दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ प्रेषित
दीपमाला अर्थात रोशनी का पर्व दीपावली भी अब विवादों के पर्व के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है और इस त्योहार को मनाये जाने को लेकर समाज में प्रचलित कई कहानियों व किवदन्तियों में से एक के बाजारवाद से जुड़े होने के कारण इसे प्राणवायु देकर आम जनमानस के पर्व के रूप में स्थापित करने वाली विचारधारा ही इसे विलुप्ति की कगार की ओर ले जाती प्रतीत होती है। हालांकि भारतीय लोक परम्परा के दूसरे बड़े पर्व होली की तरह इसके प्रति युवाओं का रूझान नहीं घटा है और न ही समाज इस बात से चिन्तित है कि साफ-सफाई व स्वच्छता का नारा देने वाली भारतीय परम्पराओं में रंगों के स्थान पर कीचड़ या अन्य नुकसानदायक रसायनों का इस्तेमाल किये जाने और वायुमण्डल को प्रदूषित करने वाले पटाखे के कानफोड़ू धमाकों को शामिल करने की परम्परा कहाँ से आ गयी लेकिन इस सबके बावजूद हमारे तमाम परम्परागत् तीज-त्योंहार सिर्फ छुट्टी बनके रह गये है ओर तेजी के साथ एंकाकी होते जा रहे मानव जीवन ने खुद को अपने परिवार तक या फिर सिर्फ अपने फोन तक सीमित कर लिया है। आर्थिक सम्पन्नता की इस दौड़ में तेज हुई मानव जीवन की भागम-भाग के बीच मोबाइल फोने समेत अन्य कई तकनीकी सहूलियतें आम आदमी के जीवन में कुछ इस तरह तब्दील कर गयी है कि वह मशीनी मात्र बनकर रह गया है और जीवन को जीने का यह मशीनी अंदाज उसे वास्तविकता के धरातल से उड़ाकर कल्पनाशीलता की एक ऐसी दुनिया में ले जा रहा है जहाँ से वापसी मुश्किल नहीं भी तो कठिन जरूर है। यह माना कि लगातार बढ़ती बेरोजगारी तथा बाजार में आती दिख रही एक स्थायी शिथिलता भी दीपावली जैसे तमाम पर्वों के प्रति जनमानस के घटते रूझान का एक कारण हो सकती है और महंगाई की मार से दबा जा रहा आम आदमी खुद को सामाजिक उत्साह के किसी भी कार्यक्रम से जोड़ने से हिचक रहा है लेकिन अगर पुराने दिनों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि देश में जब सम्पन्नता कम थी तब अपनी संस्कृति व परम्पराओं को लेकर रूझान ज्यादा था। सीमित संसाधनों के बावजूद आदमी खुद को दूसरे के करीब महसूस करता था जबकि वर्तमान हालातों पर अगर गौर करें तो हम पाते हैं कि आज दीपावली जैसे अन्य तमाम शुभावसरों पर बाजार में वाहनों की संख्या व स्वर्ण आभूषणों समेत अन्य महंगी वस्तुओं की खरीद-बिक्री तो बढ़ी है लेकिन सामाजिक उत्साह तेजी से कम हुआ है और सामुदायिक जीव माने जाने वाला मानव अपने स्वभाव को बदलकर एकांकी जीवन जीने को अभिशिप्त होता दिख रहा है। यह ठीक है कि वक्त बदलने के साथ-साथ परम्पराओं में कुछ तब्दीली होना तथा धार्मिक मान्यताओं व इससे जुड़े किस्से कहानियों में समयानुकूल परिवर्तन किया जाना समय की मांग है लेकिन इस सबके लिए यह जरूरी है कि हम अपनी मान्यताओं व तौर-तरीकों से जुड़े दिखाई दें और हमारा समाज हमारी आगे आने वाली पीढ़ी को अनुभवों के जरिये सब कुछ जानने व इसमें सुधार करने का मौका दे। अफसोस का विषय है कि सामाजिक परिवर्तन व विकास के नारे ने हमें इस हद तक अंधा कर दिया है कि हम इस तथाकथित विकास की होड़ में अपने नौनिहालों का बचपन दांव पर लगा चुके हैं और अपने तौर-तरीकों , परम्पराओं या फिर सामाजिक आदर्शों से अंजान युवा पीढ़ी उसके परिजनों व निकटवर्तियों के लिए चिन्ता का नहीं बल्कि गर्व का विषय है। विभिन्न सामाजिक अवसरों व धार्मिक आयोजनों के अवसर पर गर्व के साथ सीना-चैड़ा कर यह बताते हुऐ कई माँ-बाप मिल जाते हैं कि उन्होंने अपनी औलाद को इस तरह के तमाम चक्करों में पढ़ने से बचाया है क्योंकि वह हमेशा अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहता है लेकिन इस व्यस्तता का खामियाजा कहाँ भुगतना पड़ता है इसका अंदाजा तब जाकर आता है जब कोई युवा मानसिक शान्ति की तलाश में किसी ढोंगी बाबा या तथाकथित संत के फेर में पड़कर अपना सबकुछ गंवा बैठता है या फिर खुद को मिली शिक्षा के अनुरूप विकास की नई राह तलाशते हुए वह अपने परिवार से व खुद से इतना दूर हो जाता है कि वहाँ से वापसी संभव ही नहीं दिखती और परिजन समाज में रहते हुए भी एकांकी जीवन जीने को मजबूर हो जाते है। यह बहुत ही कठिन व गंभीर परिस्थितियाँ हैं और इनका अनुभव सम्पूर्ण मानव शरीर को सिहरन से भर देता है लेकिन सरकारी तंत्र इन तमाम पक्षों को अनदेखा करता है क्योंकि उसे समाज की नहीं बल्कि सरकार की चिन्ता है और सरकार चलाने के लिए बाजार का बचे रहना व फलता-फूलता दिखना जरूरी है। इसलिए नोटबंदी व जीएसटी के मातमी माहौल के बीच सरकार के लिये यह एक अच्छा मौका है कि वह सूचना संचार के विभिन्न माध्यमों के जरियें बाजार में भारी भीड़ उमड़ने व जमकर खरीददारी होने की खबरें प्रायोजित करें और पटाखे जलाने के संदर्भ में माननीय न्यायालय द्वारा दिये गये आदेश व चाईनीज माला की खरीददारी न करने के संदर्भ में धमकी भरे अंदाज के साथ किये जा रहे सामाजिक निवेदन के बीच फँसे जनसामान्य को इस बात के लिऐ उत्साहित करें कि वह सरकार की कमाई व वाहवाही के लिए अपनी जेब ढ़ीली करें। लिहाजा दीपावली का त्योहार प्रचार-प्रसार का त्योहार बनकर रह गया है और हर एक कम्पनी या ब्रांड एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में अपने-अपने उत्पादों का विज्ञापन करने में मशगूल हैं जबकि कुछ तथाकथित रूप से सामाजिक चिंतक या आम आदमी के हितैषी लगने वाले लोग अपने-अपने फायदे और नुकसान को ध्यान में रखते हुए गरीब तबके के व्यवसायियों व घरेलू उत्पादों की तरफदारी करते भी दिख रहे है लेकिन इस तरफदारी में भी जात-पात और धर्म का तड़का लगाया जाना पूरी तरह जायज माना जा रहा है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि पूरी तरह बाजार पर निर्भर हो चुका हमारा यह लोकपर्व दीपावली अभी कई तरह के किन्तु-परन्तु व सरकारी या गैर सरकारी बंदिशों के बावजूद जारी है। बाजार पर हावी मिलावटखोरी, मंहगाई व अन्य ऐसे ही तमाम कारणों से हर बार की तरह इस बार भी इसका रूप थोड़ा बदला दिखाई दे रहा है लेकिन यह कोई बहुत बड़ी चिन्ता का विषय नहीं है बल्कि अगर तथ्यों की गंभीरता पर जाएं तो हम पाते हैं कि राजनैतिक व सामाजिक बदलाव के खेल में हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को जो कुछ भी दे रहे हैं या फिर धार्मिक मान्यताओं व सामाजिक आयोजनों के रूप में हम जो कुछ भी सहेजकर रख रहे हैं, वह एक विरासत के रूप में इतिहास में दर्ज होता जा रहा है। लिहाजा हमें थोड़ा सतर्क व सजग तो रहना ही होगा क्योंकि हम चाहकर भी इतिहास को नहीं बदल सकते।