उत्तराखण्ड राज्य स्थापना के वक्त से चले आ रहे मूलभूत मुद्दो पर बात करने को तैयार नही दिखता कोई राजनैतिक दल।
नामांकन और नाम वापसी के लिऐ किये जा रहे प्रयासो के बीच भाजपा एवं काॅग्रेस दोनो ने ही अपना प्रचार अभियान तेज कर दिया है जबकि निर्दलीय अभी अपने चुनाव चिन्ह मिलने का इन्तजार कर रहे है। नामांकन के दौरान जुटायी गयी भीड़ के सहारे अपना जनाधार साबित करने में मशगूल तमाम प्रत्याशी अब यह रणनीति बनाने में जुटे है कि किस तरह ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं के साथ सम्पर्क कर अपने वोट बैंक को मजबूत किया जाए तथा चुनाव प्रचार के लिऐ चुनावी टोलियाॅ घर-घर सम्पर्क करने की कोशिशें शुरू कर चुकी है लेकिन चुनाव मैदान में मुद्दो का पूर्णतः आभाव है। हाॅलाकि मुख्यमंत्री की ओर से एक निजी संकल्प पत्र जनता की अदालत में प्रस्तुत कर इस चुनावी जंग को व्यापक जनहित से जोड़ने की कोशिश की गयी है और उम्मीद की जानी चाहिऐं कि काॅग्रेस एंव भाजपा समेत तमाम स्थानीय व छोटे दलो के चुनाव घोषणापत्र भी समय रहते जनता के बीच उपलब्ध करा दिये जायेंगे लेकिन इस सारी जद्दोजहद में आम आदमी से जुड़े मुद्दे गायब दिखते हैं और कोई भी दल या राजनैतिक दल यह नही बताना चाहता कि उसके द्वारा विपक्ष पर लगाये जा रहे आरोंपो की भूल सुधार का तरीका क्या है। यह ठीक है कि मौजूदा सरकार पर आरोंप लगाते हुऐ भाजपा के नेता खनन के धन्धे में सत्ता पक्ष की भागीदारी व सरकारी नियन्त्रण में होने वाली अंगे्रजी शराब की बिक्री के मामले में दोयम दर्जे की डेनिस जैसी ब्राडो को बढ़ावा देने का आरोप लगाते है और खुले मंचो से यह कहा जाता है कि सरकार ने कुछ शराब कारोबारियों से सांठगांठ कर अपने निजी आर्थिक लाभ के लिऐ इस तरह की बिक्री को बढ़ावा देने की रणनीति अपनायी है लेकिन शराब कारोबारियों से चन्दा वसूल करने या अपने कार्यकाल में राजस्व बढ़ाने के नाम पर गाॅव-देहात के निकट शराब की दुकाने खोलने के मामले में भाजपा अथवा अन्य किसी छोटे दल को आरोपमुक्त नही किया जा सकता और न ही कोई राजनैतिक दल अथवा चुनाव जीत रहा उम्मीदवार अपने चुनाव प्रचार के दौरान कार्यकर्ताओं के मनोरंजन के नाम पर जनता के बीच शराब बाॅटने से परहेज करते हुए चुनावों में विजयी होने की स्थिति में अपने निर्वाचन क्षेत्र में शराब की दुकान न खुलने देने के लिऐ संकल्पबद्ध दिखता है। हालातों के मद्देनजर ऐसा मालूम होता है कि शराब के नामी-गिरामी ब्राडो की जगह कुछ नये नामो का बाजार में आना एक व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का नतीजा है और व्यापक जनहित के लिऐ काम करने का दावा करने वाले तमाम छोटे-बड़े नेता इस प्रतिस्पर्धा में अपना-अपना हित ढूंढते हुऐ आगामी विधानसभा चुनावों में सफलता का मार्ग ढूंढने का प्रयास कर रहे है जबकि तमाम खनन व्यवसायियों व इस व्यवसाय को राजनैतिक संबल देने वाले स्थानीय नेताओं को अपने-अपने पक्ष में खीचने की लगी राजनैतिक होड़ को देखते हुऐ यह कहा जाना मुश्किल है कि इन तमाम राजनैतिक दलो या नेताओं की खनन के व्यवसाय पर रोक लगाने अथवा इसे सीमित क्षेत्रो मे चलाये जाने की कोई योजना है। हालातों के मद्देनजर यह कहना मुश्किल हैं कि परिवर्तन के नारे के साथ सत्ता में वापसी का दावा करने वाली भाजपा या फिर अपने इन तीन सालो के कार्यकाल की बिना पर पाॅच साल का समय और माॅगने वाले हरीश रावत ने इस राज्य के विकास, पलायन को रोकने या फिर प्रदेश के ग्रामीण अंचलो में मूलभूत सुविधाऐ उपलब्ध कराने के लिऐ कोई रोडमैप तैयार किया भी है लेकिन मौजूदा सरकार द्वारा गैरसेण में विधानसभा भवन के निर्माण व सत्र आयोजन पर दिया गया जोर तथा क्षेत्रीय अस्मिता व लोकपरम्पराओं का अहसास कराने वाले हरेला, घी सक्रांन्त, झुमैलो आदि के आयोजन को लेकर दिखाई गयी प्रतिबद्धता यह साबित जरूर करती है कि मौजूदा सरकार की योजनाओं व कार्य करने के तरीके में कहीं न कहीं आम आदमी का अहसास व पहाड़ को लेकर एक दर्द छिपा हुआ था। हो सकता है कि परिवर्तन के नारे के साथ काॅग्रेस के ही कुनबे को लेकर आगे बढ़ रहे भाजपाई यह मानकर चल रहे हो कि केन्द्र की सरकार के अनुरूप उत्तराखण्ड में भी भाजपा की सरकार होने पर विकास कार्यो के लिऐ धनाभाव महसूस नही होगा और राज्य की जनता के हित में विकास योजनाओं को तेजी से अमलीजामा पहनाया जा सकेगा लेकिन अभी तो सवाल यह है कि स्थानीय जनता के हित में वह विकास योजनाऐं क्या होगी जिनपर अमल कर भाजपा राज्य की वर्तमान स्थिति में एक बड़ा बदलाव या परिवर्तन लायेगी और अफसोसजनक है कि इन मुद्दो पर बात करने को अभी कोई तैयार नही है और न ही कोई यह बतलाना चाहता है कि व्यापक जनहित को लेकर उसकी कार्ययोजना क्या है ? लगातार बढ़ रहे आर्थिक कर्ज से जूझ रहे उत्तराखण्ड के समक्ष अपने कर्मचारियों केे लगातार बढ़ रहे वेतन व दैनिक भत्तों की अदायगी को लेकर धन का आभाव साफ झलक रहा है। प्रदेश में लगातार बढ़ रही बेरोजगारो की संख्या के साथ ही साथ इस समस्या का स्थायी समाधान ढूंढने के स्थान पर कुछ लोगो को जुगाड़ के आधार पर सरकारी नौकरियाॅ देेने तथा फिर उन्हे पक्का करने के लिए होने वाले आन्दोलन किसी एक दल या राजनेता के खिलाफ नही हैं और न ही किसी नेता या सरकार की व्यक्तिगत् समस्या है लेकिन कोई भी राजनैतिक दल इस तरह की तमाम समस्याओं का स्पष्ट और गैरराजनैतिक समाधान सुझाने मे असमर्थ है। हाॅ इतना जरूर है कि युवाओं व बेरोजगारों के वोट बैंक को भ्रमित करने या फिर उन्हे अपने कब्जे में लेने के लिऐ झूठे आश्वासनों का सहारा लेने में किसी को भी किसी तरह का हर्ज नही दिख रहा । सेवानिवृत्त नौकरशाहों की शरणस्थली बन गयी उत्तराखण्ड की सरकार में सचिवालय की जिम्मेदारियाॅ एवं दायित्व जैसे अनेक विषय है जिनपर इस चुनाव के मौसम में खुलकर चर्चाऐं होनी चाहिऐं और सत्तापक्ष व विपक्ष को जनता के बीच यह जाहिर करना चाहिऐं कि आॅखिर ऐसी जरूरतें ही क्यों पड़ी जो सचिवालय कर्मियों के दो गुटो को एक दूसरे के विरूद्ध मार्च करते हुऐ सड़को पर प्रदर्शन के लिऐ बाध्य होना पड़ा या फिर एक सामान्य कर्मचारी से लेकर मन्त्री तक पर लगने वाले महिला उत्पीड़न के आरोंपो के परिपेक्ष्य में सरकार ने खुद को बेदाग साबित करने के लिऐ क्या कदम उठाये। यह ठीक है कि पहाड़ो से होने वाले पलायन को आगे बढ़ने के निजी प्रयासों का एक हिस्सा मानते हुऐ यह कहकर स्वीकार किया जा सकता है कि एक सतत् प्रक्रिया की तर्ज पर चल रहे इस अभियान को स्थानीय स्तर पर रोजगार श्रृजन की स्थिति तक रोका नही जा सकता और न ही अपने बेहतर भविष्य के लिऐ देश-विदेश की ओर रूख कर रहे युवाओं को सिर्फ भाषणो की खोखली घोषणाओं के दम पर बाॅधकर रखा जा सकता है लेकिन जब पहाड़ी जिलो में नियुक्त अध्यापक व अन्य सरकारी कर्मचारी भी राज्य के मैदानी इलाको की ओर दौड़ लगाने लग जाय और छुटभैय्ये नेताओं व भ्रष्ट नौकरशाहो द्वारा स्थानान्तरण को एक उद्योग का रूप दे दिया जाये, तो फिर इन विषयों पर हमारे नेता व राजनैतिक दल किस तरह अपने विचार व्यक्त कर सकते है। यह तमाम ऐसे बड़े सवाल है जिनपर उत्तराखण्ड राज्य स्थापना के समय से ही विचार किया जाना आवश्यक था लेकिन अफसोस आज राज्य की चैथी जनमत के आधार पर गठित की जाने वाली विधानसभा के लिऐ चुनावों की तैयारी करते वक्त भी इन तमाम विषयों पर हमारा मौन देखते ही बनता है।