पंगु हो चुकी व्यवस्थाओं के इस दौर में | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 27, 2024

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पंगु हो चुकी व्यवस्थाओं के इस दौर में

सड़क के किनारे व खुले आसमान के नीचे बच्चे जनने को मजबूर हैं उत्तराखंड की गर्भवती महिलाएं
उत्तराखंड राज्य निर्माण के इन सत्रह वर्षों बाद भी सड़क के किनारे या झूला पुल पर और खुले आसमान के नीचे दुपट्टों व साड़ियों को पर्दा बना बच्चे जनने को मजबूर पहाड़ की नारी, व्यवस्था की कमजोरी बखान कर रही है लेकिन हमारा सरकारी तंत्र तथाकथित विकास के दिवास्वप्न दिखाते हुए शासन की नीतियों व सरकार के फैसलों का बखान करने में लगा है और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर काबिज राजनैतिक दलों व नेताओं ने अपनी मनमर्जी को ही जनतंत्र मान लिया है। मौजूदा सरकार को ठीक तरीके से सत्ता तंत्र संभाले अभी छह माह भी नहीं हुए कि पहाड़ में भूखमरी से मौत व किसानों की आत्महत्या के बाद यह तीसरी बड़ी घटना है जो पहाड़ के हालात व शासक वर्ग की कमियों का बखान कर रही है लेकिन मौजूदा सरकार शराब नीति व खनन के संदर्भ में लिए जाने वाले फैसलों से बाहर नहीं निकल पा रही और नीति-निर्धारकों का बचा-खुचा समय शासन तंत्र में फेरबदल करने या फिर तमाम नौकरशाहों के बीच अपने मतलब का विभागीय सचिव, प्रमुख सचिव या मुख्य सचिव ढूंढने में गुजर जा रहा है। ऐसा नहीं है कि यह तमाम व्यवस्थाएं अभी हाल-फिलहाल में ही खराब हुई हो या फिर व्यवस्थागत् मामलों में साफ दिख रही कमियों के लिए सिर्फ मौजूदा सरकार ही दोषी हो लेकिन राज्य में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार सत्ता में काबिज होने के बावजूद साफ दिखाई दे रहा सत्ता पक्ष का नकारापन एवं चुनावी घोषणाओं को लेकर प्रदर्शित की जा रही उदासीनता जनता के बीच आक्रोश का कारण बनी हुई है और सदन में पूर्ण बहुमत व विकास को लेकर डबल इंजन के दावे के बावजूद सरकार को पूरी तरह असफल माना जा रहा है। हालांकि यह कहना गलत होगा कि राज्य की मौजूदा दशा के लिए सिर्फ भाजपा जिम्मेदार है और सत्तापक्ष के नकारेपन की वजह से हम आज एक ऐसे दोराहे पर खड़े हैं कि इस प्रदेश का मूल व स्थानीय निवासी जन सुविधाओं व व्यवस्थाओं से तंग आकर यहां से पलायन कर रहा है लेकिन उत्तराखंड राज्य गठन का श्रेय लेने को बेताब नजर आने वाले भाजपाई नेताओं ने यह समझना होगा कि अपनी जल्दबाजी व सत्ता लोलुपता के चलते जो बुनियाद उन्होंने रखी है उसका खामियाजा एक लंबे समय तक यहां की जनता ने भुगतना होगा और हो सकता है कि अपने अधिकारों पर लगातार हो रहे कुठाराघात से कुंठित व स्थानीय संसाधनों पर कब्जेदारी को लेकर शुरू हो चुकी स्थानीय व बाहरी के बीच की जंग, इस राज्य में एक ऐसे संघर्ष को जन्म दे कि देर-सबेर एक नये आंदोलन की जरूरत महसूस होने लगे। यह ठीक है कि वर्तमान परिस्थितियों में पहाड़ का स्थानीय निवासी या फिर यहीं पला-बढ़ा युवा भी साधन सम्पन्न होने अथवा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने लोगों के बीच काम नहीं करना चाहता और यह एक बड़ी वजह है जिसे सरकार अपनी कमियां ढापने या फिर सुदूरवर्ती क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं को बहाल करने की बात करने वाले सामाजिक संगठनों पर अमोघ अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती रहती है लेकिन अगर आंकड़ों की वास्तविकता पर जाएं तो हम पाते हैं कि इन सत्रह सालों में सरकार द्वारा पहाड़ की समस्याओं के जनतांत्रिक समाधान की कोई कोशिश ही नहीं की गयी और इस पहाड़ी राज्य का दुर्भाग्य रहा कि इसके विकास को लेकर नारे गढ़ने वालों से लेकर मुख्यमंत्री चुनने वालों तक ने हर नीतिगत फैसले व रणनीति निर्धारण का जिम्मा ऐसे लोगों को दिया जिनका इन पहाड़ों से कोई लेना-देना नहीं था। नतीजतन पहाड़ के अंतिम छोर तक विकास की रोशनी पहुंचाने के नाम पर गढ़ी जा रही अनेक योजनाएं या तो सचिवालय की फाइलों में कैद हैं या फिर इन्हें सफेद हाथी करार देकर इतना पैसा खर्च कर दिया गया है कि इनमें सिवाय भ्रष्टाचार के कुछ नहीं दिखता लेकिन इस सबके बावजूद राजनेता, राजनैतिक दल व तथाकथित रूप से आन्दोलनकारी कहलाना पसंद करने वाली विचारधारा इन तमाम विषयों पर मौन है और छोटे-छोटे, मन को झकझोर देने वाले किस्सों पर अपने विपक्ष की कुछ खिंचाई करने के बाद यह तबका एक बार फिर सत्ता के चीरहरण के खेल में व्यस्त हो जाता है तथा आपसी मिलीभगत व बंदरबांट से जनता की जेबें काटने वाली कुछ नयी योजनाओं पर विचार-विमर्श का एक नया सिलसिला चल निकलता है। यह माना कि वर्तमान में उत्तराखंड की प्रतिव्यक्ति आय देश के तमाम क्षेत्रों के मुकाबले अधिक है और राज्य में होने वाली शराब बिक्री का आंकड़ा यह बताता है कि साधन सम्पन्नता व विलासिता के मामले में होने वाले खर्चे को लेकर यहां के लोग डरे हुए नहीं हैं लेकिन इस सबके बावजूद सरकार यहां की जनता को वह तमाम व्यवस्थाएं उपलब्ध नहीं करा पा रही जो एक आरामदायक व स्वावलंबी जीवन के लिए आवश्यक मानी जाती हैं। भारत के विभिन्न हिस्सों व सुदूरवर्ती देशों में बसे उत्तराखंडियों ने विभिन्न माध्यमों से सरकारी तंत्र पर दबाव डालकर यह प्रयास किया कि वह राज्य के भीतर हवाई सेवाओं को बहाल करे तथा आपदा व अन्य कारणों के चलते प्रतिवर्ष होने वाले सड़कों के क्षय को सरकारी अनुदान के रूप में शामिल करते हुए सुदूरवर्ती पहाड़ी क्षेत्रों में सस्ते, सुगम व सुलभ आवागमन के साधन विकसित किए जाए लेकिन इस तरह की योजनाओं में कमीशनबाजी व दलाली की कोई संभावनाएं न दिखने के कारण यह अधर में ही लटकी रह गयी और बीमार, बेसहारा या गर्भवती महिलाओं को तत्काल प्रभाव से मिल सकने वाली बड़ी राहत नेताओं के भाषणों व आश्वासनों में खोकर रह गयी। यह माना कि एक साधनविहीन व कर्जदारी से डूब रही व्यवस्था के लिए यह संभव नहीं है कि वह अपनी रियाया के लिए हर स्तर पर निशुल्क व घटनास्थल के नजदीक इलाज जैसी तमाम व्यवस्थाएं उपलब्ध कराएं और यह भी माना जा सकता है कि सुविधाओं की कमी व संसाधनों के आभाव के चलते योग्य व अनुभवी चिकित्सक सुदूरवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानांतरित किए जाने की स्थिति में नौकरी छोड़ना या फिर निजी रूप से काम करना ज्यादा पसंद करते हैं लेकिन क्या सरकार व सरकारी अस्पताल इस स्थिति में है कि वह मैदानी इलाकों और राजधानी देहरादून जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी अपनी सुविधाएं दे रहे हैं। यह एक बड़ा सवाल है तथा इस पर गंभीरता से गौर करने पर हम पाते हैं कि राज्य सरकार के आधीन काम करने वाले तमाम सरकारी अस्पताल वर्तमान में रैफरिंग सेंटर के रूप में काम कर रहे हैं। इन हालातों में यह कहना गलत होगा कि एक गर्भवती महिला के मामले में सामने आयी यह चूक प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है न कि सत्ता के सामयिक प्रतिष्ठानों की असफलता या फिर शासन तंत्र की नाकामी का और अगर सरकार समर्थक या फिर सत्ता के उच्च सदनों पर बैठे राजनेता व नौकरशाह यह कहकर सरकारी पक्ष का बचाव करते हैं तो जाहिर है कि वह देश व दुनिया को उत्तराखंड के सरकारी सच से वाकिफ ही नहीं होने देना चाहते।

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