आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित नही दिखाई देता जनमानस
चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद भी उत्तराखण्ड में राजनैतिक माहौल इतना गर्म नही दिखाई दे रहा और न ही जनता के बीच आगामी सरकार अथवा चुनाव मैदान में उतरने वाले प्रत्याशियों को लेकर कोई चर्चा दिखाई दे रही है। हाॅलाकि कुछ निर्दलीय व विभिन्न राजनैतिक दलो के सम्भावित प्रत्याशी अपने-अपने स्तर पर प्रचार शुरू कर चुके है और राहुल गांधी व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत भाजपा के तमाम छोटे बड़े नेता तथा अनेक केन्द्रीय मंत्री प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में जनसभाओं या कार्यकर्ताओं की बैठक के बहाने मतदाता के मन की थाह लेने का प्रयास कर चुके है लेकिन मतदाता की उदासीनता कम होने का नाम नही ले रही है और नेताओं के स्वागत् व रैलियों हेतु प्रायोजित भीड़ के अलावा कहीं भी ऐसा कुछ नही लग रहा है राज्य की जनता ने अपनी सरकार चुनने के लिऐ किसी भी तरह की प्राथमिक तैयारी शुरू कर दी है। यह ठीक है कि असमय हुई नोटबंदी से परेशान जनता अभी तक अपने निजी सवालों से ही उलझी हुई है और देश के प्रधानमंत्री पर किये अटूट विश्वास के बावजूद बिना कारण पड़ने वाली इस असमायिक व आर्थिक मार ने उसे कर्तव्यविमूढ़ कर दिया है लेकिन इस सबके बावजूद कांग्रेस या अन्य कोई विपक्षी दल यह कहने की स्थिति में नहीं है कि केन्द्र सरकार के वर्तमान फैसले के खिलाफ खड़ा दिख रहा जनमत आगामी चुनावों में उसकी जीत की गारन्टी है। अब अगर चुनावी मुद्दों की बात करें तो राज्य बनने के बाद इन सोलह-सत्रह वर्षों में हम इतना आगे बढ़ चुके है कि पुराने मुद्दों पर बात करना भी बेमानी है लेकिन पलायन और विकास को ही स्थानीय मुद्दा मानने वाले यहां के नेता स्थानीय जनता को सीसी रोड की स्वीकृति व मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष के अनुदान तक ही सीमित रखना चाहते है तथा स्थानीय स्कूलों के उच्चीकरण व वित्त विहीन घोषणाओं के माध्यम से जनसामान्य को बरगलाने की राजनैतिक कोशिश अभी जारी है। अब अगर चुनावी समीकरणों की बात करें तो यह स्पष्ट दिखता है कि पिछले चुनावों में इक्कतीस विधानसभा सीटों पर विजय हासिल करने वाली भाजपा को विपक्ष में धकियाकर बत्तीस विधायकों के बूते सत्ता हासिल करने वाली कांग्रेस के साथ शुरूवाती दौर में जुड़े निर्दलीय व अन्य छोेटे दलों के विधायक अभी भी कांग्रेस के खेंमे में है और यह उम्मीद की जा रही है कि पति की मृत्यु के बाद कांग्रेस से चुनाव जीती सुनीता राकेश व बसपा से निलम्बित विधायक हरिदास के अलावा निर्दलीय हरीश दुर्गापाल व मंत्री प्रसाद नैथानी भी कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरेंगे जबकि निर्दलीय दिनेश धनै, उक्रांद के प्रीतम पंवार व काशी सिंह ऐरी समेत दो एक अन्य प्रत्याशियों को हरीश रावत के साथ मधुर सम्बन्धों का चुनावी लाभ मिलेगा। इसके ठीक विपरीत भाजपा पर कांग्रेस से बगावत कर संगठन में शामिल हुये दस विधायकों को सम्मानजनक ढ़ंग से चुनाव लड़ाने की जिम्मेदारी तो है ही साथ ही साथ संगठनात्मक स्तर पर दिखने वाली बड़े नेताओं की भरमार भी भाजपा के कार्यकर्ताओं को उलझन में डाल रही है और असंमजस में फंसा भाजपा का कार्यकर्ता अभी यह नहीं समझ पा रहा है कि ठीक चुनावी मौके पर सामने आने वाली समस्याओं के समाधान हेतु वह अपने केन्द्रीय नेताओं पर किस हद तक भरोसा कर पायेगा। यह ठीक है कि भाजपा के बेनर तले पिछला चुनाव जीते इक्कतीस विधायकों में से एक के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिऐ सीट खाली करने तथा निशंक व अजय टम्टा के सांसद चुने जाने और कांग्रेस सरकार पर छाये संवेधानिक संकट के दौरान प्रदीप भण्डारी व भीमताल आर्या के भाजपा से इस्तीफे के बाद पार्टी के कुल विधायकों की संख्या छब्बीस मात्र रह गयी थी लेकिन दस कांग्रेसी विधायकों को अंगीकार करने के बावजूद भी भाजपा को सिवा छिछालेदार के कुछ नही मिला और अब खबर है कि भाजपा के बड़े नेता एक बार फिर इसी छिछालेदार के सूत्राधार की रणनीति पर विश्वास करते हुये अपने कुछ निवर्तमान विधायकों का टिकट काटने का मन बना चुकी है। चुनावों में टिकट देना या न देना किसी भी संगठन का अन्दरूनी मामला है और अगर भाजपा के बड़े नेता अपने निवर्तमान विधायकों व सक्रिय कार्यकर्ताओं का टिकट काटकर कांग्रेस के बागी उम्मीदवारों या कुछ नये चेहरों को देना चाह रहे है तो इसे भाजपा का नितांत निजी मामला माना जा सकता है लेकिन अगर इस रणनीति के तहत कोई भी संगठन सत्ता में आने के दावे के साथ किसी विवादित नौकरशाह या फिर चर्चित नेता के परिजन को अपना प्रत्याशी बनाने को मन बना लें तो समाज के जागरूक वर्ग द्वारा इस विषय पर टिप्पणी किया जाना स्वााभाविक है। वर्तमान में राजनीति के गलियारों में यह चर्चा जोंरो से है कि प्रदेश के मुख्य सचिव रह चुके राकेश शर्मा तथा पूर्व मुख्यमंत्री पं. नारायण दत्त तिवारी के पुत्र भाजपा की उम्मीदवारी पर चुनाव मैदान में उतरने के लिये लगभग तैयार है। राज्य के विकास में पं. नारायण दत्त तिवारी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता और न ही इस तथ्य को झुठलाया जा सकता है कि महिलाओं के साथ अनैतिक संबंधों को लेकर उनकी खूब छिछालेदार हुई थी। इन तमाम जानकारियों के बावजूद कल तक तिवारी को व्यक्तिगत् रूप से गलियाते हुये राजनीति में शुचिता व चारित्रिक दृढ़ता की बात करने वाले भाजपाई अगर परिवारवाद को आगे बढ़ाते हुये पं. नारायण दत्त तिवारी के पुत्र को चुनाव लड़ाते है या फिर कांग्रेस में एका कायम रखने के नाम पर हरीश रावत अपने तमाम राजनैतिक सहयोगियों की नई पीढ़ी को सत्ता के हस्तांरण का चक्रव्यूह रचते है तो यह निश्चित है कि इन दोनों ही दलों का जमीनी कार्यकर्ता अपने नेताओं को कभी माफ नहीं करेगा। कितनी विषम परिस्थितियां है कि एक लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पर काबिज रहकर विवादित फैसले लेने वाला एक नौकरशाह अपनी अवकाश प्राप्ति के बाद भी न सिर्फ एक विशेष पद श्रजित कर सत्ता के शीर्ष पर अपनी पकड़ बनाये रखता है बल्कि स्वंय पर लगने वाले विभिन्न आरोंपों के बावजूद भी वह अपना दम खम साबित करते हुये एक राष्ट्रीय व तथाकथित रूप से ईमानदार लोगों की पार्टी के प्रत्याशी के रूप मे चुनाव लड़ने का दावा प्रस्तुत करता है। हालातों के मद्देनजर हम समझ सकते है कि जनान्दोलनों के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आया हमारा यह प्रदेश कहां जा रहा है और खुद को उत्तराखंड राज्य निर्माण का श्रेय देने वाले लोग सत्ता पर अपनी कब्जेदारी के लिऐ किस हद तक गिरते चले जा रहे है। इन हालातों में अगर राज्य की आम जनता चुनावों को लेेकर उदासीन है या फिर जनता के बीच चुनावी चहल-पहल को लेकर चर्चा ही नही है तो इसमें आम आदमी का क्या दोष माना जा सकता है और किस आधार पर यह विश्वास किया जा सकता है कि आगामी विधानसभा चुनावों के बाद अस्तित्व में आने वाली तथाकथित जनहितकारी सरकार वाकई में आम आदमी के हितों को ध्यान में रखते हुऐ कार्य करेगी।