तैयार करना कठिन नहीं है और पहाड़ में ऐसे अनेक ज्वलंत मुद्दे हैं जिन्हें केन्द्र में रखकर स्थानीय आबादी को लामबंद किया जा सकता है लेकिन इस सबके बावजूद सुदूरवर्ती पहाड़ों के एक बड़े हिस्से में राज्य की स्थायी राजधानी को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं है और न ही शराब बिक्री व इसके सेवन के चलते होने वाली दुश्वारियों के विरोध में कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होता दिख रहा है। स्थानीय स्तर पर जनता का एक हिस्सा प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के डूब क्षेत्र में आने व मिलने वाले मुआवजे को लेकर उत्साहित जरूर है और यह भी माना जा रहा है कि अगर सरकारी स्तर पर चल रही सुगबुगाहटों के क्रम में उ.प्र. के सहारनपुर व बिजनौर से जुड़े कुछ इलाकों को उत्तराखंड में शामिल किया जाता है तो इससे पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की अवधारणा के ध्वस्त होने के साथ ही साथ स्थानीय संस्कृति, परम्पराएं व मान्यताएं भी प्रभावित होगीं लेकिन इन तमाम मुद्दों पर विरोध के सुर बुलंद करने के मामले में जनता उदासीन दिख रही है या फिर यह भी हो सकता है कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन के बाद खुद को ठगा महसूस कर रही स्थानीय आबादी किसी भी नेता अथवा सामाजिक संगठन पर विश्वास करने को तैयार नहीं है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि सरसरी निगाह से पहाड़ को निहारने पर ऐसा जरूर प्रतीत होता है कि पलायन की जद में आये हमारे गांव तथाकथित विकास के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आयी सड़कों की भेंट चढ़ गए हैं और मंचीय प्रदर्शन की विषय वस्तु बनती जा रही हमारी संस्कृति व परम्पराओं के इस दौर में हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं लेकिन अगर बारीकी के साथ गहन अध्ययन वाले अंदाज में पहाड़ की घुमावदार सड़कों के किनारे बसासत बना नये कस्बों व शहरों को जन्म दे रहे सामान्य पहाड़ी समुदाय की दैनिक दिनचर्या पर गौर करें तो हम पाते हैं कि चंद नौकरीपेशा चेहरों व स्थानीय दुकानदारों को छोड़कर आम आदमी की दिनचर्या में अभी भी कोई बदलाव नहीं आया है। अपने गोठ में बंधे पशुओं तथा स्थानीय देवी-देवताओं को लेकर जनसामान्य की भावनाओं में कोई बदलाव आया नहीं दिखता और न ही सामान्य परिस्थितियों में जीने की चाहत के साथ रोजाना के हिसाब से सामने आने वाली दुश्वारियों में कोई कमी ही दिखती है। जानवरों के लिए घास एकत्र करने से लेकर पेयजल की समस्याओं से निपटने के लिए कोसों मील की दौड़ आज भी स्थानीय आबादी की मजबूरी है और चैपट हो चुकी खेती के कारण बाजार पर आधारित व्यवस्था में हिस्सेदारी के लिए नये काम धंधों की तलाश उसकी जरूरत। शायद यही वजह रही कि समिति के एक आवाह्न पर सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर सड़कों के किनारे बसे तमाम गांवों की समस्त महिलाएं अपनी अभिरूचि की अभिव्यक्ति के लिए दौड़ी चली आयीं और स्थानीय स्तर पर रोजगार के नये संसाधनों की तलाश में निकले युवाओं के प्रतिनिधिमंडल के तमाम सवालातों का इन महिलाओं द्वारा पूरी बेबाकी के साथ सामना किया गया। लिहाजा इस निष्कर्ष तक पहुंचने में कोई मुश्किल नजर नहीं आयी कि स्थानीय स्तर पर स्वतः रोजगार की दिशा में काम करने के लिए अपार संभावनाएं होने के साथ ही साथ अपार उत्साह भी है और अपने हकों को लेकर जागरूक नजर आने वाला जनसामान्य का एक बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं व इन योजनाओं के तहत चुने जाने वाले लाभार्थियों की कम संख्या को लेकर संतुष्ट नहीं है लेकिन जनसामान्य के पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं है और स्थानीय उत्पादों के उपभोक्ता बनकर पहाड़ की आर्थिकी को एक मजबूत संबल प्रदान कर पाने में सक्षम इन क्षेत्रों से पलायन कर चुके तमाम मूल निवासी चाहकर भी अपने लोगों की मदद की दिशा में हाथ आगे नहीं बढ़ा पा रहे क्योंकि स्थानीय कृषि उत्पादों व उपभोक्ताओं के बीच महानगरों से पहाड़ पर छोड़े जा रहे वानरों व अन्य जंगली जानवरों के अलावा सिंचाई योग्य पानी की कमी, गुणवत्तापूर्ण बीज की उपलब्धता का न होना और सरकारी तंत्र व जनपक्ष के बीच बेहतर संवाद की स्थितियों का न होना, जैसी तमाम दीवारें खड़ी हैं। इन दीवारों को गिराये बगैर पहाड़ के दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों तक विकास की झलक पहुंचाना या फिर यहां की स्थानीय जनता को विकास की मुख्यधारा से जोड़ना कठिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन है और हम यह दावे से कह सकते हैं कि कोई भी जनप्रतिनिधि या राजनैतिक तंत्र इन दीवारों को गिराना नहीं चाहता क्योंकि इन दीवारों के गिरते ही स्थानीय स्तर पर महिलाओं के सक्षम व सबल होने की पूरी संभावना है और महिलाओं के एक सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक ताकत के रूप में एकजुट होते ही इस प्रदेश के नेताओं को आश्रय दे रहे शराब व खनन जैसे तमाम कारोबारों पर गाज गिरना तय है।