आस्था पर कुठाराघात | Jokhim Samachar Network

Friday, April 26, 2024

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आस्था पर कुठाराघात

एक के बाद एक कर लगातार कई धर्मगुरूओं के बेनकाब होते चेहरों से समाज में अजीब डर का माहौल।
इसे महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर सरकारी दावों की धज्जियां उड़ना माना जाय या फिर सरकारी सख्ती का परिणाम लेकिन यह सच है कि इधर पिछले कुछ वर्षों से तथाकथित आश्रमों व मठ-मंदिरों में महिलाओं के उत्पीड़न व शारीरिक शोषण से जुड़े मामले लगातार सामने आ रहे हैं और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पूरे देश में धर्म के प्रचार-प्रसार के नाम पर लूट का एक बड़ा खेल चल रहा है। हालांकि यह कहना कठिन है कि भारतीय राजनीति में तथाकथित रूप से हिन्दू वैचारिकता वाली सरकार को सार्वजनिक रूप से स्वीकृति मिलने के बाद ही इस तरह के मामलों की बाढ़ आती क्यों दिख रही है और हमारा सरकारी तंत्र इस तरह के क्रियाकलापों को चलाने वाले आश्रमों, मठ-मंदिरों या फिर अन्य धार्मिक संस्थानों को लेकर मौन की स्थिति क्यों बनाये हुए है लेकिन अभी तक सामने आए तमाम मामलों के आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि इस तरह के प्रकरणों या क्रियाकलापों में लिप्त तथाकथित धर्मगुरूओं को बेनकाब करने में सरकारी तंत्र का कोई हाथ नहीं है बल्कि अधिकांश मामलों में यह देखा जा रहा है कि सरकार मीडिया के जरिये बेनकाब होने वाले इन तमाम धर्मगुरूओं व अन्य धार्मिक व्यक्तित्वों की गिरफ्तारी व अन्य कानूनी कार्यवाहियों को लेकर भी तब सक्रिय होती है जब इस तरह के प्रकरणों पर जनता या सामाजिक संगठनों का गुस्सा खुलकर सामने आने लगता है अथवा न्यायालय इस प्रकार के विषयों में स्वयं हस्तक्षेप करता है। भारतीय राजनेताओं का बाबाओं के प्रति प्रेम किसी से छुपा नहीं है और सामान्य जनजीवन में भी इन तमाम धर्मगुरूओं अथवा कथावाचकों को विशेष स्थान दिया जाता रहा है। इसलिए कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए जिम्मेदार पुलिस व अन्य सरकारी संस्थानों का इन पर सीधे हाथ डालना या इनको अपनी निगाहबीनी में रखना आसान नहीं होता लेकिन अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि इन बाबाओं अथवा तथाकथित धर्मगुरूओं की खिलाफत में उठने वाली आवाज को अक्सर शासन-प्रशासन की मदद से अथवा ऊपर से पड़ने वाले राजनैतिक दबाव के चलते यूं ही अनदेखा कर दिया जाता है क्योंकि इन आश्रमों अथवा संस्थानों में जमा होने वाली आकूत धन-सम्पत्ति भ्रष्टाचार के जरिये कानून को खरीदने व अपने बस में रखने के लिए हमेशा ही सजग बनी रहती है। उपरोक्त के अलावा इन तथाकथित धर्मगुरूओं का अय्याश किस्म के राजनेताओं के साथ बनने वाला गठजोड़ और चुनावी मौसम में इनके द्वारा की जाने वाली ऊल-जलूल भविष्यवाणियां या फिर इनके भक्तों पर फतवे के अंदाज में असर करने वाली इनकी अपील इन्हें एक अलग तरह का सुरक्षा कवच प्रदान करती है। हमने देखा है कि अपने संस्थानों अथवा आश्रमों द्वारा आयोजित किए जाने वाले धार्मिक कार्यक्रमों अथवा प्रवचनों में बड़े राजनैतिक आकाओं को आमंत्रित करने के लिए इनके आयोजक न सिर्फ रणनैतिक अंदाज में काम करते हैं बल्कि सत्तापक्ष व विपक्ष के नेता संतों के इन दरबारों में हाजिरी लगाकर खुद को भी गौरवान्वित सा महसूस करते हैं क्योंकि इस तरह के मंचों पर उन्हें स्वतः स्फूर्त जनता की एक भीड़ श्रोता के रूप में तैयार मिलती है जिसे राजनैतिक रूप से संगठित कर जनमत की ताकत के रूप में बदलना आसान माना जाता है। यह ठीक है कि सरकार अथवा किसी भी कानून के लिए इस तरह के आयोजनों को बंद करना या इन पर रोक लगाना संभव नहीं है और न ही सम्पूर्ण संत समाज व कथावाचक या धर्मगुरू इस हद तक भ्रष्ट हैं कि राजनेता व राजनैतिक दल इन्हें पूरी तरह अछूत मान लें लेकिन हालात और एक के बाद एक कर सामने आ रहे महिला उत्पीड़न व शारीरिक शोषण के मामले यह इशारा तो कर ही रहे हैं कि सरकार द्वारा इन तमाम विषयों पर एक विशिष्ट आचार संहिता व स्पष्ट कानून बनाये जाने की आवश्यकता अब महसूस होने लगी है तथा केन्द्र के साथ ही साथ देश के तमाम राज्यों की सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए यह आसान भी है कि वह अपने अनुषांगिक व सहयोगी संगठनों की मदद से तमाम धर्मगुरूओं को विश्वास में लेकर इस दिशा में एक पहल करे। जहां तक धार्मिक आस्था अथवा इस तरह के तमाम धर्मगुरूओं पर विश्वास का सवाल है तो इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में हमेशा से ही इस तरह की धार्मिक गतिविधियों का बोलबाला रहा है तथा प्राचीन भारतीय संतों के अलावा कुछ नवोदित संत-महात्माओं ने भी धर्म को नयी मान्यताएं देते हुए सामाजिक जनजीवन में एक नयी क्रांति लाने की दिशा में प्रयास किए हैं लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में देश में बढ़ा पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव और पूंजीवाद पर आश्रित हो चुकी तमाम धार्मिक व राजनैतिक गतिविधियों ने इन मठ-मंदिरों व आश्रमों के स्वरूप में तेजी से बदलाव किया है जिसके चलते जनसामान्य के बीच आचरण की शुचिता व धार्मिक गतिविधियों में भागीदारी कर इहलोक के साथ ही परलोक सुधारने की भावना बलवती होने के स्थान पर कुछ आर्थिक लेन-देन कर अथवा भव्य धार्मिक आयोजन कर सब कुछ पा लेने का सिलसिला तेजी से आगे बढ़ा है। इस तरह की तमाम गतिविधियों ने सामान्य मानव जाति की आस्था व सम्मान का केन्द्र माने जाने वाले मठ-मंदिरों व आश्रमों की परम्पराएं ही बदलकर रख दी हैं। यह आश्चर्यजनक रूप से सत्य है कि समाज में तेजी से विघटित हो रही संयुक्त परिवार की परिकल्पना एवं आर्थिक संसाधनों की दौड़ में तेजी से भाग रहे हमारे समाज के बीच सब कुछ जल्द से जल्द पा लेने की बढ़ती होड़ ने हमें धर्मभीरू बनाया है और अपने राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समाज को धर्म के आधार पर बांटने या संगठित करने की तेजी से बढ़ रही प्रवृत्ति ने बाबागिरी के इस धंधे को तेजी से आगे बढ़ने के आयाम प्रदान किये हैं। शायद यही वजह है कि आज अनेक धर्मगुरूओं को लेकर हो रहे तरह-तरह के खुलासों के बावजूद धर्म की इन तथाकथित दुकानों में भक्तरूपी ग्राहकों की भीड़ कम होने का नाम नहीं ले रही और धर्म की यह अफीम हमें इस हद तक मदहोश कर चुकी है कि हम अपने सामने आ रहे तमाम घटनाक्रमों या आंखोंदेखी पर विश्वास करने की जगह आरोपियों के पक्ष में लामबंद होने या फिर उन्हें सही साबित करते हुए उनकी ओर से हर लंबी लड़ाई लड़ने के लिए खुद को तैयार कर चुके हैं। शायद यही वजह है कि इस तरह के तमाम आरोप लगने के बावजूद संत समाज के रूप में छिपे भेड़ियों को बेनकाब किया जाना आसान नहीं है और बाबा वीरेन्द्र देव दीक्षित या फिर संत राम-रहीम जैसे कुछ नामों से जुड़े काले चिट्ठे जनता की अदालत में खुलेआम प्रस्तुत किए जाने के बावजूद भी इस तरह की गतिविधियों पर रोक लगाया जाना संभव नहीं है। धर्म एक निजी आस्था का विषय है लेकिन धर्म के कुछ धंधेबाजों ने इसे व्यवसाय बना दिया है और व्यवसायिकता की इस होड़ में एक-दूसरे से आगे निकल जाने के लिए धर्म के यह धंधेबाज हर तरह का नैतिक व अनैतिक दांव खेल रहे हैं जिसे हवा देने में हमारे मीडिया के एक बड़े हिस्से का भी एक बड़ा हाथ है। यह माना कि कानून के दायरे में रहकर धर्म की इस धंधेबाजी पर पूर्ण रोक लगाया जाना संभव नहीं है और न ही चमत्कार को नमस्कार करने वाली इस देश की धर्मभीरू जनता को इन आश्रमों अथवा मठ-मंदिरों में जाने से रोका जा सकता है लेकिन अगर हमारा समाज चाहे तो वह बड़ी ही आसानी के साथ अपनी आस्था के इन केन्द्रों को महिला शोषण व हवस के पुजारियों का अड्डा बनने से रोक सकता है। इसके लिए यौन शिक्षा व यौन चर्चाओं को सार्वजनिक जीवन में बहस का एक अंग बनाया जाना जरूरी है तथा यह भी आवश्यक है कि हम अपनी नयी पीढ़ी से खुलकर इन विषयों पर बात करें और सामान्य दिनचर्या में उनके समक्ष आने वाली इस तरह की तमाम परेशानियों व जिज्ञासाओं पर तत्काल प्रभाव से सजगता के साथ कार्यवाही की जाय। अक्सर देखा गया है कि सामाजिक रूप से खुद को जागरूक व आधुनिक साबित करने के लिए तमाम परिवार अपनी युवा पीढ़ी व बच्चों को यौन चर्चाओं से दूर रखते हैं क्योंकि इसे उनके लिए गैर जरूरी व धार्मिक रूप से अभ्यता का परिचायक मान लिया गया है और ऐसे बच्चे या युवा जब सार्वजनिक स्थलों या सम्मानित समझे जाने वाले धर्मगुरूओं के समक्ष खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं तो वह खुलकर अपना दर्द बयान नहीं कर पाते जबकि इस तरह के माहौल की ताक में रहने वाले अपराधी या फिर अपने धार्मिक आभामंडल को हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले तथाकथित धर्मगुरू इसी तरह के निरपराध बच्चों, युवतियों व महिलाओं को अपना आसान शिकार बनाते हैं। इसलिए लगातार सामने आ रहे तथाकथित धर्मगुरूओं के काले कारनामों को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि हम इन तमाम खामियों के लिए सिर्फ सरकार या कानून व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराने की जगह अपनी सुरक्षा व सामाजिक व्यवस्था के लिए स्वयं भी सजग बनें क्योंकि धर्म एक ऐसा विषय है जिस पर समाज का भरोसा हमेशा ही बना रहना चाहिए।

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