बेईमानो को रहने दो, बस पार्टी का राज बदल दो।
मुद्दाविहीन नजर आ रहे 2017 के इन विधानसभा चुनावों में मोदी भाजपा का चेंहरा है और अपनी राजसत्ता को निष्कंटक करने के लिए काॅग्रेस समेत तमाम छोटे-बड़े राजनैतिक दलो का चुनावी राज्यों से सफाया कर खुद को साबित करना उनके लिऐ एक चुनौती है लेकिन इस चुनौती को स्वीकारनें के लिए अपनी सेना में मौजूद सिपाहियों पर उन्हे भरोसा नही है या फिर अपनी जिन्दाबाद के नारे लगाने वाले तथाकथित रूप से समर्पित कार्यकर्ताओं से उन्हे डर है कि अगर इन्हे आगे बढ़ने का मौका दिया गया तो यह ठीक उन्ही के अन्दाज में जनता की नब्ज पकड़ उन्हे सत्ता से बेदखल कर सकते है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि गुजरात की जनता का विश्वास जीतने क बाद केन्द्र की राजनीति की ओर रूख करने वाले नरेन्द्र मोदी ने केन्द्रीय सत्ता पर कब्जे के बाद एक मिशन की तरह न सिर्फ भाजपा की राजनीति के स्थापित दिग्गजों को मार्गदर्शक बना सक्रिय राजनीति से बाहर किया बल्कि एक सधे हुए रणनीतिकार वाले अन्दाज में अपने खास सिफहसलाहार अमित शाह को संगठन की कमान भी सौप दी और खुद को भाजपा का रणनीतिकार व सूरमा मानने वाले दिग्गजों को यह अन्दाजा भी नही आया कि वह कब संगठन की मुख्य लाइन से बाहर होकर दोयम दर्जे के नेता बनकर रह गये। इसे नरेन्द्र मोदी की राजनैतिक कुशलता ही कहा जायेगा कि खुद सरकार में रहते हुऐ तमाम विवादित फैसले व विवादस्पद कानूनों को लागू करने के बावजूद वह भाजपा कार्यकर्ताओं व संघ के उद्देश्यों हेतु समर्पित स्वंयसेवको को यह दिलासा दिलाने में कामयाब रहे कि सरकार पूरी तरह संघ के तथाकथित राष्ट्रवादी ऐजेण्डे पर चल रही है और सत्ता में आने के बाद मोदी या भाजपा की नीतियों में कोई बदलाव नही आया है लेकिन मॅहगाई को काबू में रखने के मामले में मिली असफलता और विभिन्न समाजिक मुद्दो पर केन्द्र सरकार के खिलाफ बढ़ते दिख रहे जनाक्रोश को मद्देनजर जब सरकार को यह लगा कि मीडिया के एक हिस्से पर काबिज हो प्रायोजित तरीके से छवि निर्माण के मोदी स्टाइल का असर अब कम होने लगा है तो पहले सर्जिकल स्ट्राइक और फिर नोटबन्दी जैसे मुद्दो को हवा दे सरकार ने यह माहौल बनाने की कोशिश की कि सरकार काले धन व भ्रष्टाचार के साथ ही साथ आंतकवाद व चोर बाजारी जैसे मुद्दो पर भी संजीदगी से लड़ाई लड़ रही है परन्तु नोटबन्दी के संदर्भ में मोदी सरकार द्वारा लिया गया फैसला भी सरकार के लिये उल्टा दाॅब साबित हुआ और घन्टो तक लाइन में लगने की परेशानी झेलने के बाद आम आदमी को जब यह पता चला कि सारी फजीहत झेलने के बावजूद भी सरकार काले धन को लेकर किसी नतीजे पर नहीं पहुॅची है तो उसे पहली बार मोदी की कार्यशैली पर शक हुआ। हाॅलाकि सरकार ने कैशलैस का नारा देकर हालातों पर काबू पाने की कोशिश की और बड़े-बड़े विज्ञापनो के अलावा सूचना संचार के विभिन्न माध्यमों पर जुटी मोदी टीम के माध्यम से लोगो को यह बताने की कोशिश की गयी कि देश सेवा की इस मुहिम में मोदी के साथ खड़े दिख रहे चेहरे ही असली राष्ट्रावादी है लेकिन जनता का गुस्सा कम होता नही दिखा और कमजोर विपक्ष के बावजूद जनता के बीच यह सन्देश जाने लगा कि मोदी सरकार राष्ट्रवाद के नाम पर किसी छुपे हुऐ ऐजेण्डे पर काम कर रही है। इन हालातों में मोदी के समक्ष पहली चुनौती पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीतकर भाजपा सरकार बना खुद को साबित करने की थी और उनके खास सिपाहसलाहार के रूप में अमित शाह पहले से ही इस ऐजेण्डे पर काम भी कर रहे थे लेकिन इस सारे खेल में असल मुश्किल यह हुई कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े व उत्तराखण्ड जैसे राजनैतिक दृष्टि से समृद्ध राज्य में बजी इस चुनावी दुंदुभी ने मोदी के समक्ष नये नेताओ के आगे आने व भविष्य में अपने नेतृत्व को चुनौती मिलने का खतरा खड़ा कर दिया। इसलिऐं भाजपा के सर्वेसर्वा के रूप में अमित शाह व नरेन्द्र मोदी की जोड़ी ने फैसला किया कि इन तमाम राज्यों में मुख्यमंत्री के रूप में किसी भी चेहरे को आगे करने की जगह मोदी को ही चेहरा बना चुनाव लड़ा जायेगा और प्रत्याशियों का चयन भी हाईकमान के सुझावों व निर्देशो के आधार पर होगा। मजे की बात यह है कि खुद को भाजपा का नीति निर्धारक कहने वाले संघ के नेता सत्ता पर कब्जेदारी की चाह में मोदी और शाह की जोड़ी द्वारा लिये गये इस फैसले का विरोध करने की हिम्मद नही जुटा पाये और न ही स्थानीय स्तर पर खुद को भाजपा का राणनीतिकार साबित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाने वाले इन राज्यों के तमाम नेता टिकट बॅटवारे से पहले हाईकमान के इस फैसले के खिलाफ अपने सुर बुलन्द कर पाये। नतीजतन कार्यकर्ताओ की चुप्पी को आम सहमति का रूप देकर बड़े पैमाने पर आपराधिक चरित्रो व सामाजिक रूप से तिरस्कृत लोगो को संगठन के साथ जोड़कर जीत की मुहिम को अमलीजामा पहनाने का नया भाजपाई अध्याय शुरू हुआ। खुद को भाजपा का प्राथमिक सदस्य व जमीनी कार्यकर्ता बताने वाले मोदी प्रशंसको की असल समस्या यहीं से बढ़नी शुरू हुई क्योकि कल तक जिन नेताओ या अपराधियों का उन्होने सार्वजनिक रूप से विरोध किया था आज उन्ही की जिन्दाबाद के नारे लगाना स्थानीय स्तर पर काम करने वालो के लिऐ भी आसान नही था और दूसरा भाजपा में तेजी से बढ़ रही यह कार्यसंस्कृति उन तमाम लोगो के ख्वाबों पर पानी फेरती थी जो नरेन्द्र मोदी की तरह ही एक आम कार्यकर्ता से प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुॅचने की सोच के साथ भाजपा में अपना सर्वस्व समर्पण करने की भावना को लेकर आगे बढ़ रहे थे। इन पाॅच राज्यों के चुनाव नतीजे क्या होंगे और इन चुनावों के बाद मोदी का अगला कदम क्या होगा, यह तमाम तथ्य अभी नेपृथ्य में है लेकिन चुनावी जीत व सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा में मची इस भागमभाग ने उन तमाम मुद्दो व विषयों को भाजपा के सम्मुख प्रश्नचिन्ह बनाकर खड़ा कर दिया है जिन्हे भाजपा अपना हथियार बनाया करती थी और इस सारी जद्दोजहद में विकास से जुड़े मुद्दे व स्थानीय समस्याएंे कहीं दूर छूट गयी है।
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