अराजकता के माहौल में | Jokhim Samachar Network

Friday, April 26, 2024

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अराजकता के माहौल में

बंद या आम हड़ताल के बहाने शक्ति प्रदर्शन व अराजकता के नये दौर में प्रवेश कर रहा है हमारा भारत
न्यायालय के फैसले के विरोध में दलितों के तमाम सामाजिक व राजनैतिक संगठनों द्वारा आहूत व समर्थित भारत बंद की सफलता या असफलता का अन्दाजा लगाने के लिए इस अवसर पर की गयी अराजकता को पैमाना बनाया जाय तो हम कह सकते हैं तोड़फोड़, आगजनी व रेल यातायात रोके जाने के अलावा जोर-जबरदस्ती बंद कराने के फेर में हुई अनगिनत मौतों के साथ दलितों का यह शक्ति प्रदर्शन सफल रहा और कानून हाथ में लेकर न्याय प्रक्रिया का विरोध करने निकले तमाम अराजक तत्वों व कुछ अवसरवादी संगठनों ने इस मौके का फायदा उठाकर हर स्तर पर अपनी मनमानी करने की कोशिश की लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह के उपद्रव व हिंसा के बलबूते कानून को जीता जा सकता है और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के नाम पर जनमत के शक्ति प्रदर्शन का यह तरीका सही है। पिछले कुछ समय से हम देख व महसूस कर रहे हैं कि समाज के विभिन्न वर्गों की बढ़ती राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश की है तथा न्यायालय के किसी फैसले से सहमति अथवा असहमति की दिशा में प्रक्रिया का सहारा लेकर अराजकता के बल पर मनमर्जी की ओर बढ़ने का चलन बढ़ा है लेकिन इस तरह के तमाम घटनाक्रमों में उपद्रवियों या फिर खुद को पीड़ित घोषित करने वाले वर्ग को भी कुछ हासिल नहीं हुआ है और न ही सबूतों व गुनाहों की बिना पर फैसला करने वाले न्यायाधिकारियों ने इस तरह की हिंसक व अराजक जनभावनाओं को संज्ञान में ही लिया है। यह माना कि अपने हितों के संरक्षण में निर्मित किसी नियम अथवा कानून के साथ की गयी छेड़छाड़ के विरोध में आक्रोश स्वाभाविक है तथा अपने आक्रोश को जाहिर करने व सरकार अथवा न्यायालय की कार्यशैली के विरूद्ध अपना विरोध प्रदर्शन करने के लिए बंद अथवा अन्य सांकेतिक प्रदर्शनों का तरीका गलत भी नहीं है लेकिन सवाल यह है कि बंद या आंदोलन की आड़ में की जाने वाली अराजकता व शक्ति प्रदर्शन को किस हद तक बर्दाश्त किया जा सकता है और इस किस्म के उपद्रवों के माध्यम से हम इस देश को कहां ले जाना चाहते हैं। दंगे या जातिगत हिंसा भारत के लिए कोई नयी बात नहीं है और भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में या फिर उससे भी पहले विभिन्न धार्मिक समुदायों या फिर जातियों के बीच रक्तरंजित संघर्ष के अनेक अवसर सामने आए हैं लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में माहौल बदला है और यह देखा जा रहा है कि उपद्रवी तत्वों ने लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं या फिर स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल करते हुए समाज के शांत हिस्से को भी हिंसा की भेंट चढ़ाने के प्रयास किए हैं और अपने इस मंतव्य की पूर्ति के लिए अराजक तत्वों द्वारा चित-परिचित तौर-तरीकों के अलावा सूचना संचार के नये संसाधनों का उपयोग भी जमकर किया जा रहा है। हमने देखा कि एससी-एसटी एक्ट में किए गए कानूनी संशोधन के विरोध में एक ही झटके में उठ खड़े हुए इस आंदोलन को राष्ट्रव्यापी स्वरूप प्रदान करने तथा हिंसक बनाने के लिए फेसबुक व वट्र्सअप समेत तमाम नये तौर-तरीकों का इस्तेमाल किया गया और इस पूरे आंदोलन की कमान कहीं भी एक नेता या राजनैतिक दल के हाथ में नहीं रही। लिहाजा जिसकी समझ में जो आया वह उस हिसाब से अपने विचारों को आगे बढ़ाता चला गया और हिंसक हो रहे आंदोलन व डण्डे के दम पर बाजार बंद करा रहे उत्साही नौजवानों के समूहों द्वारा सैल्फी वाले अन्दाज में खींचे गए छायाचित्रों की साझेदारी ने इस आंदोलन को और अधिक उग्रता प्रदान की। अगर तथ्यों की गंभीरता पर गौर करें तो हम पाते हैं कि मौजूदा दौर में सामाजिक स्तर पर चल रहे विभिन्न आंदोलनों या फिर सरकार विरोधी कृत्यों को अंजाम तक पहुंचाने और सूचना एवं संचार क्रांति के माध्यम से इनसे जुड़े तमाम तर्कों व तथ्यों को अपने तरीके से जनता के बीच रखने में युवा वर्ग की अहम् भूमिका है तथा सरकारी तंत्र व राजनेता भी अपनी बात कहने या फिर अपने फैसलों व व्यापक जनहित से जुड़े विषयों को जनता तक पहुंचाने के लिए तकनीकी का बेहतर इस्तेमाल कर रहे हैं और लगभग हर राजनैतिक दल ने अपने-अपने आर्थिक संसाधनों के हिसाब से अपनी आईटी सेल का गठन कर देश के युवा व तकनीकी रूप से शिक्षित वर्ग को अपने साथ जोड़ने का एक अभियान छेड़ा हुआ है लेकिन इस सबके बावजूद राष्ट्र या राज्यों की सरकारें देश में युवा वर्ग के रूप में निहित इस अपार शक्ति के सकारात्मक इस्तेमाल को लेकर कोई योजना नहीं बना रही अर्थात् इसे अगर स्पष्ट शब्दों में कहे तो हमारा सरकारी तंत्र देश की आबादी के एक बड़े हिस्से के रूप में मौजूद युवा वर्ग को रोजगार देने में अक्षम है जिसके कारण पढ़ा-लिखा व बेरोजगार युवा अपनी कुण्ठाओं के प्रदर्शन के बहाने ढूंढा रहा है और हर छोटे-बड़े मुद्दे पर हिंसा को उतारू भीड़ अपने-अपने तरीके से अपनी बात को सही साबित करने में लगी है। वर्तमान में नेताओं को यह लग रहा है कि युवा शक्ति का इस तरह राजनैतिक इस्तेमाल कर वह सत्ता में बने रह सकते हैं और इस तरह के आभासी मुद्दों को खड़ा कर आम आदमी का ध्यान ज्वलंत समस्याओं व अन्य राजनैतिक मुद्दों से हटाया भी जा सकता है लेकिन यह तरीका कब तक कामयाब साबित होता रहेगा कहा नहीं जा सकता और न ही इस तथ्य की ताकीद की जा सकती है कि अगर किसी वक्त हालात वाकई खराब हो गए तो स्थितियों को आसानी के साथ सम्भाला ही जा सकेगा। भारत हमेशा से अमन पसन्दों का देश रहा है और अब तक सामने आयी तमाम गंभीर घटनाओं या फिर जातीय दंगों व अन्य गंभीर वारदातों के बाद हमेशा यह महसूस किया गया है कि इस तरह की खुराफातों व साजिशों के पीछे हमेशा ही कोई न कोई राजनैतिक दिमाग काम करता रहा है लेकिन यह पहला मौका है जब सारे देश में एक साथ अराजकता फैलाने की कोशिशों के लिए किसी एक राजनैतिक दल, सामाजिक संगठन या विचारधारा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता बल्कि तमाम क्षेत्रों से प्राप्त सूचनाओं की विवेचना के आधार पर यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह जो कुछ भी हुआ वह स्वतः स्फूर्त था और विभिन्न कारणों से सरकार के खिलाफ पनप रहा जनता का गुस्सा एक आक्रोश बनकर बाहर निकला जिसे विपक्ष ने राजनैतिक कारणों से शह दी। हो सकता है कि विपक्ष इसे अपनी रणनैतिक जीत समझ रहा हो और जनाक्रोश की इस पराकाष्ठा के बाद यह माना जा रहा हो कि आगामी लोकसभा चुनावों में जनता का यह गुस्सा सत्ता पक्ष के खिलाफ मतदान के रूप में सामने आयेगा लेकिन अगर देखा जाय तो यह तमाम परिस्थितियां दूरगामी परिणामों को दृष्टिगत् रखते हुए ठीक नहीं हैं और जनता की मूलभूत समस्याओं से हटकर सामाजिक विद्वेष पैदा करने वाले इस प्रकार के तमाम मुद्दों का उभार लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सुदृढ़ीकरण के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। हालांकि कानून व न्याय व्यवस्था अपना काम कर रही है और पुलिस का दावा है कि वह दंगाईयों व अराजक तत्वों का चिन्हीकरण कर सामाजिक सौहार्द कायम करने की दिशा में काम कर रही है लेकिन आम आदमी खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकारी तंत्र हालातों से जूझने की जगह माहौल का अन्दाजा लगाने की कोशिश कर रहा है या फिर सरकार यह मान रही है कि अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए सबसे आसान तरीका यही है कि जनता का ध्यान उसकी जरूरतों व ज्वलंत समस्याओं से हटाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों को आपसी बहस व तनातनी में फंसे रहने दिया जाय। खैर वजह चाहे जो भी हो लेकिन यह तय है कि इस तरह के हालात देश व समाज के लिए ठीक नहीं हैं और दलितों के इस आंदोलन के बाद अब सोशल मीडिया के माध्यम से सुनाई दे रही आरक्षण के खिलाफ आंदोलन की सुगबुगाहट को देखते हुए यह कहा जाना मुश्किल नहीं है कि हमने हालातों व हालिया बंद के निष्कर्षों से कुछ सबक लेने की कोशिश नहीं की है।

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