असंवेदनशीलता की हद | Jokhim Samachar Network

Thursday, April 25, 2024

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असंवेदनशीलता की हद

सरकारी मनमर्जी के आगे नतमस्तक जनता सरकार के हर गलत अथवा सही फैसले को मानने के लिए मजबूर
ग्रामीण क्षेत्रों व कतिपय ग्राम सभाओं को नगरपालिका व नगर निगम क्षेत्रों में शामिल करने के विरोध में उठ रहे सुरों को दरकिनार करते हुए उत्तराखंड सरकार ने अपने मंत्रीमंडल के माध्यम से दो और नगरपालिकाओं को नगर निगम में तब्दील करने का फैसला लिया है। सरकार के इस फैसले के बाद राज्य में नगर निगमों की संख्या आठ हो जाएगी और उत्तराखंड जैसे छोटे प्रदेश के लिए मानकों में फेरबदल कर नगरपालिकाओं को नगर निगम में तब्दील करने का यह खेल आम जनता को किस तरह राहत देने वाला होगा, इस बारे में अभी कोई खबर नहीं है। उत्तराखंड राज्य के गठन के वक्त राज्य में सिर्फ एक नगर निगम था और आबादी के मानकों के अनुरूप व राजधानी के विस्तारीकरण की सम्भावनाओं को देखते हुए इस नगर निगम क्षेत्र के सीमा विस्तार का फैसला काफी हद तक तर्कसंगत भी माना जा सकता था लेकिन राज्य में बनने वाली तथाकथित रूप से जनहितकारी सरकारों ने राजनैतिक तुष्टीकरण की दृष्टि से नगरपालिका हल्द्वानी, हरिद्वार, काशीपुर, रूड़की व रूद्रपुर को नगर निगम का दर्जा दे दिया और अब कोटद्वार व ऋषिकेश भी इसी कतार में आकर खड़े हो गए हैं। एक तरह से अगर देखा जाय तो नगरपालिकाओं को नगर निगम में तब्दील करने के सरकार के इस फैसले के बाद उत्तराखंड राज्य का तमाम मैदानी व भाबर वाला इलाका नगर निगम में तब्दील हो चुका है और मजे की बात यह है कि जनसुविधाओं के दृष्टिकोण से नगरपालिका या नगर निगम की कार्यशैली में ऐसा कोई बड़ा अंतर नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि व्यापक जनहित को ध्यान में रखते हुए सरकार का यह फैसला तार्किक व आम जनता को राहत पहुंचाने वाला था जबकि पर्यावरण संरक्षण, आर्थिक दृष्टिकोण अथवा अन्य दूरगामी प्रभावों की दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि नगरपालिका व नगर निगमों के सीमा विस्तार एवं नये निगमों के गठन की यह रणनीति तेजी के साथ न सिर्फ ग्रामीण जनजीवन को बल्कि कृषि हेतु उपलब्ध उपजाऊ भूमि को लील रही है और सरकार के इस तरह के फैसलों के बाद कुछ समय तक भूमाफिया जमीनों के काले कारोबार के जरिए नये महल भले ही खड़े कर लें लेकिन व्यापक परिपेक्ष्य में सरकार का यह फैसला सम्पूर्ण मानव जाति के लिए नुकसानदायक साबित होगा। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि उत्तराखंड राज्य के कुल कृषि उत्पादन में राज्य के मैदानी व भाबर वाले इलाके का बड़ा योगदान है और पहाड़ के सीढ़ीनुमा खेत लगातार बढ़ते जा रहे आपदा के दंश के चलते बंजर होकर जंगलों में तब्दील होते जा रहे हैं। इन हालातों में राज्य को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए जरूरी था कि सरकार कृषि योग्य भूमि को अन्य प्रयोगों में लाने से रोकने के उपाय करती और कानूनों को कड़ा कर अवैध कब्जों व सड़कों के किनारे बसने वाली बस्तियों पर रोक लगाकर आदर्श गांव की परिकल्पना को साकार किया जाता लेकिन सरकार खुद ही व्यापारी बन जनता को विकास के झूठे सपने बेच भूमाफिया व प्राॅपर्टी डीलरों को फायदा पहुंचाना चाहती है और इसके लिए नियम व कायदे कानूनों को ताक में रखकर फैसले लेने में उसे कोई हर्ज महसूस नहीं होता। यह माना कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत सत्ता के विकेन्द्रीकरण को दृष्टिगत रखते हुए छोटी प्रशासनिक इकाईयों की मजबूती व इनके जनतांत्रिक स्वरूप पर बल दिया गया है तथा स्थानीय निकायों में नगर निगम का अपना एक अलग ही स्थान है लेकिन जहां पर सवाल सिर्फ सुविधा का है तो नगर निगम के गठन अथवा स्थानीय निकायों के सीमा विस्तार की बांट जोह रहे उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में वह कौन सी सुविधा या विकास है जो नगरपालिका के नगर निगम में तब्दील होने से पहले या फिर ग्रामीण क्षेत्रों को नगरपालिकाओं अथवा नगर पंचायतों में शामिल किए बगैर नहीं दिया जा सकता। तथ्यों की गंभीरता पर गौर करें तो सच अपने आप ही सामने आ जाता है और नगरपालिकाओं को नगर निगम में तब्दील करने या फिर इन तमाम नगर निगमों, नगरपालिकाओं अथवा नगर पंचायतों के सीमा विस्तार से जुड़े फैसले पर सरसरी निगाह डालने मात्र से ही यह तो समझ में आ ही जाता है कि यह सारा खेल उस तथाकथित विकास के लिए तो नहीं है जिसके होने की उम्मीद के साथ उत्तराखंड राज्य गठन की लंबी लड़ाई लड़ी गयी थी। हालांकि यह समझ पाना कठिन तो नहीं है कि सरकार द्वारा की जा रही इस सारी जद्दोजहद की असल वजह क्या है और सरकार जनहित का लबादा ओढ़कर जनसामान्य के साथ यह ठगी भरा मजाक क्यों कर रही है लेकिन जनता की मजबूरी है कि उसके पास अपने पूर्व में किए गए फैसले को बदलने के लिए कोई कारगर हथियार नहीं है और वह एक व्यापक जनाधार वाली सरकार के हर फैसले को सर झुकाकर स्वीकारने के लिए मजबूर है। यह माना कि जनता अपनी व्यस्तताओं और रोजी-रोटी के संकट के देखते सरकार के हर फैसले का विरोध नहीं कर सकती और शराब विरोधी आंदोलन के सुरों का बहुमत के नाम पर गला घोट दिए जाने के बाद आंदोलनकारी ताकतें खुद को वैसे ही त्रस्त महसूस कर रही हैं लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि सरकार हर मोर्चे पर अपनी मनमर्जी करती रहे और नये नगर निगमों के अस्तित्व में आने के बाद या फिर पुरानी नगर पंचायतों, नगर पालिकाओं व नगर निगमों की सीमा विस्तार के बाद जन सुविधाओं का हाल पहले की ही तरह बेहाल दिखे। हम देख रहे हैं कि उत्तराखंड सरकार की कूड़ा निस्तारीकरण को लेकर कोई नीति नहीं है और न ही सरकारी तंत्र अथवा स्थायी निकायों की व्यवस्था अपने कार्य क्षेत्र में साफ-सफाई को लेकर संवेदनशील है। इन हालातों में नये नगर निगमों के गठन व पुराने निकायों की सीमा विस्तार पर सवाल उठना लाजमी है और पहला मौका मिलते ही जनता सरकार की इस मनमानी का जवाब देने के लिए स्वतंत्र है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह अपने तमाम फैसलों की न सिर्फ पुनः समीक्षा करे बल्कि अपने दायरे में पड़ने वाले तमाम स्थानीय निकायों की सेवाओं व सुविधाओं को इस हद तक दुरूस्त करे कि जनता को सरकार पर नाहक ही गरीबमार करने के आरोप लगाने का मौका न मिले।

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