न्याय व्यवस्था की मंशा पर सवाल उठाने वाली कारणी सेना को सही व लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे को लेकर चिन्ता व्यक्त करने वाले न्यायाधीशों को गलत साबित करने की कोशिशें तेज
हिन्दुस्तानी आवाम का एक हिस्सा खुश है कि सरकार द्वारा तीन तलाक को गैरकानूनी करार दिये जाने के बाद हज यात्रियों को दिये जाने वाले अनुदान के संदर्भ में बड़ा फैसला लेकर देश को समान नागरिक अधिकार की ओर ले जाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं और न्यायालय ने भी उत्तरप्रदेश से जुड़े एक मामले में अपना फैसला देते हुए बिना इजाजत धर्मस्थलों पर लगाये गये लाउडीस्पीकरों को बंद करने का निर्णय सुनाया है लेकिन आश्चर्य का विषय है कि देश के किसी भी हिस्से में सरकार अथवा न्यायालय के इन फैसलों के खिलाफ हिंसा या उग्र प्रदर्शन नहीं है और न ही किसी कौम अथवा जाति विशेष के लोग इसे अपनी निजता या धार्मिक मामलों में हमला बताते हुए सरकार अथवा न्यायालय के खिलाफ सड़कों पर उतरे हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जाति, सम्प्रदाय एवं मजहब की राजनीति करने वाली हमारे देश की तमाम राजनैतिक ताकतें पिछले कुछ वर्षों में धार्मिक रूप से बहुसंख्यक समुदायों को यह समझाने में कामयाब रही है कि उनके वोट बैंक के रूप में संगठित न होने और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अन्य सम्प्रदायों के प्रति उदार होने के कारण न सिर्फ उनकी संख्या तेजी से घट रही है बल्कि धर्म को सर्वोपरि मानने वाले कुछ देश विरोधी सम्प्रदायों की अपनी कौम के आधार पर आतंकी व राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलिप्तता के चलते मानवता को एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है लेकिन सरकार अथवा न्यायालय द्वारा हाल ही में लिए गए कुछ निर्णयों के इस कौम की मान्यताओं के विपरीत या फिर वर्तमान तक चल रही प्रथाओं के उलट होने के बावजूद कहीं किसी प्रकार की अराजकता का न होना यह दर्शाता है कि सत्ता के शीर्ष पर राजनैतिक कब्जेदारी के लिए इस कौम विशेष को लेकर जो अफवाहें या चर्चाएं चलायी जाती रही हैं वह अक्षरतः सही नहीं है जबकि स्वयं को सहिष्णु व उदार साबित करने की कोशिशों में जुटा रहने वाला एक दूसरा तबका विचारधारा के नाम पर केन्द्र व अन्य राज्यों की सत्ता पर काबिज होने के बाद कुछ इस तरह आचरण कर रहा है कि मानों कानून या संविधान की उसकी नजर में कोई इज्जत ही न हो। वर्तमान में इसका सबसे बड़ा उदाहरण तथाकथित कारणी सेना द्वारा फिल्म पद्मावत् (पूर्व नाम पद्मावती) के समस्त राज्यों में एक साथ प्रसारण के संदर्भ में उच्चतम् न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देश के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों व अराजकता का है। कितना आश्चर्यजनक है कि कुछ लोग धर्म के नाम पर संगठित होकर कानून को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं और अपनी मर्जी के खिलाफ जाने वाले विचारकों, चिन्तकों, लेखकों या फिर कलाकारों को देशद्रोही के तमगे से नवाजने से उन्हें कोई ऐतराज नहीं है लेकिन जब कानून के फैसले उनके खिलाफ जाने लगते हैं या फिर संवैधानिक शक्तियों से सुसज्जित कोई बड़ा चेहरा उनकी विचारधारा के आधार पर चलने वाली सरकार की मंशा पर सवाल उठाता दिखता है तो इस तरह की तमाम ताकतें उग्र रूप धारण कर तांडव करने लगती हैं या फिर सवाल उठाने वाले व्यक्ति व पद की गरिमा को नजरंदाज कर उस पर निर्लज्जता की हद के साथ वैचारिक हमले शुरू कर दिये जाते हैं। यह माना कि पूर्ववर्ती सरकारों ने भी अपना वोट बैंक बनाये रखने के लिए इस तरह के तमाम पैंतरों का इस्तेमाल किया था और अपेक्षाकृत रूप से संख्या बल में कम एक कौम विशेष को अल्पसंख्यक का दर्जा देकर कई विशेषाधिकार दिए थे लेकिन पूर्ववर्ती सरकारों ने कभी इस तरह की व्यवस्थाओं को चुनावों से इतर चर्चा का विषय नहीं बनने दिया और इस तरह सत्ता पर काबिज होने वाली सरकारों का तमाम ध्यान विकास कार्यों एवं अन्य तमाम तरह की योजनाओं को बनाने में ही गुजरा किंतु वर्तमान में हालात पूरी तरह बदले हुए हैं और पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुई भाजपा के लिए उसका हिन्दुत्ववादी नारा ही परेशानी का सबब बनता जा रहा है। हालांकि अपने रणनैतिक कौशल के बल पर केन्द्र के बाद विभिन्न राज्यों की भी सत्ता पर काबिज होने वाली भाजपा ने अभी तक न सिर्फ उग्र हिन्दुत्व समर्थकों व उनके नारों का फायदा ही उठाया है बल्कि अपने छद्म राष्ट्रवाद के नारों और विरोधियों पर राष्ट्रद्रोही होने का आरोप जड़ देने की रणनीति के चलते वह जनसामान्य के एक बड़े हिस्से का ध्यान विकास सम्बन्धी वादों व चुनाव के समय दिए गए नारों से हटाने में भी कामयाब रही है लेकिन अब स्थितियां तेजी से बदल रही हैं और कारणी सेना द्वारा फिल्म पद्मावत के प्रदर्शन को लेकर किए जा रहे विरोध, कट्टर हिन्दूवाद के नाम पर समाज में बढ़ रहा धार्मिक आधार पर उत्पीड़न, गाय को मुद्दा बनाकर किए जा रहे धर्म व जाति के नाम पर हमले, जैसे तमाम घटनाक्रम इस बात का सबूत है कि भाजपा की सत्ता पर कब्जेदारी के बाद देश की अदालत व संविधान को एक धर्म विशेष के जरिये हांकने की कोशिशें कई स्तरों पर शुरू हो गयी हैं। भारत के संविधान की आत्मा इस तरह के अत्याचार की इजाजत नहीं देती और न ही सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनैतिक ताकतों के लिए यह सम्भव है कि सदन में प्राप्त पूर्ण बहुमत के बावजूद वह इस दिशा में ज्यादा आगे बढ़ सके लेकिन भाजपा को फर्श से उठा कर अर्श तक पहुंचाने वाली धार्मिक मानसिकता राजनीति की बिसात पर इस कब्जेदारी के बाद किसी भी कीमत पर अयोध्या में राममंदिर का निर्माण चाहती है और देश की सत्ता पर काबिज होने के साथ ही साथ जम्मू कश्मीर की सरकार में भाजपा की भागीदारी के बाद उसे संविधान द्वारा प्रदत्त धारा 370 को समाप्त करना बिल्कुल आसान सा लगता है। लिहाजा उग्र हिन्दूवादी नेता प्रवीण तोगड़िया जैसे नेता सत्ता के शीर्ष प्रतिष्ठानों को खुद के लिए खतरनाक बताते हुए अपनी जान को खतरा महसूस करने लगे हैं और खुद को भाजपा के ज्यादा नजदीक मानने वाले सवर्ण हिन्दुओं व दलितों के बीच एक नया जातीय संघर्ष जन्म लेता दिख रहा है। इन हालातों में सत्ता के शीर्ष प्रतिष्ठानों पर काबिज राजनैतिक व्यक्तित्वों के लिए यह फैसला कर पाना वाकई कठिन है कि समस्त राष्ट्रवादी शक्तियों को जाति, सम्प्रदाय अथवा धर्म के प्रतिबंधों से अलग हटकर देखा जाये और किसी भी फैसले पर पहुंचने से पहले या फिर संवैधानिक ताकत का इस्तेमाल किए जाने पूर्व यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक हो कि समाज को बांटने वाली ताकतें इस व्यवस्था का लाभ तो नहीं उठाना चाहती लेकिन अफसोसजनक है कि सरकार भी सिर्फ शोशेबाजी के आधार पर काम कर रही है और उन तथ्यों को जनता के सामने लाने से बचा जा रहा है जिनके चलते पूर्ववर्ती सरकारों के द्वारा लिए गए निर्णयों को इतनी आसानी से बदला जाना संभव हो पाया है। यह माना कि राजनैतिक दल व इनके द्वारा संचालित की जाने वाली सरकारें अपने चुनावी गणित को ध्यान में रखते हुए ही तमाम फैसले लेती है और इन दलों के कार्यकर्ता रूपी समर्थकों को मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार किया जाता है कि वह सरकार के हर गलत या सही फैसले को राजनैतिक रूप से अपने फायदे वाले नजरिये से ही देखे लेकिन इधर पिछले कुछ समय में सरकार द्वारा लिए गए नोटबंदी व जीएसटी लागू करने जैसे निर्णयों के व्यापार व रोजगार पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभावों को देखते हुए सत्तापक्ष के कुछ पुराने समर्थक नाराज बताये जा रहे हैं और सरकार का प्रयास उन समर्थकों को अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए ज्यादा साम्प्रदायिक व अपने सिद्धांतों या नीतियों के प्रति ज्यादा समर्पित दिखने का है। इसलिए यह कहना कठिन है कि मौजूदा सरकार लोकसभा के चुनावों के लिए जनता के बीच जाने से पहले अपनी कार्यशैली में कुछ सुधार लायेगी और व्यापक जनहित को ध्यान में रखते हुए विकास कार्यों व अन्य राष्ट्रीय या स्थानीय स्तर की ज्वलंत समस्याओं को सामान्य जनचर्चाओं का विषय बनने दिया जाएगा।