नेताओ की तर्ज पर सन्त भी करने लगे है जनता का ध्यान आकृर्षित करने के लिऐ आक्रामक बयानबाज़ी।
भारत की संस्कृति में सन्तो को सर्वोच्च स्थान दिया गया है तथा सनातन काल से चली आ रही परम्पराओं के अनुरूप सन्त समाज को सत्ता के शीर्ष द्वारा भी हमेशा ही सम्मान से नवाजा़ जाता रहा है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षो में सन्तो की राजनैतिक लामबन्दी शुरू हो गयी है और राम मन्दिर व हिन्दुत्व के मुद्दे के ज़ोर पकड़ने के बाद तो सन्त समाज का एक हिस्सा किसी भी तरह की राजनैतिक बयानबाज़ी या राजनैतिक प्रक्रिया में दखलदांजी़ से बचने की कोशिश करता भी नही दिखाई देता। हाॅलाकि यह कहा जाना मुश्किल है कि सन्त समाज के बीच से कुछ बाबाओं या महन्तो का इस प्रकार की राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय होना और जनप्रतिनिधि के रूप में सत्ता के शीर्ष सदनो तक पहुॅचने की महत्वाकांक्षा रखना कितना सही अथवा गलत है लेकिन यह देखा व महसूस किया जा रहा है कि बाबा रामदेव को योग के मामले में मिले विभिन्न राजनैतिक दलो व नेताओ के सहयोग व उनकी आर्थिक उन्नति को देखते हुऐ सन्त समाज का एक बड़ा हिस्सा नेताओ के साथ कदमताल करने या फिर अपने मंचो से राजनैतिक बयानबाज़ी करने से परहेज़ नही कर रहा है। यह माना कि सन्त समाज का अपना एक आभा मण्डल है और उनके प्रति समर्पण की भावना से उनके पीछे चलने वाले उनके अनुयायियों व भक्तो का दर्जा राजनैतिक समर्थकों से कही ज्यादा बड़ा है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इधर पिछले कुछ अन्तराल में सन्त समाज पर लग रहे आरोंपो व इन आरोंपो के चलते विभिन्न नामचीन सन्तो की हो रही गिरफ्तारी को देखते हुऐ कुछ सन्तो ने अपने राजनैतिक आकाओं की तलाश तेज़ कर दी है और इसी तलाश का सिलसिला उन्हे अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताऐं साबित करने के लिऐ अपने पद की गरिमा से उपर उठकर राजनैतिक बयान जारी करने के लिऐ उत्प्रेरित कर रहा है। यह एक शोध का विषय हो सकता है कि सन्तात्माओं के प्रवचनो व अन्य कार्यक्रमों में भावाविभोंर होकर उन्हे सुनने व अध्यात्म का रस लेने के लिऐ उमड़ने वाली भीड़ को जनमत की ताकत में बदला जा सकता है या नही और अपने धार्मिक मंचो या आश्रमों में राजनेताओं को आमंत्रित कर उन्हे राजनैतिक सफलता का मूलमन्त्र देने के नाम पर अपने पूर्ण सहयोग अथवा समर्थन का आश्वासन देने वाले तमाम कथावाचक सन्तो को राजनेताओं के इस महिमामण्डल से क्या-क्या लाभ होते है लेकिन मौजूदा परिपेक्ष्य में यह समझा जाना जरूरी है कि काॅग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाॅधी को सीधे तौर से निशाने पर लेने वाले गायत्री परिवार के डाॅ प्रणव पाड्या के इस गैर ज़रूरी कदम के पीछे कौन से निहितार्थ छिपे हो सकते है और वह कौन सी वजहें हो सकती है जो अबतक राजनैतिक रूप से तटस्थ दिखने वाले शान्तिकुंज आश्रम को राजनीति की ऐसी दलदल में घसीट देती है कि अपने विरोध व पुतला दहन से डरे-सहमें पाड्या ने यह स्वीकार करना पड़ता है कि उनकी मंशा राहुल गाॅधी को बेईज्जत करने की नही थी तथा उनके बयान को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया। यह ठीक है कि डाॅ. प्रणव पाड्या ने अतिशीघ्र राहुल गाॅधी को भी शान्तिकुजं आश्रम बुलाने की बात कहकर सारे मामले को ठण्डा करने की कोशिश की है और ऐसा प्रतीत होता है कि अपने विरोध व काॅग्रेस कार्यकर्ताओं के आक्रोश से डरे पाड्या ने यह महसूस किया होगा कि इस तरह की राजनीति उन्हे राजनैतिक रूप से फायदा पहुॅचाने की जगह नुकसान पहुॅचा सकती है लेकिन सवाल यह है कि क्या भारतीय समाज में आदर्श माने जाने वाले एक सन्त का इस तरह का आचरण सही है और नेताओ की तरह अपने बयान को बदलकर या उससे मुकरकर पाड्या क्या साबित करना चाहते है, कहा नही जा सकता।हाॅलाकि इस वक्त सिर्फ पाड्या ही अकेले ऐसे सन्त नही है जो अपनी सन्तई छोड़कर धर्म बचाने के नाम पर मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में एकजुट करने के लिऐ प्रयासरत् है और न ही यह कोई पहला मामला है किसी धर्मगुरू ने किसी राजनैतिक दल या राजनेता के खिलाफ इस तरह की बेसर-पैर की टिप्पणी की हो लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के उत्ततराखण्ड दौरे के दौरान धर्मनगरी हरिद्वार में सन्त समाज के साथ हुई इस नेता की मुलाकात व मुलाकात के दौरान भाजपा के पक्ष में प्रचार करने के मिले आश्वासन की चर्चाओं के बीच ही डाॅ प्रणव पाड्या का बयान भी सुर्खियों में आ गया और डाॅ. प्रणव पाड्या का नाम थोड़ा अटापटा होने के बावजूद भी लोगो की जुबान पर चढ़ता चला गया। यह मानने के कई कारण भी है कि डाॅ पाड्या ने जो किया उसके पीछे उनके निजी निहितार्र्थ िछपे हो सकते है और बाबा रामदेव के उधोग की दुनियाॅ में कुॅलाचे मारने के बाद बलवती हुई कुछ सन्तो की इच्छाओ के चलते अभी आगे भी कई ऐसे प्रकरण देखने को मिल सकते है लेकिन मौके का फायदा उठाने के फेर में पड़े सन्तो ने यह कभी नही भूलना चाहिऐं कि जल्द से जल्द सफलता की सीढ़ीया चढ़ने के चक्कर में कभी-कभी बड़ा नुकसान भी उठाना पड़ सकता है और ऐसे एक नही बल्कि अंसख्य उदाहरण मौजूद है जब किसी सन्त अथवा कथावाचक ने किसी राजनेता अथवा राजनैतिक दल का सहारा लेकर जरूरत से ज्यादा तेज़ी के साथ आगे बढ़ने की कोशिश की है तो कहीं न कहीं उन्हे पटखनी ही लगी है। बाबा रामदेव भी इससे अछूते नही है और यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि अन्ना के आन्दोलन वाले दौर में कुछ राजनैतिक निहितार्थो को हासिल करने के फेर में रामदेव को रातोरात महिला का रूप धरकर एक आन्दोलन स्थल से भागना पड़ा था। शायद यही वजह है कि वर्तमान में सरकार की कृपादृष्टि के अह्म भागी होने के बावजूद बाबा रामदेव काॅग्रेस अथवा किसी अन्य राजनैतिक संगठन सेे सीधे बैर नही लेना चाहते और उनके राजनैतिक ऐजेण्डे को पूरा करने के लिऐ गठित किया गया भारत स्वाभिमान मंच नाम का राजनैतिक संगठन दूर-दूर तक अस्तित्व में ही नही दिखाई देता। गायत्री परिवार के मुखिया के रूप में डाॅ. पाड्या ने इन घटनाक्रमों से सबक लेना चाहिऐं और स्वीकार करना चाहिऐं कि उनसे चूक हुई या फिर उन्हे हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया। खैर वजह चाहे जो भी हो और पाड्या अपनी अभिव्यक्ति को लेकर चाहे जो भी सफाई दे लेकिन यह मानने के कई कारण है कि सन्त समाज ने अपने पद की गरिमा बनाऐ रखने के लिऐ इस तरह के तमाम राजनैतिक प्रपंचो से दूर रहना चाहिऐं या फिर योगी आदित्यनाथ की तर्ज पर सीधे तौर से राजनीति में भागीदारी करते हुऐ सक्रियता के साथ पदो की दौर में सहभागिता करनी चाहिऐं लेकिन हमने देखा है कि विरासत की गद्दी सम्भाल रहे सन्त अक्सर इस किस्म की दोगली राजनीति करते है और अपनी क्षमता व योग्यता के स्थान पर कुटिलता अथवा पारिवारिक दायित्व के रूप में गद्दी हासिल करने वाला सन्त समाज का यह हिस्सा जीवन भर इसी उधेड़बून में रह जाता है कि वह किस तरह दूसरे के कन्धे पर बन्दूक रखकर अपने सपने को साकार करे।