निर्भया को मिले त्वरित न्याय के बावजूद सुरक्षित नही कहीं जा सकती महिलाऐं।
दिल्ली के ‘निर्भया केस‘ के मामले में उच्च न्यायालय द्वारा दोषियों की सजा बरकरार रखने के फैसले पर देश के तमाम राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों व इस पूरे घटनाक्रम के अहम् किरदारों ने संतोष जाहिर किया है और न्यायालय द्वारा त्वरित गति से फैसला निपटाते हुऐं अपराधियों को कठोरतम् सजा देने के लिऐ देश की न्याय प्रक्रिया की जमकर प्रशंसा की जा रही है लेकिन संतोष, तारीफ या फिर सुकून के इन पलों के बीच एक प्रश्न अपनी जगह कायम है कि क्या अपराधियों को दी गयी कड़ी सजा सामाजिक रूप से एक बड़ा बदलाव लाकर महिलाओ के खिलाफ होने वाले अपराधों व बदसलूकी की घटनाओं पर रोकथाम लगाने मे सहायक सिद्ध होगी? बहुत पुरानी बात नही है जब निर्भया के साथ हुई इस दर्दनाक दुर्घटना से सारे देश को हिला कर रख दिया था और इस एक अपराध के खिलाफ देश के लगभग हर हिस्से में आंदोलन हुये थे, तब कहीं जाकर सरकारी मशीनरी इस सम्पूर्ण घटनाक्रम पर त्वरित कार्यवाही करते हुये आरोंपियों की शीघ्र गिरफ्तारी व उनपर त्वरित अदालतों में मुकदमें चलाने को राजी हुई थी लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार ने इन बीते साढ़े चार-पांच सालों में ऐसा कोई भी कदम उठाया जिससे कि यह तय हो सके कि इस तरह के हर मामले में पुलिस-प्रशासन द्वारा त्वरित आधार पर कार्यवाही की जायेगी या फिर न्यायालय की ओर से ऐसे कोई दिशा-निर्देश जारी किये गये जिनके आधार पर यह तय हो सके कि महिलाओं के साथ हुये जघन्यतम् अपराधों के मामले में न्यायालय की धीमी कार्यशैली में कुछ सुधार होगा? ऐसा कुछ भी नही है। कानूनों मंे किये गये कुछ छोटे-मोटे सुधारों के अलावा सरकार की इस दिशा में कोई भी ऐसी उपलब्धि नही है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि सरकार वाकई में इस दिशा में चिन्तनशील है और न ही इन पिछले चार-पांच सालों में इस तरह के मामलों में कोई कमी आती प्रतीत हो रही हैं। महिला उत्पीड़न, बलात्कार या फिर अन्य जघन्यतम् अपराधों के मामले में अक्सर यह देखा गया है कि जन सुरक्षा के लिऐ जिम्मेदार पुलिस का रवैय्या पीड़ित परिवारों के प्रति नाकारात्मक व असहयोगी ही होता है और अगर इन मामलों में आरोंपी कोई प्रभावी पक्ष है तो कानून का पूरे घटनाक्रम को देखने को ऩजरिया भी बदला-बदला नजर आता है। पूरे देश के भीतर इन पिछले चार-पांच वर्षों में घटित इस तरह के मामलों पर एक सरसरी नजर डाले तो यह स्पष्ट दिखता है कि जिन घटनाक्रमों के बाद स्थानीय जनता द्वारा आक्रोशित होकर बंद, घेराव या फिर प्रदर्शन जैसे कदम उठाये गये उन्हें छोड़कर अन्य तमाम मामलों मे पुलिसिया तफ्सीस व उसका काम करने का तरीका बदला- बदला नजर आता है और इस तरह के मामलों में प्रभावशाली लोगों का नाम जुड़ने की स्थिति में तो पूरे ही मामलेे को बदली हुई नजरों से देखने को प्रयास किया जाता है। हालातों के मद्देनजर हम यह कह सकते है कि निर्भया मामले मे पीड़िता द्वारा दिये गये इस बलिदान के बाद इस घटनाक्रम से जुड़े आरोंपियेां केा सजा मिलने से पीड़ित परिवार को न्याय मिलने की उम्मीद भले ही जग हो लेकिन हकीकत में इस पूरे संदर्भ में पीड़िता का बलिदान तथा घटनाक्रम के उपरांत राष्ट्रीय स्तर पर हुआ व्यपाक जनान्दोलन व्यर्थ ही जाता दिख रहा है? समझ में नही आता कि सरकारी मशीनरी व स्थानीय प्रशासन यह क्यों चाहता है कि इस तरह के हर छोटे-बड़े घटनाक्रम के बाद आक्रोशित जनता अपनी सुरक्षा से जुड़े सवालों के साथ सड़कों पर उतरे, तभी उसे न्याय दिया जाय। यह ठीक है कि आधुनिक परिवेश में महिलाओं में आयी जागरूकता तथा मीडिया की सक्रियता के चलते महिला उत्पीड़न, बलात्कार या फिर अन्य आपराधिक मामलों के खुलकर सामने आने की तादाद में भारी इजाफा हुआ है और कुछ मामलों मे यह भी देखा गया है कि महिलाऐं खुद को मिले कानूनी अधिकारों का नाजायज फायदा उठाते हुऐं तथाकथित सभ्रान्त व्यक्तियों को ब्लेकमेंल करने या फिर झूठे मामलों में फंसाने को प्रयास भी करती है लेकिन सवाल यह है कि सबूतों और गवाहों की बिना पर काम करने वाले कानूनी तामझाम के बीच पुलिस को यह अधिकार किसने दिया है कि वह किसी आरोपी के निर्दोष होने या फिर व्यर्थ ही फंसाये जाने के निष्कर्ष तक पहुंचने का दुस्सहास दिखा सके। ‘समरथ को नही दोष गुंसाई‘ वाले अंदाज में काम करने वाली हमारे देश की पुलिस प्रणाली में ऐसे लोगों की कोई कमी नही है जो अपने निजी फायदें या नुकसान के लिऐ मामले को तोड़ -मरोड़ कर प्रस्तुत करने या फिर सबूतों से छेड़छाड़ करने से नही हिचकिचाते ओर यहां पर हमें यह कहने में भी कोई हर्ज नही दिखता कि ऐसे तमाम मामलों में न्याय के सर्वाेच्च सिंहासन पर बैठा न्यायाधीश भी सबकुछ जानने व समझने के बावजूद अपने अधिकार क्षेत्र को सीमित पाता है। इन हालातों में समाज का यह दायित्व बनता है कि वह सिर्फ मोमबत्तियां जलाने या फिर न्यायालय द्वारा किसी घटनाक्रम पर दिये गये त्वरित फैसले पर हर्ष व संतोष व्यक्त करने तक ही सीमित न रहे बल्कि सरकारी तौर पर इस तरह के कृत्यां के आरोपियों को उनके अंजाम तक पहुंचाने के लिऐ जिम्मेदार अधिकारियों व लोकहित के संरक्षण का दावा करने वाले जनप्रतिनिधियों से यह सवाल जरूर पूछे कि निर्भर्या गैंगरेप व हत्याकांड से मिलते-जुलते जघन्यतम् अपराधों व महिला उत्पीड़न के अन्य तमाम मामलातों को लेकर सरकार की क्या स्थिति व सोच है? तेजी से बदल रही आम आदमी की मानसिकता व सोच के इस दौर में हर व्यक्ति व परिवार की अपनी प्राथमिकताऐं है तथा इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि बिना सामाजिक परिवर्तन के सिर्फ कानूनों व पुलिसिया डण्डे के बल पर समाज में बदलाव नही लाया जा सकता लेकिन इसका तात्पर्य यह भी तो नही है कि देश की जनता हर पीड़िता को त्वरित न्याय दिलवाने के लिऐं आन्दोलन का मोर्चा खोलने को मजबूर हो। निर्भया के अपराधियों को इस पिछले चार-पांच सालों में मिली सजाये मौत यह सिद्ध करती है कि अगर सरकार व कानून व्यवस्था के रखवाले चाहे तो हर पीड़ित को एक निश्चित समय सीमा के भीतर इंसाफ मिल सकता है लेकिन ऐसी त्वरित कार्यवाही हर छोटे- बड़े मामलें में क्यों नही होती, मौजूदा दौर में यह एक बड़ा सवाल है और इस सवाल का सही जवाब आने वाले कल में कई निर्भयाओं का जीवन व आबरू बचा सकता है।