विरोध के बढ़ते सुरों के बीच | Jokhim Samachar Network

Friday, April 26, 2024

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विरोध के बढ़ते सुरों के बीच

अपना महत्व खोती दिख रही हैं हमारी परम्पराएं, संस्कृति एवम् तीज-त्योहार।
क्रिसमस के बाद नए साल को लेकर जनता का उत्साह उफान पर है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि बाजारवादी मानसिकता पर टिके इस तरह के पर्व व उत्सवों ने पिछले कुछ वर्षों में भारतीय जनमानस पर व्यापक व समग्र प्रभाव डाला है लेकिन इधर पिछले कुछ अंतराल में विदेशी सभ्यता व संस्कृति में रंगे-बसे इन पर्वों व आयोजनों की मुखालफत भी तेज हुई है और खुद को राष्ट्रवादी विचारधारा का संरक्षक व संवाहक घोषित कर चुकी एक राजनैतिक ताकत की शह पर इस तरह के आयोजनों व उत्सवों के विरोध का सिलसिला तेज हुआ है। वैसे अगर देखा जाय तो भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के क्रम में इस तरह के आयोजनों के लिए कोई जगह नहीं है और न ही हमारे देश का मौसम व परिस्थितियां नयी पीढ़ी के बीच तेजी से लोकप्रिय हुए इन आयोजनों को मनाने की इजाजत ही देती हैं लेकिन देश की आजादी के बावजूद भारतीय जनमानस पर स्पष्ट दिखने वाला अंग्रेजियत का प्रभाव और सरकारी तंत्र द्वारा अंगीकार की गयी अंग्रेजीपरस्त कार्यशैली हमें मजबूर करती है कि हम जाने-अनजाने में इन पर्वों व आयोजनों के जरिये लागू होने वाली व्यवस्था का हिस्सा बनें। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को अंग्रेज सरकार से मिली राजनैतिक आजादी के बावजूद ईसाई मिशनरी का हमारी शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं व सरकारी कामकाज की भाषा में हस्तक्षेप स्पष्ट दिखाई देता है और इन पिछले सत्तर सालों में देश के लगभग हर कोने में खुले अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने हमारी सभ्यता व संस्कृति को तेजी के साथ प्रभावित किया है। मजे की बात यह है कि ईसाई मिशनरी या फिर अन्य पूंजीपति समूहों द्वारा खोले गए इन तमाम स्कूलों में न सिर्फ छात्र देश के बहुसंख्यक वर्ग से हैं बल्कि अधिकांश अध्यापक भी उसी वर्ग व संस्कृति से ताल्लुक रखते हैं जो भारत की बहुसंख्यक जनता का धर्म या संस्कृति है लेकिन इन स्कूलों में प्रार्थना सभाओं से लेकर तीज-त्योहारों आदि तक के मामले में एक विशेष अंदाज व एक अलग संस्कृति की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि स्वयं को अन्य से अलग दिखाने के चक्कर में इन तमाम स्कूलों में भारतीय परम्पराओं व सभ्यता के अनुपालन को कतई नकारा जाता है। अगर सरकार की स्थिति पर गौर करें तो हम पाते हैं कि आजादी के बाद इन सत्तर सालों में सरकारी तंत्र जनसामान्य की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार व ऐसे ही अन्य मूलभूत विषयों से तेजी के साथ दूरी बनाता दिख रहा है और देश में तेजी से बढ़ रही आबादी के बावजूद व्यापक जनहित से जुड़े इन तमाम विषयों पर सरकार का तेजी से कम होता दिख रहा ध्यान आम आदमी को खलता है। उपरोक्त के अलावा सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में अंग्रेजी को दी गयी सर्वस्वीकृति अभिभावकों को मजबूर करती है कि वह अपने नौनिहालों को इन अंग्रेजी मानसिकता के स्कूलों एवं काॅलेजों का हिस्सा बनने के लिए विवश करे और कालान्तर में यह विवशता सांस्कृतिक अतिक्रमण का रूप लेकर घर या परिवार का हिस्सा बन जाती है। दैनिक जीवन व सामान्य कामकाज में अंग्रेजी भाषा व अंग्रेजी कैलेण्डर के तेजी से बढ़ा प्रभाव ने जन सामान्य को मजबूर किया है कि वह अपनी सांस्कृतिक विरासत व परम्पराओं को छोड़कर समय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलें और अपनी भावी पीढ़ी को समय के साथ कदमताल करता हुआ देखने के लिए उसे अंग्रेजियत के रंग में रंगने को मजबूर करे। नतीजतन अंगे्रजी दिन, महीने व तारीखें हमारी सामान्य दिनचर्या का हिस्सा है और हम अपनी संस्कृति व सभ्यता से तेजी के साथ विमुख होते जा रहे है। ऐसा नहीं है कि सरकार भारतीय संस्कृति, सभ्यता अथवा अवधारणाओं को बचाने के लिए प्रयासरत् नहीं है या फिर सामाजिक व राजनैतिक संगठनों द्वारा इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि संसाधनों की सीमित मात्रा एवं सरकारी कामकाज में भारतीय तिथियों, महीनों व उत्सवों का सीमित उल्लेख होने के कारण यह तरीका आम आदमी को प्रभावित करने में असफल दिखाई देता है या फिर हम यह भी कह सकते हैं कि देश को मिली राजनैतिक आजादी के बावजूद हमारे नीति-निर्धारकों द्वारा अंगीकार किया गया अंग्रेजों की पद्धति से ही मिलती-जुलती व्यवस्था के सहारे देश चलाने का तरीका हमें मानसिक तौर पर आजाद घोषित करने में पूरी तरह नाकामयाब रहा है जिसके परिणामस्वरूप क्रिसमस व अंग्रेजी नया वर्ष जैसे अवसर सीधे तौर पर हमारे परिवेश व संस्कृति को प्रभावित करते प्रतीत होते हैं। हालांकि यह कहना कठिन है कि भारतीय समाज व उसके तौर-तरीकों में तेजी से आते दिख रहे इस बदलाव से हमारी समाजिकता व अन्य सांस्कृतिक व्यवस्थाएं किस हद तक प्रभावित होंगी और हमारा समाज अंग्रेजियत के रंग में रचती-बसती जा रही अपनी नयी पीढ़ी में तेजी से आते दिख रहे इस परिवर्तन से किस हद तक प्रभावित होगा लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि शिक्षा व्यवस्था पर जबरन अथवा सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ यह अतिक्रमण हमारी दैनिक दिनचर्या व सांस्कृतिक मान्यताओं को पूरी तरह प्रभावित कर रहा है और हम अपनी बोली, भाषा व संस्कृति से तेजी के साथ विमुख हो रहे हैं। हमने देखा कि हमारी पौराणिक भाषा संस्कृत तेजी से विलुप्ति की कगार पर है और इसे धार्मिक कर्मकांडों व विशेष अवसरों पर प्रयोग में लायी जाने वाली भाषा मान लिया गया है जबकि हिन्दी और उर्दू समेत अन्य तमाम क्षेत्रीय व स्थानीय भाषाएं भी तेजी से अपना स्वरूप बदल रही हैं लेकिन सरकार इसे लेकर चिंतित नहीं है क्योंकि सरकारी कामकाज व दैनिक उपयोग की भाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रभुत्व व स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है और यह तय है कि अगर हम अपनी भाषा को लेकर संवेदनशील नहीं होंगे तो हमारी संस्कृति व परम्पराएं स्वतः ही हमसे दूर होती चली जाएंगी। लिहाजा नववर्ष या क्रिसमस जैसे अवसरों को किसी धर्म या जाति से जोड़कर इसके राजनैतिक बहिष्कार का नारा देने वाली राजनैतिक मानसिकता ने यह समझना चाहिए कि वर्तमान में समस्या सिर्फ यह नहीं है कि हमारी संस्कृति व परम्पराओं का अनुपालन करने वाले लोग क्रिसमस व नये साल के अवसर पर आनंद में मदमस्त होकर अपना धर्म व प्राथमिकताएं भूल गए हैं बल्कि असल समस्या यह है कि सरकारी तंत्र के गलत फैसलों व उदासीन रवैय्ये के चलते हम अपनी भाषा व परम्पराओं से विमुख होते जा रहे हैं और इस विमुखता को अमलीजमा पहनाने में हमारी शिक्षण व्यवस्था का अहम् किरदार है। यह ठीक है कि नई पीढ़ी को हमारी मान्यताओं, रीति-रिवाज व संस्कृति से रूबरू कराने की दिशा में कुछ सामाजिक संगठन अच्छा कार्य कर रहे हैं और देश की युवा पीढ़ी को अपने साथ जोड़कर चलने के लिए कुछ सामाजिक संगठनों ने शैक्षणिक व्यवस्थाओं व शिक्षण संस्थानों के मामले में भी अपनी दखलंदाजी बढ़ाई है लेकिन धनाभाव व सरकारी व्यवस्थाओं के अनुरूप न होने के चलते यह प्रयास सीमित है और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वक्त की जरूरत के हिसाब से अंग्रेजी भाषा ज्ञान के मामले में स्पष्ट दिखने वाली इन संस्थान के छात्रों की कमजोर पकड़ इन्हें पहले ही मोर्चे पर हताश व निराश कर देती है। इसलिए सरकार व सरकार में बैठे नीति-निर्धारकों को चाहिए कि वह इन तमाम संदर्भों में न सिर्फ अपना रूख स्पष्ट करे बल्कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता व परम्पराओं पर वैचारिक हमले की तरह देखे जा रहे क्रिसमस व अंग्रेजी नववर्ष जैसे अवसरों को लेकर एक स्पष्ट रणनीति भी बनाए। हमने देखा, समझा और महसूस किया है कि सिर्फ अवसर आने पर कुछ तीज त्यौहारों व मान्यताओं का विरोध करने के स्थान पर हमें उन तौर-तरीकों व व्यवस्थाओं को बदलने का प्रयास करना होगा जो हमारी संस्कृति, सभ्यता व मान्यता के लिए खतरा बनते जा रहे हैं और हमारी युवा पीढ़ी जिनके प्रभावों को अपनी जीवनशैली में अंगीकार करती जा रही है।

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