आज भी शोषित व बेचारी नजर आती है महिला शक्ति
महिला दिवस के अवसर पर आयोजित विभिन्न सांस्कृतिक व रंगारंग कार्यक्रमों के बीच यह प्रश्न अपनी जगह मौजूद है कि क्या मंचो व विज्ञापनो के माध्यम से किये जाने वाले बड़े-बड़े दावों के बावजूद इस देश की महिलाओं को वह तमाम अधिकार प्राप्त हो रहे है जिनकी घोषणा व दावा विभिन्न संचार माध्यमों द्वारा सरकार व महिला सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास करने की घोषणा करने वाले स्वयं सेवी व महिला संगठनो द्वारा किया जाता है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि देश की आजादी के बाद कुछ मामलों में महिलाओं की दशा सुधरी है और फैशन के अलावा शिक्षा के क्षेत्र या रोजगार के मामले में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है लेकिन इस उपलब्धि के लिऐ महिला आन्दोलन या सरकारी प्रयास से कहीं ज्यादा वर्तमान माहौल व उदारवादी नीतियों के चलते बढ़ी विलासिता की वस्तुओं को जरूरतों को जिम्मेदार माना जा सकता है क्योंकि देश की आजादी से पहले या फिर अगे्रजों के शासनकाल व मुगलकाल में भी सम्पन्न घराने की महिलाओं के तत्कालीन माहौल के हिसाब से सजधज कर रहने व तत्कालिक जरूरतों के हिसाब से शिक्षा ग्रहण करने या रोजगार करने की पुख्ता खबरे दिखाई देती है और भारतवंशियों का इतिहास तमाम विदुषी महिलाओं व वीरागंनाओ की गवाही भी देता है। इसलिऐं इस तथ्य पर आश्चर्य नही किया जा सकता कि आजाद भारत में तेजी के साथ शिक्षित व कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ी है और महिलाओं ने अपनी जरूरत व चाहत के हिसाब से अपने ओढ़ने, पहनने के तौर तरीकों या खानपान को बदला है। हाॅलाकि हमारे परिवार व सीमित होते पारिवारिक रिश्तों का समाज पर तमाम तरह का दुष्प्रभाव भी बढ़ा है लेकिन यहां मूल विषय की ओर चलते हुये हम सिर्फ महिला सशक्तिकरण व जागरूकता से जुड़े मुद्दों पर ही बात करते है और इन विषयों पर गम्भीरता से मनन करने पर हम पाते है कि महिला अधिकार व महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों के मामले में हम अभी भी मोमबत्ती जलाने तक ही सीमित है। किसी घटना या दुर्घटना के घटित हो जाने के बाद सरकार, स्थानीय प्रशासन अथवा व्यवस्था के खिलाफ अपने गुस्से को जाहिर करने की कला में तो हम पारंगत हो चुके है और बलात्कार या अन्य घृणित यौन अपराधों के घटित हो जाने के बाद अपराधी के लिऐ कड़ी से कड़ी सजा के रूप में फांसी की मांग करना भी एक सामान्य सा रिवाज हो गया है लेकिन इस तरह के अपराध घटित न होने देने या फिर महिलाओं के साथ सरेआम होने वाली छेड़छाड़ या अभ्रदता को लेकर हम सतर्क नही है और न ही हमारी सरकारी व्यवस्था इन तमाम विषयों पर बने कायदें-कानूनों का अनुपालन कराने की दिशा में सर्तक ही दिखाई देती है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि वर्ष में एक बार महिला दिवस, बेटी बचाओं दिवस या ऐसे ही अन्य आयोजन करने की औपचारिकताओं के अलावा हम, हमारा समाज या हमारा कानून अभी भी महिलाआंे की संवेदनाओं व दुख-दर्द को भली-भांति नही समझ पाया है और शराबी पति के चलते अक्सर परिवारों में होने वाली मारपीट, वैश्यावृत्ति, लड़कियों को शादी का आश्वासन देकर उनसे लंबे समय तक शारिरिक सम्बन्ध बनाये रखने या फिर सड़क चलती महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ या छींटाकशी जैसे मामलों में पर्याप्त कानून होने के बावजूद भी महिलाओं को न्याय नही मिल पाता है। इसे कानून व्यवस्था की कमी कहें या फिर समाज पर हावी पुरूषवादी मानसिकता का असर लेकिन यह सच है कि किसी भी युवती के साथ होने वाले जघन्य बलात्कार व हत्या जैसे मामले में सामान्यतः व्यवस्था के खिलाफ उमड़ने वाला जनाक्रोश, छेड़छाड़, वैश्यावृत्ति, छींटाकशीं या फिर विवाहोत्तर संबंध जैसे मामलों में महिलाओं के खिलाफ ही खड़ा दिखाई देता है और थोड़ी बहुत हिम्मत कर अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिऐ आगे आने वाली महिलाओं को सामाजिक रूप से कई तरह की नसीहतों व तानो का सामना करना पड़ता है। यह ठीक है कि समाज में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है और कुछ मामलों में देखा गया है कि महिलाऐं अपनी कानूनी ताकत का बेजा इस्तेमाल भी करती है लेकिन अधिकाशतः यह देखा जाता है कि पर्याप्त कानूनों के बावजूद कानून के रखवालों की सही सलाह व संरक्षण न मिलने के चलते महिलाऐं ताकतवर समझे जाने वाले पुरूष वर्ग से प्रताड़ित होना अपना भाग्य समझ लेती है और महिला दिवस जैसे अवसरों पर लगाया जाने वाला महिला अधिकार व सशक्तिकरण का नारा बनावटी प्रतीत होता है। कानून ही अपनी सीमाऐं व मजबूरियां है और किसी भी सरकारी व्यवस्था के लिऐ यह संभव नही है कि वह देश के हर नागरिक को सुरक्षा प्रदान करने के लिऐ उसके साथ या विभिन्न समूहों को सुरक्षाकर्मी प्रदान करें लेकिन हमारें सामाजिक कार्यकर्ता व महिला सशक्तिकरण का ढोल पीटने वाले तमाम महिला संगठन अगर चाहें तो आसानी से यह सब कुछ कर सकते है। अफसोसजनक है कि तमाम जिम्मेदार संगठन व इन विषयों पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले तमाम जनसमूह इन तमाम विषयों को उठाने के स्थान पर विश्व महिला दिवस जैसे अवसरों पर गोष्ठियों व सेमीनारो के आयोजनों में व्यस्त है और महिला एकता व अधिकार का नारा लगा अपनी राजनैतिक तृष्णा को पूरा करने की कोशिशें जारी है।