उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद रस्म अदायगी तक सीमित हुऐ शहीद स्मारक व शहीद स्थल
उत्तराखंड राज्य आन्दोलनकारियों की शहादत को याद करते-करते हम दो दशक से भी ज्यादा आगे बढ़ चुके है और एक लम्बे जनान्दोलन व संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये उत्तराखंड में राज्य गठन के बाद से वर्तमान तक पंाचवी जनहितकारी सरकार अस्तित्व में आ चुकी है जबकि त्रिवेन्द्र सिंह रावत राज्य के नौंवे मुखिया के रूप में हमारे सामने है लेकिन इतना सबकुछ हो जाने के बावजूद हम वर्तमान में भी यह कहने की स्थिति में नही है कि हमने वह सबकुछ पा लिया है जो कि तत्कालीन जनता व आन्दोलनकारियों की अपेक्षा थी या फिर उत्तराखंड राज्य आन्दोलनकारियों के सपनो का उत्तराखंड वर्तमान में अपने मूल स्वरूप व आन्दोलनकारी सोच से भटककर निजी महत्वाकांक्षाओं व स्वार्थो की भेंट चढ़ चुका है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि राज्य गठन के बाद से ही हम असमंजस की स्थिति में है और सत्ता के शीर्ष पर काबिज नेता हमारी इन असमंजसता का फायदा उठाते हुऐ नौकरशाही के साथ मिलकर राज्य के संसाधनो की बंदरबांट करने में लगे है जबकि राज्य आन्दोलन के समय सक्रिय रूप से सामने दिखने वाली जुझारू सोच वर्तमान में पेंशन, आरक्षण व अन्य सुविधाओं तक सीमित होकर रह गयी है। यह ठीक है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद से वर्तमान तक सत्ता के शीर्ष पदो को हासिल करने वाले लगभग हर नेता, नौकरशाह व राजनैतिक दल ने उत्तराखंड राज्य आन्दोलनकारी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हुऐ न सिर्फ शहीद आन्दोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड बनाने की बात जोर-शोर से दोहराई है बल्कि हर विशेष अवसर के साथ ही साथ कुछ सामान्य मौको पर भी राज्य आन्दोलन के दौरान शहीद हुऐ आन्दोलनकारी साथियों के स्मारक पर जाकर उन्हें श्रद्धाजंली अर्पित करने की परम्परा का अनुपालन लगातार किया जा रहा है लेकिन परम्पराओं के अनुपालन के इस क्रम में उन तथ्यों व विषयों को बहुत पीछे छोड़ दिया गया है जो एक अलग पर्वतीय राज्य की मांग का प्रमुख कारण बने थे। हांलाकि इसके लिऐ जनता भी कम दोषी नही है और राज्य की विधानसभा के लिऐ हुऐ पहले ही आम चुनाव में जनता का स्थानीय राजनैतिक विचारधारा व राज्य आन्दोलन के दौरान सक्रिय राजनैतिक ताकतों को नकारकर एक राष्ट्रीय राजनैतिक दल के नेतृत्व में सरकार बनाने के संदर्भ में दिया गया जनादेश यह स्पष्ट करता है कि उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान जन सामान्य की बड़ी भागीदारी के बावजूद तत्कालीन स्थानीय नेता व क्षेत्रीय राजनैतिक दल जनता का विश्वास जीतने में पूरी तरह असफल रहे या फिर यह भी हो सकता है कि संसाधनो के आभाव से जूझ रही क्षेत्रीय विचारधारा व राष्ट्रीय राजनैतिक दलो की तिकड़म व पैसे की ताकत के आगे टिक ही नही पायी लेकिन वजह चाहे जो भी हो किन्तु यह तय है कि राज्य गठन के तुरन्त बाद से ही राज्य में बनने वाली पहली अंतरिम सरकार और फिर पं. नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने इस नवगठित राज्य के उद्देश्यों को ही बदलकर रख दिया। इतिहास गवाह है कि भाजपा ने राज्य निर्माण के लिऐ संघर्षरत् आन्दोलनकारी ताकतों को नकारतें हुऐ नवगठित राज्य का नाम उत्तराखंड की जगह उत्तराचंल रखने की साजिश की और बड़ी ही चालाकी से राज्य की राजधानी गैरसेंण के स्थान पर देहरादून में बनाकर इस नये-नवेले राज्य को अफसरशाहों व नेताओं की ऐशगाह बना दिया। राज्य के नक्शें में शामिल हरिद्वार जिले के मेला क्षेत्र समेत तमाम परिसम्पत्तियों, नहरों व सरकारी भवनों पर आज भी उत्तर प्रदेश सरकार का अधिकार और अस्थायी राजधानी के स्थानीय सचिवालय व विधानसभा में विभिन्न सुविधाऐं जुटाने के नाम पर अब तक फूँका जा चुका अरबों का सरकारी फंड इस बात का गवाह है कि भाजपा द्वारा जल्दबाजी में की गयी उत्तराख्ंाड राज्य के गठन की घोषणा के पीछे राज्य की जनता के हित के स्थान पर संगठन के हित को सर्वोपरि माना गया और इसकी भरपाई इस राज्य की जनता को राज्य के विकास का हवाला देकर होने वाली संसाधनों की लूट के जरिये बखूबी की गयी लेकिन मजे की बात यह है कि यह सब करने से पहले हमारे नेता और नीतिनिर्धारक राज्य आन्दोलनकारियों को सम्मान देना व आन्दोलन के दौरान शहीद साथियों की याद में बनाये गये स्मारकों पर पुष्प अर्पित करना नही भूले और अगर हालातों की गंभीरता पर गौर करें तो हम पाते है कि जनता के द्वारा चुने गये राज्य के पहले मुख्यमंत्री पण्डित नारायण दत्त तिवारी ने तो आन्दोलनकारियों को सम्मान देने का एक ऐसा कुचक्र रचा कि राज्य निर्माण व जनता के प्रति जवाबदेही को लेकर संकल्पबद्ध उत्तराख्ंाड के राज्य आन्दोलनकारियों में खुद को साबित करने की एक होड़ सी लग गयी। कितना आश्चर्यजनक है कि जिन आन्दोनकारी ताकतों ने राज्य की जनता के हितो से जुड़े फैसले लेने के लिऐ देश की संसद या प्रदेश की विधानसभा में होना चाहिऐं था वह राज्य निर्माण के बाद खुद को सरकारी कार्यालयों में बाबू या चपरासी बनाये जाने की मुहिम में ऐसे जुटे कि मानो उन्हें मनवांछित मुराद मिल गयी हो और जो उम्र की बाध्यता या अन्य किन्हीं कारणों से इस परिधि में आने से छूट गये वह तमाम छोटे-बड़े संगठन बनाकर अपनी पेंशन व अन्य छोटी-मोटी सुविधाओं की लड़ाई लड़ने निकल पड़े। ऐसा नही है कि इन तमाम तथाकथित राज्यआन्दोलनकारियों का अपना कोई जनाधार नही था या फिर व्यापक जनहित की लड़ाई सिर्फ विचारधारा व आदर्शो को आगेकर नहीं लड़ी जा सकती थी लेकिन दशको से पहाड़ से पलायन कर एक अदद नौकरी के लिऐ जूझ रही पहाड़ी मानसिकता ने नाजुक वक्त पर आसान रास्ता चुनना मुनासिब समझा और उ.प्र. जैसे बड़े राज्य के अलावा राष्ट्रीय राजनीति में भी हाथ आजमा चुके राष्ट्रीय राजनैतिक दलो के तमाम छोटे-बड़े खिलाड़ियों ने मौके की इस नजाकत को समझा जिसके चलते राज्य की जनता की सोच व प्राथमिकताऐं एकाएक बदल गयी मालुम पड़ने लगी। राज्य गठन के बाद पहले दशक में तो ऐसा लगा मानो संसाधन जुटाने व अपनी राजनैतिक समझ का दायरा बढ़ाने के मामले में पीछे छूटा उत्तराखंड का कोई आम नागरिक आने वाले कल में अपनी नासमझी व कूप मण्डुकता को गाली देगा तथा विकास के नये आयामों को छूते उत्तराखंड में जनसामान्य की स्थितियों में तेजी से सुधार आयेगा लेकिन वक्त बीतते-बीतते जैसे-जैसे यथार्थ से सामना होता गया तो सरकारी तंत्र की कारगुजारियाँ सामने आने लगी। नतीजतन राज्य की जनता का विश्वास आन्दोलन व आन्दोलनकारी शब्द से टूटता हुआ दिखाई देेने लगा और राज्य भर में स्थानीय मुद्दो व जनापेक्षाओं को आधार बनाकर किये जाने वाले बड़े व मर्मस्पर्शी आन्दोलन बीते हुऐ कल की बात बनकर रह गये। कितना बड़ा विद्रुप है कि राज्य आन्दोलन के दौरान शहीद हुऐ आन्दोलनकारियों की याद में अब सिर्फ नेता व सरकारी अमला ही जुटता दिखार्द देता है और संघर्षो की मार के बावजूद जीवित बचे कुछ चेहरे इन अवसरो का उपयोग अपनी छोटी-छोटी मांगो को आगे बढ़ाने के लिऐ करने को आतुर नजर आ रहे है। इसके ठीक विपरीत राज्य की आन्दोलनधर्मी जनता आज भी फटेहाल हालातों का सामना करते हुऐ सरकार की शराब नीति का विरोध और स्थानीय स्तर पर जनसुविधाओं की बहाली की मांग करते हुऐ तमाम छोटे-बड़े आन्दोलनों को खड़ा करने में मशगूल है लेकिन नेतृत्व के आभाव में इन सभी छोटी-बड़ी मांगो को एक सूत्र में बांधकर एक नये उत्तराखंड राज्य की अवस्थापना की दिशा में कोई बड़ा सामाजिक आन्दोलन खड़ा नही हो पा रहा है। सवाल यह है कि शहीदों की याद में बनाये गये स्मारकों व शहीद स्थलों पर हर वर्ष कुछ विशेष मौको पर होने वाली रस्म अदायगी से हटकर राज्य आन्दोलनकारियों व संघर्षशील जनता के सपनो का उत्तराखंड बनाने की दिशा में पहल कौन करेगा? सत्ता के शीर्ष पर काबिज या फिर कब्जेदारी के लिऐ संघर्ष कर रहे राजनैतिक दलोे से इस तरह की कोई भी उम्मीद करना ही बेमानी है और रहा सवाल राज्य आन्दोलन के दौरान तथाकथित रूप से सक्रिय राज्य आन्दोलनकारियों का तो वह पहले ही सरकारी तंत्र के समक्ष घुटने टेक शरणागत् वाली मुद्रा में दिखाई दे रहे है।