विवादित संतो व फर्जी बाबाओं की सूची जारी करने मात्र से अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नही हो सकती भारतीय अखाड़ा परिषद्।
डेरा सच्चा सौदा से जुड़े बाबा राम रहीम पर लग रहे विभिन्न आरोंपो व उनके जेल जाने के बाद संत समाज के बीच एक अजीब सी खलबली का माहौल है और देश के तमाम साधु-संतो के अग्रणी संगठन माने जाने वाले अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने आनन-फानन में एक सूची जारी करते हुऐ कुछ फर्जी बाबाओं के नाम जगजाहिर किये है। तमाम अखाड़ा प्रमुखों व संत समाज के प्रतिनिधियों का कहना है कि किसी सम्प्रदाय अथवा परम्परा से सबद्ध हुऐ बिना स्वम्भू तौर पर बाबा बने बैठे तथाकथित मठाधीशों व कथावाचकों के खिलाफ सख्त कार्यवाही होनी चाहिऐं क्योंकि इस तरह के लोग न सिर्फ धर्म व परम्परा को बदनाम कर रहे है बल्कि इनके आचरण व ऐशोआराम को लेकर चल रही तमाम तरह की चर्चाओं ने सारे संत समाज को संदिग्ध बना दिया है। अगर तथ्यों की गंभीरता को समझे तो अखाड़ा परिषद द्वारा उठाया गया यह कदम बहुत महत्वपूर्ण व समयानुकूल कहा जा सकता है और हाल ही के दौर में सामने आये तमाम तरह के घटनाक्रमों के बाद देश व दुनिया के तमाम हिस्सों में उठ रहे भारतीय संत समाज की गरिमा को लेकर प्रश्न व इनकी गंभीरता को देखते हुऐ इसे सही भी कहा जा सकता है लेकिन अगर परिषद के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरी व अन्य मंहतो के बयानों पर गौर करें तो हम पाते है कि इन गंभीर परिस्थितियों में भी संतो द्वारा दिया गया सार्वजनिक बयान अपने बचाव व सम्मान की रक्षा के लिऐ किया गया एक प्रयास मात्र मालुम होता है और बयान के अंदाज व तार्किकता को ध्यान में रखते हुऐ यह नही कहा जा सकता कि संत समाज के यह तथाकथित प्रतिनिधि संतों के लगातार घट रहे मान-सम्मान व प्रभाव क्षेत्र को लेकर जरा भी चिन्तित है या फिर संत समाज पर लग रहे विभिन्न आपराधिक आरोपों व उनके खिलाफ प्रस्तुत किये जा रहे तथ्यों ने उन्हें विचलित करके रख दिया है बल्कि इस निरर्थक बयानबाजी व पहले से ही विभिन्न आरोंपो का सामना कर रहे या जेल में बंद तथाकथित संतो की सूची से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय अखाड़ा परिषद अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों व निकट भविष्य में लगने वाले आरोपों से बचने की राह तलाश रहा है। यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि भारतीय संत समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी राजनैतिक निष्ठाओं व महत्वाकांक्षाओं के चलते पूर्व से ही कई खेमों में बंटा है और मठों, मन्दिरों, आश्रमों व अखाड़ो के असीमित अधिकार एवं इनके कब्जे में रहने वाली तमाम तरह की बहुमूल्य सम्पत्तियों ने भारतीय संत समाज के एक प्रमुख वर्ग को दिगभ्रमित कर दिया है लेकिन सामाजिक मर्यादाओं व सार्वजनिक मंचो पर मिलने वाले सम्मान के लोभ ने संत समाज के एक बड़े हिस्से को मजबूर किया है कि वह बाबा राम रहीम अथवा आसाराम जैसी तमाम बड़ी हस्तियों पर लग रहे आरोंपो के खिलाफ पूरी एकजुटता से खड़े दिखे और समाज को यह संदेश दिया जाय कि आरोंपी भारतीय संत परम्परा का हिस्सा ही नही है। यह हो सकता है कि विभिन्न आरोंपो में जेल में बंद या फिर सामाजिक रूप से चर्चित कुछ तथाकथित संत किसी अखाड़े या फिर परम्परा से न जुड़े हो अथवा इनकी बढ़ती लोकप्रियता के क्रम में इन्हें अखाड़ों के संरक्षण की आवश्यकता ही महसूस न हुई हो लेकिन अखाड़ा परिषद द्वारा जारी इस सूची से कहीं भी यह स्पष्ट नही होता कि इन विवादित अथवा कानून की निगाह में संदेहास्पद संतो के आलावा शेष सभी अथवा अखाड़ों से जुड़े संत निर्विवाद है और उनके आश्रमों में उन कृत्यों को अंजाम नही दिया जा रहा जिन्हें सामाजिक रूप से अनैतिक की संज्ञा दी गयी है बल्कि अगर अखाड़ा परिषद से जुड़े कई नामी-गिरामी नामों की उनपर लगे अपराधिक मुकदमों के आधार पर विवेचना करें तो हम पाते है कि स्वंय को मोह-माया व संसारिकता से दूर बताने वाले संत समाज के एक बड़े हिस्से में कई प्रकार की बुराईयों व अव्यवस्थाओं का समावेश हो गया है जिसके चलते अध्यात्मिक शान्ति की नीयत से वानप्रस्थ आश्रम का चयन करने वाला कोई भी साधु प्रवृत्ति का व्यक्ति इन अखाड़ो या आश्रमों की ओर रूख नही करना चाहता। हांलाकि सभी संत या फिर संत समाज में पथ-प्रदर्शक की हैसियत रखने वाले अखाड़े भ्रष्ट नही है और समाज को एक नैतिक दिशा देने के साथ ही साथ विभिन्न कल्याणकारी व जनहितकारी योजनाओं के संचालन में भी इनका बड़ा योगदान है लेकिन संतो के बीच से महामण्डलेश्वर चुने जाने या फिर अन्य उपाधियाँ देने का तरीका तर्कसंगत व न्यायसंगत प्रतीत नही होता और इस तरह की उपाधियों को वितरित करते समय सामने आने वाले संत समाज के मतभेद व शंकराचार्य जैसे प्रतिष्ठित पद के लिऐ होने वाली मुकदमेंबाजी यह साबित करती है कि संतो के इस मान, पद व प्रतिष्ठा के खेल में कोई न कोई झोल-झाल अवश्य है। यह ठीक है कि तेजी से बदल रही सामाजिक व्यवस्थाओं के क्रम में संत समाज द्वारा विभिन्न तकनीकी सुविधाओं व आधुनिक जीवन शैली को अंगीकार करने की दौड़ को गलत नही ठहराया जा सकता और भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा होने के कारण उनके राजनैतिक सम्बन्धों या फिर खुलकर राजनैतिक गतिविधियों में भागीदारी लेने पर भी रोक नही लगायी जा सकती लेकिन संत समाज पर लग रहे आक्षेप व डेरो के साथ ही साथ मठो, मन्दिरों अथवा संत्सगों पर लगातार उठ रही उंगलिया यह इशारा कर रही है कि संत समाज के कर्णधारों व अग्रणी संतो ने स्वंय के साथ ही साथ अपने अनुगामियों के लिऐ भी एक आचारसंहिता का चयन करना ही होगा अन्यथा वह दिन दूर नही जब किसी भी भगवाधारी को देख सम्मान से झुक जाने वाली जनता की आँखों में एक अविश्वास व डर दिखाई देने लगेगा। यह माना कि देश-विदेश के कोने-कोने में फैले साधुओं व लाखों की तादाद वाले आश्रमों या मठो में चल रही धार्मिक या अन्य प्रकार की गतिविध्यिों पर नजर बनाये रखना अखाड़ा परिषद के लिऐ संभव नही है और न ही उसे कानूनन कोई अधिकार प्राप्त है कि वह धर्म के नाम पर होने वाली तमाम तरह की व्यवसायिक गतिविधियों पर रोक लगाने के परिपेक्ष्य में किसी भी प्रकार की आचार संहिता को घोषित करते हुऐ संतो को उसका अनुपालन करने के लिऐ बाध्य कर सके लेकिन समाज में आ रहे बदलाव को देखते हुऐ संत समाज के अग्रणियों या फिर अखाड़ा परिषद की जिम्मेदारी सिर्फ कुंभ क्षेत्र में डेरे आवंटित करने और फर्जी बाबाओं की सूची जारी करने से ही पूरी नही हो जाती बल्कि धर्म के ध्वज वाहक के रूप में वह सुनिश्चित करना इन संतों के प्रतिनिधियों का कर्तव्य बनता है कि तथाकथित अध्यात्म अथवा मोक्ष प्राप्ति के संसाधनो के रूप में समाज को वास्तव में क्या परोसा जा रहा है। यदि यह अखाड़े या अखाड़ा परिषद अपने नैतिक दायित्व को निभाने में असमर्थ है और संत समाज के आपसी झगड़े भी आपस में मिल बैठ कर या धार्मिक चर्चाओं से नही सुलझाये जा सकते तो फिर इस प्रकार की परिषदों या संगठनों को औचित्यहीन करार कर देना चाहिऐं तथा कानून को यह हक होना चाहिऐं कि वह विभिन्न डेरो, मठो या आश्रमों की प्रतिवर्ष अर्जित आय में से एक बड़ा हिस्सा राष्ट्र की कल्याणकारी योजनाओं के संचालन हेतु खर्च किये जाने की व्यवस्था सुनिश्चित करें। अब वक्त आ गया है कि भारतीय संत समाज खुद को कानून से उपर समझने की भूल करने के स्थान पर समाज व नवभारत निर्माण को लेकर कानून के सहयोगी की भूमिका अदा करें और चमत्कारों व अंधविश्वास के दम पर खुद को महिमामण्डित करने वाले संतो को सार्वजनिक मंचो पर बेनकाब करते हुऐ धर्म को सही अर्थो के साथ पुर्नस्थापित करने की परम्परा पर जोर दिया जाय लेकिन सवाल यह है कि माया, मान व प्रतिष्ठा के पीछे भागकर स्वंय को ईश्वर के समकक्ष साबित करने की धुन के साथ समाज को बरगला रहे तथाकथित संत यह सबकुछ इतनी आसानी के साथ होने भी देंगे अथवा नहीं।