मुजफ्फर नगर रामपुर तिराहा काण्ड की यादें ताजी करता दो अक्टूबर का दिन
शांति, अहिंसा और सत्य के पुजारी महात्मा गांधी के अलावा जय जवान-जय किसान का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्मदिवस दो अक्टूबर, देवभूमि उत्तराखंड में किन्ही और कारणों से भी याद किया जाता है तथा इस दिन सत्ता की राजनीति करने वाले लोग उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए शहादत देने वालों को श्रद्धांजली देने की रस्म अदायगी करना नहीं भूलते। हालांकि यह परम्परा उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के पहले से ही चली आ रही है और यह तथ्य किसी से छुपा हुआ नहीं है कि वर्ष 1994 में उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय क्षेत्रों व तराई के पहाड़ी बहुल इलाकों में जोर-शोर से चले राज्य बनाओ आन्दोलन के दौरान सितम्बर माह के शुरूआती दो दिनों में खटीमा व मसूरी में हुए गोलीकांड तथा दो अक्टूबर को मुजफ्फरनगर कांड के विरोध में सांकेतिक धरनों-प्रदर्शनों व राज्य निर्माण के संकल्प के साथ गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था लेकिन वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद इन तमाम गोलीकांडों में शहीद हुए साथियों व घटनाक्रमों को यादगार के रूप में जीवित रखने की ऐसी होड़ मची कि राज्य आन्दोलन के दौरान सभास्थल माने जाने वाले तमाम महत्वपूर्ण स्थल, शहीद स्थलों में तब्दील हो गये और खुद को उत्तराखंड राज्य आन्दोलन का जीवन्त प्रतीक मानने वाले तथाकथित राज्य आन्दोलनकारियों की संवेदनाएं वक्त की मार के चलते कंकरीट व पत्थर में दबकर रह गयी। लिहाजा सरकार द्वारा आयोजित इस तरह के तमाम कार्यक्रम रस्म अदायगी मात्र बनकर रह गए हैं और सरकार द्वारा हर चुनावी मौके पर उत्तराखंड राज्य आन्दोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड बनाने के दावे बावजूद राज्य का पहाड़ीपन व सांस्कृृतिक पक्ष तेजी से खत्म होता दिख रहा है। उत्तराखण्ड निर्माण के इतिहास में दो अक्टूबर एक ऐसा काला दिन है जिसे पहाड़ी जनमानस भूलना चाहकर भी भूल नहीं सकता लेकिन जब यह खबर आती है कि उक्त घटनाक्रम के बीत जाने के इन पच्चीस वर्षों में इस दुखद घटनाक्रम के आपराधिक पहलू से जुड़े तमाम नौकरशाहों को हमारे राज्य की कमजोर पैरवी के कारण दोषमुक्त कर दिया गया या फिर मुजफ्फरनगर तिराहे अथवा अन्य शहीद स्थलों पर जाकर अपने राजनैतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए उत्तराखंड राज्य निर्माण के दौरान दमनकारी नीतियों का अनुपालन करने वाली सरकारी व्यवस्था के खिलाफ कठोरतम् कार्यवाही किए जाने की मांग करने वाले अथवा घोषणा करने वाले लोग जब दोषी अधिकारियों व नेताओं को बचाते दिखाई दिए, तो हमें उसी वक्त समझ जाना चाहिए था कि यह राज्य अपने गठन के उद्देश्यों से भटक गया है किंतु हम यह आशा पाले रहे कि दिल्ली में बैठकर उत्तराखंड राज्य का भला करने की सोच के साथ राज्य स्तरीय नेताओं को कठपुतली की तरह नचाने वाले और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी इच्छा के अनुसार उठापटक करने वाली तथाकथित राष्ट्रीय राजनैतिक विचारधाराएं एक न एक दिन इस नवगठित राज्य की दिशा व दशा दोनों बदल देंगी। यह माना कि उत्तराखंड राज्य का आंदोलन एक अहिंसक व संतुलित विरोध होने के बावजूद भी इस राज्य को एक सर्वमान्य नेता नहीं दे पाया और राज्य बनने के बाद जनता की पहली पसंद बने राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के राजनीति में स्थापित नेताओं ने सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद हर तरह की सलाह व विकास सम्बन्धी सुझावों के लिए उन लोगों का भरोसा करना ज्यादा उचित समझा जिन्हें उत्तराखंड के परिवेश या जनभावनाओं की कोई समझ नहीं थी लेकिन यह भी सच है कि राज्य निर्माण के बाद हमारे लोगों ने भी यह मान लिया कि राज्य के अस्तित्व में आते ही उनकी जिम्मेदारी अब पूरी हो गयी और उत्तराखंड राज्य के गठन व विकास को लेकर बेहतर परिकल्पनाएं प्रस्तुत करने वाली आन्दोलनकारी ताकतें एकाएक ही विलुप्त हो गयी या फिर सीमित संसाधनों के साथ नियत दूरी तक ही चल सकने की मजबूरी ने उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान सक्रिय युवाओं, छात्रों व समाज के अन्य वर्गों को कुछ इस तरह तोड़ा कि लाचारी व बेरोजगारी के वक्त एकाएक ही मिली सरकारी नौकरी अथवा पेंशन उन्हें राज्य के नए रहनुमाओं द्वारा दी जा रही रहमत सी लगी। नतीजतन खुद को उत्तराखंड राज्य आन्दोलन का सच्चा सिपाही कहलाने वाला युवा अथवा संघर्ष के इस रण में अपना सब कुछ दांव पर लगा देने का दावा करने वाली मातृ शक्ति राज्य गठन के बाद अपने शहीद साथियों के सपनों का राज्य बनाने के जनादेश के लिए जनता के बीच जाने के स्थान पर अपने पेंशन पट्टे व अन्य सुविधाओं के लिए सत्तापक्ष के नेताओं की गणेश परिक्रमा में जुट गई और खुद को उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौर का सक्रिय सिपाही साबित करने का सिलसिला चल निकला। इस विषय पर अलग से चर्चा की जा सकती है कि चिन्हित राज्य आन्दोलनकारी का खेल क्यों और किसके दिमाग की उपज था लेकिन अगर राज्य आन्दोलनकारी घोषित किए जाने की होड़ पर एक नजर डालें तो हम पाते हैं कि राजनीति के स्थापित खिलाड़ी भी इस रेस में भागीदारी करने से नहीं चूके और उन्होंने अपने स्तर पर इस बात की पूरी तैयारी की हुई है कि अगर आज भी पासे पलट जाये तो वह खुद को उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान सक्रिय जनसेवक व राज्य के विकास हेतु संकल्पबद्ध नेता बताते हुए कुर्सी की लड़ाई में बने रहे। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के इन सत्रह वर्षों बाद भी सत्ता के शीर्ष पर काबिज नेताओं द्वारा वर्तमान से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व हुई शहादतों व हिंसक घटनाओं पर शोक व्यक्त करते हुए खुद को राज्य आन्दोलनकारियों के विचारों से सम्बद्ध बताना यह साबित तो करता है कि सत्ता की राजनीति करने वाले राजनैतिक दल व राजनेता आज भी यह मानते हैं कि इस राज्य का गठन एक वर्ग विशेष की जनभावनाओं के तहत किया गया था और देश, काल अथवा परिस्थिति के आधार पर इस समुदाय को जब भी यह अहसास हुआ कि सरकार उसके सम्मान व हितों से खिलवाड़ कर रही है तो व्यवस्था में एक बार फिर से एक बड़ा भूचाल सम्भावित है लेकिन तात्कालिक फायदे की विषय वस्तु बन चुकी राजनीति के इस दौर में इससे आगे की सोच न तो नेताओं के पास बची है और न ही जनता अभी इन विषयों को लेकर सजग दिख रही है। लिहाजा राज्य आन्दोलन के दौरान जन साधारण की जुबां पर रचे-बसे तमाम मुद्दे फिलहाल नेपृथ्य में हैं और इन सत्रह सालों में अपनी प्राथमिकताएं पूरी तरह बदल चुका शासक वर्ग येन-केन-प्रकारेण लूट के नए मार्ग प्रशस्त करने में लगा हुआ है। नतीजतन, वही वर्ग एक बार फिर मौज करता दिख रहा है जिसके तानाशाही रवैय्ये के खिलाफ उत्तराखंड राज्य के गठन की मांग उठी थी। इन हालातों में सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर दी जाने वाली श्रद्धांजलि या फिर वीरों की शहादत को लेकर अर्पित किये जाने वाले श्रद्धासुमन से आम आदमी को क्या हासिल होगा, यह एक बड़ा सवाल है।