क्या है इस बिना वजह की सक्रियता के मायने | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 27, 2024

Select your Top Menu from wp menus

क्या है इस बिना वजह की सक्रियता के मायने

लालकुंआ पेपर मिल प्रबंधन के खिलाफ आक्रामक तेवरों के साथ आंदोलन के मैदान में उतरने वाले स्थानीय विधयक की रणनीति पर एक सरसरी निगाह।
उत्तराखंड की पर्यटक नगरी नैनीताल के लालकुंआ विधानसभा क्षेत्र की अधिसंख्य जनता रोजगार के लिए खनन एवं कृषि जैसे व्यवसायों के साथ ही साथ इस क्षेत्र में पूर्व मुख्यमंत्री पंडित नारायण दत्त तिवारी के अथक प्रयासों से स्थापित सेचुरी पल्प एण्ड पेपर मिल द्वारा दी गयी नौकरी पर निर्भर है और इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस क्षेत्र में स्थानीय स्तर पर चलने वाले तमाम रोजगार या कामधंधे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से पेपर मिल या खनन से जुड़े हुए हैं। इस विषय पर अलग से चर्चा की जा सकती है कि तत्कालीन उ.प्र. सरकार द्वारा निशुल्क रूप से आवंटित भूमि पर स्थापित यह बड़ा कारखाना इस क्षेत्र की स्थानीय जनता को प्रदूषण एवं रोजगार के अलावा और क्या-क्या सुविधाएं दे रहा है तथा सरकारी आंकड़ों व अभिलेखों में विकास व आर्थिक प्रगति के एक संसाधन के रूप में पहचाने जाने वाले इस कारखाने के खिलाफ अक्सर ही आन्दोलनों का झंडा बुलन्द क्यों रहता है लेकिन यह सच है कि स्थानीय स्तर के छुटभय्यै नेताओं से लेकर स्थानीय विधायकों, पक्ष-विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं व नौकरशाहों द्वारा हमेशा ही इस कारखाने के कामकाज में जायज या नाजायज रूप से हस्तक्षेप का प्रयास किया जाता रहा है और कारखाना स्तर पर होने वाले तमाम तरह के ठेकों से लेकर नियुक्तियों तक में नेताओं की दखलंदाजी की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। इन हालातों में अगर कोई विधायक अपने चुने जाने के छह माह के अंतराल में ही दो बार कारखाने के गेट पर धरना देने को विवश है तो यह माना जा सकता है कि या तो उस पर ईमानदारी का भूत सवार है या फिर स्थानीय मिल प्रशासन द्वारा उसे तवज्जों नहीं दी जा रही, लेकिन अगर धरने पर बैठने वाला विधायक सत्ता पक्ष से जुड़ा हुआ है तो कारखाना प्रबंधन द्वारा उसे अनदेखा करने की बात आसानी से हज़म नहीं होती या फिर यह माना जा सकता है कि प्रबंधन को सत्तापक्ष की पूरी शह मिली हुई है। वजह चाहे जो भी हो लेकिन लालकुंआ के नवनिर्वाचित विधायक का कारखाना प्रबंधन के खिलाफ लगातार दूसरी बार कारखाने के गेट पर दिया गया धरना इन दिनों जनचर्चाओं का विषय है और यह माना जा रहा है कि कारखाने में सक्रिय बारह-पन्द्रह श्रमिक संगठनों के सक्रिय होने के बावजूद स्थानीय विधायक को अगर आन्दोलनात्मक कदम उठाने की जरूरत महसूस हो रही है तो इसकी वजह पूरी तरह से राजनैतिक ही है। ऐसा नहीं है कि लालकुंआ क्षेत्र में पेपर मिल प्रबंधन के खिलाफ पूर्व में आंदोलन नहीं हुए हैं या फिर विभिन्न कारणों से कारखाने में अस्तित्व में आए तमाम श्रमिक संगठन, श्रमिकों व स्थानीय जनता के बीच अपना वजूद खो चुके है लेकिन अगर आंदोलन के जरिये अपनी राजनीति चमकानी हो तो फिर श्रमिकों के बीच मान्य श्रमिक नेताओं व श्रम संगठनों को दरकिनार करते हुए अकेले मैदान में कूदना विधायक जी की मजबूरी है। यह काबिलेगौर है कि अपने इन दोनों ही आन्दोलनों के जरिये विधायक जी पीड़ित परिवार को ऐसा कुछ भी नहीं दिलवा पाये हैं जो पूर्व में हुई दुर्घटनाओं के दौरान या बाद पीड़ित पक्ष को कारखानेदारों द्वारा दिया गया है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि या तो विधायक जी इन छोटी-छोटी घटनाओं के जरिये पेपर मिल के मालिकों व प्रबंधन पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं या फिर कारखाना प्रबंधन के साथ मिलकर एक नियोजित तरीके से विधायक जी की लोकप्रियता व जनाधार को धार देने की कोशिश की जा रही है और यह दोनों ही स्थितियां कारखाने व कर्मचारियों के वजूद के लिए ठीक नहीं कही जा सकती। काबिलेगौर है कि मोदी लहर में सवार होकर हालिया चुनाव जीते स्थानीय विधायक भारी अंतराल से पहली बार विजयी होने के बावजूद भी लोकप्रियता के लिहाज से खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं और अपने निकटतम प्रतिद्वंदी व कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे हरीश चंद्र दुर्गापाल के चुनाव हारने के बावजूद उनकी इस विधानसभा क्षेत्र में लगातार दिखने वाली सक्रियता व विभिन्न आयोजनों के दौरान उनके इर्द-गिर्द उमड़ने वाली भीड़ तो वर्तमान विधायक के लिए एक सरदर्द है ही साथ ही साथ अपनी ही पार्टी के एक बड़े नेता व प्रदेश सरकार के मंत्री की अपने विधानसभा में लगातार दिखने वाली सक्रियता उन्हें लगातार परेशान कर रही है। इन हालातों में जनता के बीच बने रहने तथा लगातार सक्रिय दिखने के लिए अगर विधायक द्वारा कारखाने के मुद्दों में लगातार हस्तक्षेप किया जाता है तो इसे राजनैतिक रूप से गलत भले ही न कहा जाय लेकिन विधायक जी की इस सक्रियता के चलते उन तमाम श्रमिक संगठनों पर उंगली उठनी लाजमी है जो श्रमिक हितों की रक्षा के नाम पर ही अस्तित्व में आए हैं और यह स्थिति तब ज्यादा गंभीर हो जाती है जब इस तरह के आंदोलनों या कारखाने से जुड़े मुद्दों को उठाने के लिए सत्ता पक्ष की समान विचारधारा वाले संगठन भारतीय मजदूर संघ को भी विश्वास में लेने की कोई जरूरत नहीं समझी जाती। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि लालकुंआ पेपर मिल में श्रमिकों के हितों की रक्षा के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह तेजी से बढ़े श्रमिक संगठनों में से अधिकांश को किसी न किसी स्तर पर राजनीति के बड़े खिलाड़ियों की शह है और कारखाने में इस परम्परा को शुरू करने वाले उ.प्र. सरकार के पूर्व मंत्री पीपी सिंह आज भी एक संगठन विशेष के जरिये कारखाने के कामकाज में दखल करने की कोशिशें करते रहते हैं। इन हालातों में विधायक जी की किसी भी राजनैतिक कोशिश से श्रमिक संगठनों के विभिन्न वर्गों में सुगबुगाहट होना लाजमी है और यह माना जा रहा है कि अगर यह दखलंदाजी ऐसे ही चलती रही तो कुछ श्रमिक संगठन इसे अपने वजूद के लिए चुनौती मानकर कारखाना स्तर पर तमाम तरह के अनसुलझे पहलुओं को मुद्दा बनाकर आंदोलन की रणनीति तय कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यह स्थानीय जनता के लिए शुभ संकेत नहीं होगा क्योंकि जीएसटी व नोटबंदी के बाद विभिन्न स्तरों पर मंदी की मार झेल रहे लालकुंआ पेपर मिल जैसे तमाम कारखाने पहले से ही आर्थिक उलझनों में फंसे हुए हैं और श्रमिकों की जायज मांगों को लेकर पहले से ही आंदोलन की कमान संभाले हुए ठेका मजदूरों के संगठन द्वारा अनावरत रूप से चलाए जा रहे आंदोलन को विधायक जी की इस पहल से जाने-अनजाने में नुकसान पहुंचने का खतरा भी है। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि एक श्रमिक के जायज हकों की मांग को लेकर कारखाने के गेट पर धरना देने वाले स्थानीय विधायक की हालिया पहल भले ही लोकतांत्रिक व जनकल्याणकारी प्रतीत होती हो लेकिन उनके इस आंदोलन से उस श्रमिक संघर्ष को नुकसान पहुंचना तय है जिसे बड़ी मेहनत व श्रमिकों के भरोसे के बाद पिछले तीन-चार दशकों में कारखाने के भीतर व बाहर शक्ति व समर्थन हासिल हुआ है। लिहाजा विधायक जी को चाहिए कि वह बिना वजह के व बिना बुलाये मेहमान की तरह कारखानेदारों व श्रमिकों के बीच के अंदरूनी मामलों में उलझनें की जगह अपने विधानसभा क्षेत्र में चलायी जाने वाली जनकल्याणकारी योजनाओं पर ध्यान दे और श्रमिक हितों की लड़ाई लड़ने का काम स्थानीय श्रमिक संगठनों व कारखाने के भीतर मान्यता प्राप्त टेªड यूनियनों पर छोड़ दिया जाय अन्यथा इस नई परम्परा की शुरूआत विधायक जी को भारी भी पड़ सकती है।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *