क्या है आदमी की जान की कीमत। | Jokhim Samachar Network

Saturday, April 27, 2024

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क्या है आदमी की जान की कीमत।

व्यवस्थाओं में सुधार लाये बिना सम्भव नही है राज्य में आये दिन होने वाली सड़क दुघर्टना पर प्रभावी लगाम लगा पाना।

मानसून की पहली बारिश अभी ठीक से शुरू भी नही हुई कि उत्तराखण्ड में आपदाओं और हत्याओं का सिलासिला एक बार फिर शुरू हो गया लगता है। यूं तो यातायात की दृष्टि से संवेदनशील मानी जाने वाली पहाड़ की सड़के हमेशा ही यहाॅ के जनप्रतिनिधियों व व्यवस्था पर सवाल खड़े करती रही है और एक के बाद एक कर घटित होती सड़क दुघर्टनाओं के बीच सरकार द्वारा कभी-कभार की जाने वाली मुआवजा राशि की घोषणाओ से यह स्पष्ट होता रहा है कि सरकार बहादुर की नजरों में आम आदमी की जान की कीमत क्या है लेकिन इस सबके बावजूद इस पहाड़ी राज्य में निवास करने वाला हर सामान्य नागरिक इस उम्मीद के साथ अपने जनप्रतिनिधियों पर भरोसा करता चला आ रहा है कि कभी तो यह नेता चेतेंगे और राज्य के चर्हुमुखी विकास के नारे के अनुरूप आम आदमी को सुविधाऐं देने व व्यवस्था को दुरूस्त करने की नीयत से काम शुरू होगा। यह माना कि आकस्मिक रूप से घटित होने वाली सड़क दुघर्टनाओं के लिऐ सिर्फ सरकार को जिम्मेदार नही माना जा सकता और बदलते मौसम के अनुरूप पहाड़ की भूसंरचनाओं में आने वाले परिवर्तन के मद्देनज़र आकस्मिक रूप से आने वाले बदलाव इस प्रकार की परिस्थितियोें को जन्म देते है कि सरकारी तन्त्र अथवा व्यवस्था चाहकर भी इस प्रकार के घटनाक्रमों पर रोक नही लगा सकती लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि मरम्मत के अभाव में टूटी-फूटी सड़के या फिर सड़को के निमार्ण अथवा मरम्मत के मामले में उपर तक चलने वाले कमीशनखोरी के खेल ने हालातो को इस कदर संजीदा बना दिया है कि हम चाहकर भी इस किस्म की मानव क्षति को रोक नही सकते और इसके उपर नेताओ व नौकरशाहों की मिलीभगत के चलते पहाड़ के घुमावदार रास्ते पर निर्वाध रूप से चलने वाले ओवर लोडिंग के खेल में आदमजात को पशुओ से भी बुरी हालत के साथ गाड़ियों में ठूंसा जाना सभ्य समाज के लिऐं एक अभिशाप बनकर रह गया है जिस पर हमारी सरकारी व्यवस्था लगाम लगाने में पूरी तरह असफल है। हाॅलाकि यह कहा जाना थोड़ा मुश्किल है कि इस किस्म की अव्यवस्थाओं के लिऐ सिर्फ सरकारी तन्त्र ही जिम्मेदार है और सबकुछ देखने व समझने के बावजूद अपनी असुविधा व जान की कीमत का एहसास न करते हुऐ जो़र-ज़बरदस्रूती वाले अन्दाज़ में इन तमाम रास्तों पर सफर करते पहाड़ के स्थानीय नागरिक व आंगतुक तथ्यों की गम्भीरता को नही समझते लेकिन हकीकत यह है कि व्यवस्थाऐं ही कुछ इस प्रकार की बना दी गयी है कि लूट के इस सिस्टम के आगे सबकुछ फेल है और व्यस्थित तरीके से चल रही इस लूट का विरोध करने वाली आवाज को शासन-प्रशासन द्वारा किस अन्दाज़ में दबाया जाता है इसके कई नमूने हम अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में देखने के बावजूद भी चुप बने रहते है।धूमाकोट के नजदीक एक बस का खाई में गिरना और एक ही झटके में अड़तालीस निरअपराध लोगो का अपनी जान से हाथ धो बैठना यह साबित करता है कि राज्य में पयर्टन को उद्योग का दर्जा देकर रोजगार से जोड़ने की बात करने वाली सरकारी व्यवस्था की तमाम घोषणाऐं हवा-हवाई है और एक कुछ ही मिनटो के आयोजन के लिऐं करोड़ो फूंक देने वाला सरकारी तन्त्र राज्य की मूलभूत व्यवस्थाओं को लेकर संवेदनशील नही है। हाॅलाकि इस सड़क दुघर्टना के कई कारण हो सकते है और सरकार भी इस तथ्य से अनिभिज्ञ नही है कि अगर थोड़ी सी सजगता बरती गयी होती तो बड़ी ही आसानी के साथ कई जिन्दगियों को बचाया जा सकता था लेकिन इस घटनाक्रम के सामने आने के बावजूद तन्त्र का न चेतना यह साबित करता है कि कुछ लोगो की मौत पर घड़याली आॅसू बहाकर रस्म अदायगी के रूप में मुआवजे की घोषणा करने वाली सरकारी मशीनरी शासन तन्त्र को चलाने के नाम पर सिर्फ रस्म अदायगी में उलझी हुई हैै और आम आदमी को हालातो के भरोसे छोड़ देना सरकार की मजबूरी बन गयी है। जहाॅ तक आपदा की स्थितियों से निपटने के लिऐं तैनात किये गये आपदा प्रबन्धन तन्त्र का सवाल है तो मुख्य मार्ग पर घटी इस दुघर्टना के घन्टो बाद तक स्थानीय युवाओं की मदद सें चलाये गये बचाव व राहत के कार्यक्रम से यह एक बार फिर साबित हुआ है कि इस परिपेक्ष्य में समय-समय पर चलाये जाने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम हमेशा की तरह एक बार फिर बेनतीजा साबित हुऐ है और अभ्यास व माॅक ड्रिल के नाम पर करोड़ो फूॅक देने वाली सरकारी व्यवस्था ऐन मौके पर पंगु ही दिखाई दी है। हालातो के मद्देनज़र यह कहना काफी नही है कि हमें अपनी व्यवस्थाओं में सुधार करना होगा और पहाड़ की लाइफ लाइन माने जाने वाले सड़क यातायात को ढ़र्रे पर लाने के लिऐ सड़को के सुद्रढ़ीकरण के अलावा यातायात की व्यवस्था को सुव्यवस्थित करते हुऐ सरकारी बसो व अनुबन्धन के आधार पर चलने वाली तमाम तरह की टैक्सी -मैक्सी सर्विसो को मजबूती प्रदान करनी होगी बल्कि सरकार को चाहिऐं कि वह सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में एक व्यापक नीति बनाये और उन तमाम कारणो की जाॅच करे जिनके चलते एक तीस सवारी ढ़ोने की क्षमता वाली बस बेखटके अन्दाज़ में लगभग साठ के करीब सवारियों की ज़िन्दगी दाॅव पर लगाकर अपने रोज़ाना के रूटीन के अनुसार मौत के परवाने को साथ ले सड़क पर दौड़ लगा रही थी । हमने देखा और महसूस किया है कि सड़क दुघर्टनाओं पर लगाम लगाने के लिऐ सरकारी तन्त्र द्वारा गठित विभिन्न सरकारी सुरक्षा ऐजेन्सियाॅ व लाईसेन्स बनाने या परमिट जारी करने तक सीमित रहने वाला परिवहन विभाग अपने रोजाना के रूटीन में दो पहिया वाहनो के चालान करने अथवा शहरी या कस्बाई क्षेत्रो में चलने वाले हल्के वाहनो पर लगाम लगा राजस्व बटोरने तक ही सीमित रहता है तथा सरकारी फैसलो व नियमों को लागू करने के इस खेल में दलाली व छुटभैय्या नेताओ की एक बड़ी भूमिका रहती है लेकिन सरकार अनेक अवसरों पर यह भूल जाती है कि उसकी राजस्व वसूली करने के अलावा भी कई जिम्मेदारियाॅ है और इन तमाम जिम्मेदारियों के निर्वहन में होने वाली कोई भी क्षणिक चूॅक इस तरह की भीषण दुर्घटनाओं को जन्म देती है। यह माना कि सरकार अथवा सत्ता के शीर्ष पर बैठे राजनेताओ अथवा नौकरशाहो के लिऐ यह सम्भव नही है कि वह सत्ता एंव शासन तन्त्र के गलियारें में नज़र बनाये रखने के साथ ही साथ इस किस्म की अराजकता व सरकारी करो की चोरी पर भी गहन दृष्टिकोण बनाये रखे तथा राजकाज में सर्वत्र व्यापक दिखने वाली भ्रष्टाचार की बीमारी से आम आदमी को सजग करते हुऐ व्यवस्थाओं को इस अन्दाज़ में दुरूस्त करे कि यात्री अथवा सामान्य नागरिक स्ंवय अपने हितो व अधिकारों के प्रति सजगता अपनाते हुऐ हर तरह की अव्यवस्था का विरोध करें लेकिन इस तरह के तमाम तर्क व नियम सिर्फ कागजो़ व सरकारी फाइलो तक ही सीमित होकर रह जाते है और हमारी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह अपनी चपेट में ले चुकी भ्रष्टाचार की बीमारी नेताओ व नौकरशाहो को मजबूर करती है कि वह इन तमाम तरह की धन्धेबाजी़ से अपनी निगाहें फेर ले। यह सबकुछ ऐसे ही कब तक चलेगा और कब तक हम भाग्य के भरोसे रहकर इस तरह की तमाम दुघर्टनाओं को ईश्वर की इच्छा मानकर अपने सहोदरों की मौत का मातम मनाते रहेंगे, यह तो पता नही लेकिन हालात व व्यवस्थाऐं यह इशारा कर रही है कि अगर हम अब भी नही सुधरें तो पहाड़ का सफर मौत के सफर में तब्दील होंकर रह जायेगा और राजनैतिक बयानों व सरकारी घोषणाओं के माध्यम से इस पर्वतीय राज्य को पयर्टन के लिऐ मुफीद बनाने की अवधारणा धरी की धरी रह जायेगी। हम यह देख और महसूस कर रहे है कि पलायन के चलते खाली हो चुके पहाड़ो के गाॅवो की ओर साल-दो-साल में एक-आध बार रूख करने वाला यहाॅ का मूल निवासी अब पहाड़ की ओर रूख करने से कतराने लगा है तथा पहाड़ो की समृद्ध मानी जाने वाली लोक-कला व ग्र्रामीण संस्कृति अब धीरे-धीरे कर मंचो तक सीमित होती जा रही है क्योंकि अपने प्राणो को संकट में डालकर फुर्सत के कुछ क्षण अपनी मातृभूमि की गोद में बिताने व यहाॅ की स्थानीय परम्पराओं या लोकमान्यताओं का हिस्सा बनने की ललक पर व्यवस्थाओं में स्पष्ट दिखने वाली खामियाॅ भारी पड़ती प्रतीत हो रही हैं। लिहाज़ा यह डर स्वाभाविक है कि सरकार की इस किस्म की उदासीनता कहीं पहाड़ो को सुनसान न कर दे और योग को बढ़ावा देकर या फिर अन्य माध्यमों से देश विदेश के पर्यटको को उत्तराखण्ड की ओर आकृर्षित करने की योजनाऐं बनाते-बनाते हम व हमारी सरकारें इतने आत्ममुग्ध न हो जाये कि पहाड़ की जनता व दूर देशों में रहने वाले इनके कुटुम्बियों पर मंडराते इस गम्भीर खतरे का आभास भी उन्हे न हो सके। अभी भी वक्त है कि हमारी सरकारें चेते और घोषणाओं के ज़रियें जनता के बीच दृष्टिभ्रम पैदा कर जनमत हासिल करने का सिलसिला यहीं बन्द किया जाये तथा सरकार अपनी नीति व रीति में सुधार लाते हुऐ उन तमाम व्यवस्थाओं व सड़को को दुरूस्त करने का संकल्प ले जो एक लम्बे समय से हमारे आवगमन की दृष्टि से मुफीद बनी हुई है। उपरोक्त के अलावा सड़कों पर बेरोकटोक दौड़ने वाले वाहनो के लिऐ बनाये गये नियमों को भी सख्ती से लागू किये जाने की इस पर्वतीय प्रदेश को नितांत आवश्यकता है और यह सबकुछ तभी सम्भव हो पायेगा जब हमारी सरकारें व्यवस्थाओं में सुधार लाते हुऐ सच में भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देने का प्रयास करेगी लेकिन हालात व नेताओ के लगातार बढ़ते खर्च यह इशारा कर रहे है कि हाल-फिलहाल तो यह सबकुछ हो पाना सम्भव नही है। इसलिऐं अभी हमें जी़रो टालरेन्स के नारे मात्र से ही काम चलाना होगा।

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