राजनैतिक ज़रूरतो के हिसाब से। | Jokhim Samachar Network

Friday, April 26, 2024

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राजनैतिक ज़रूरतो के हिसाब से।

प्रणव मुखर्जी को आगे कर अपनी उदारवादी छवि चमकाने की फिराक में है संघ।
राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ द्वारा अपने मुख्यालय में आयोजित कार्यक्रम में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को आम्रत्रित कर क्या हासिल हुआ यह तो पता नही लेकिन अगर इस निम्रत्रण को स्वीकार करने वाले पूर्व राष्ट्रपति के उद्बोधन पर गौर फरमायें तो हम पाते है कि प्रणव दा ने अपने इस सम्बोधन से कई विवादो पर विराम लगाने की कोशिश की है और एक अनुभवी व कुशल राजनीतिज्ञ के तौर पर वह अपने इस कार्यक्रम पर उठ रहे कई तरह के सवालो से बचते हुऐ अपनी बात कहने में सफल रहे है। हाॅलाकि पूर्व राष्ट्रपति का पद एंव गरिमा पूरी तरह राजनीति से हटकर मानी जाती है और राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ भी स्ंवय को गैर राजनैतिक संगठन बताता है लेकिन प्रणव मुखर्जी की काॅग्रेसी पृष्ठभूमि व संघ का भाजपा के प्रति स्पष्ट दिखने वाला झुकाव इस कार्यक्रम में प्रणव मुखर्जी की भागीदारी में बड़ी बाधा माने जा रहे थे और संघ की हर गतिविधि पर गम्भीर नज़र रखने वाली तथाकथित रूप से धर्मनिरपेक्ष ताकतें यह अन्दाज़ा लगाने की कोशिश कर रही थी कि प्रणव दा के इस कार्यक्रम को संघ व उससे जुड़ी राजनैतिक विचारधारा कैसे भुना सकती है। हाॅलाकि संघ की ओर से इस तमाम आयेाजन पर कोई विशेष प्रतिक्रिया नही दी गयी है और यह भी कहा जा रहा है कि प्रणव दा संघ के कार्यक्रम में शिरकत करने वाले पहले कागे्रसी पृष्ठभूमि वाले नेता नही है बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गाॅधी व देश के प्रथम प्रधानमन्त्री प. जवाहर लाल नेहरू भी संघ के कार्यक्रमों में शिरकत कर संघ की कार्यशैली की प्रशंसा कर चुके है लेकिन अगर संघ की रणनीति व उक्त आयोजन की गम्भीरता पर गौर करे तो हम पाते है कि राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ इस आयोजन के बहाने अपनी कट्टरवादी छवि से निकलकर अपनी जनस्वीकार्यता बढ़ाना चाहता है और इसके लिऐ उसे संघ के कार्यालयों में शाखाओं के आयोजन के साथ ही साथ रोज़ा इफ्तियार पार्टियों के आयोजन से भी कोई ऐतराज नही है। यह माना कि राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ पूरी तरह गैर-राजनैतिक संगठन है तथा इसका कोई कार्यकर्ता व पदाधिकारी किसी चुनावी प्रक्रिया अथवा राजनैतिक गतिविधि में भागीदारी नही करता लेकिन यह तथ्य भी किसी से छिपा नही है कि वर्तमान में केन्द्रीय सत्ता के साथ ही साथ कई राज्यों की सत्ता पर भी काबिज भाजपा पूरी तरह संघ के निर्देशो पर कार्य करती है और संघ द्वारा अपने पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं को राजनैतिक अनुभव प्राप्त करने के लिऐ समय-समय पर भाजपा के माध्यम से संगठन व सरकार में भेजा जाता रहा है। वर्तमान में जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार केन्द्र में अपना चार वर्षो का कार्यकाल पूरा कर चुकी है और सत्ता के इस खेल में सहयोगी की भूमिका अदा कर रहे राजग के तमाम अन्य छोटे व क्षेत्रीय दल भाजपा से छिटककर अपनी अलग रणनीति के तहत् चुनावी मोर्चे पर जाने की सम्भावना पर विचार कर रहे है तो इन परिस्थितियों में सरकार के आभामण्डल को बनाऐ रखने व भाजपा से छिटककर दूर जाते दिख रहे मतदाताओं को एक बार फिर अपनी ओर आकृर्षित करने के लिऐ तैयारी करना संघ का स्वाभाविक कदम माना जा सकता है लेंकिन मौजूदा दौर में सत्ता पक्ष की मुश्किल यह है कि पूर्व से ही सत्ता के शीर्ष पर काबिज रही काॅग्रेस समेत तमाम अन्य क्षेत्रीय राजनैतिक दल वर्तमान केन्द्र सरकार के गलत फैसलो व निर्णय क्षमता पर सवाल उठाते हुऐ पूरी एकजुटता के साथ चुनावी रण में उतरने की तैयारी कर रहे है और अपनी इस तैयारी को अमलीजामा पहनाते हुऐ उन्होने हाॅलिया उपचुनाव के दौरान साझा प्रत्याशी को मैदान में उतारकर जीत भी हासिल की है। लिहाजा़ भाजपा व उसके रणनीतिकार राष्ट्रीय स्ंवयसेवक संघ को यह लगने लगा है कि मौजूदा दौर में कट्टरवादी रणनीति व उग्र हिन्दुत्व के दम पर सत्ता के शीर्ष को हासिल किया जाना नामुमकिन नही तो मुश्किल जरूर है। शायद यही वजह है कि संघ अब उदारवादी भूमिका में दिखना चाहता है और स्ंवय को सर्वस्वीकार्य साबित करने के लिऐ उसे प्रणव दा जैसे तमाम चित्-परिचित् चेहरों को अपने मुख्यालय में आम्रत्रित करने की जरूरत महसूस होने लगी है लेकिन सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ में आता दिख रहा यह बदलाव चिर स्थायी रहेगा और कट्टरवादी नीतियों के चलते अपनी स्थापना से वर्तमान तक तीन बार प्रतिबन्ध का सामना कर चुकी यह गैरराजनैतिक संस्था इतनी आसानी के साथ अपने हिन्दू राष्ट्र के मूल ऐजेण्डे से हट जायेगी। यह इतना आसान व तर्क संगत तो नही लगता और न ही यह माना जा सकता है कि धर्म के नाम पर देश के विभाजन तक को स्वीकार्य मानने वाली एक विचारधारा इतनी जल्दी व आसानी के साथ उदारवादी रवैय्या व सर्वधर्म सम्भाव की अवधारणा को स्वीकार्य करने के लिऐ तैयार हो जायेगी लेकिन आश्चर्यजनक है कि संघ के कार्यकर्ताओ ने न सिर्फ प्रणव मुखर्जी के उद्बोधन को पूरे ध्यान से सुना है बल्कि करतल ध्वनि के साथ उनके राष्ट्रवाद के सिद्धान्तों व वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धान्त को अपनी स्वीकार्यता भी दी है। इन हालातो में यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि संघ का उद्देश्य प्रणव मुखर्जी को अपने मुख्यालय में बुलाकर सिर्फ एक सनसनी पैदा करना मात्र था या फिर संघ के रणनीतिकार अपने इस आयोजन के बहाने आगामी चुनावों में बंगाल व देश की राजनीति को नई दिशा देने वाले मिथको को ढ़ॅढ़ने का प्रयास कर रहे है। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि 1977 व 1993 में संघ पर लगे प्रतिबन्धो में प्रणव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और मालेगाॅव व मक्का-मस्जिद में हुऐ बम धमाको के वक्त हिन्दु आतंकवाद की अवधारणा पर बल देने वालो में प्रणव मुखर भूमिका में थे लेकिन वर्तमान में प्रणव मुखर्जी ने संघ के संस्थापक सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार को भारत माता का सच्चा सपूत तथा मुगल शासको को मुसलिम आक्रमणकारी करार देकर संघ की सोच को एक नई दिशा देने का काम किया है और प्रचार तन्त्र के माहिर संघ के रणनीतिकार तथ्यो को तोड़-मरोड़ कर पेश करना व किसी भी बात या भाषण से अपने मतलब का मसाला निकालना अच्छी तरह जानते है। यह एक अलग बात है कि सामाजिक विद्वेष फैलाने के लिऐ अथवा मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को धर्म के नाम पर लामबन्द करने के लिऐ लव जेहाद, गो-हत्या व मुसलिमों के सार्वजनिक बहिष्कार जैसे विषयों को प्रमुखता से उठाने वाली संघ की विचारधारा भी प्रकट रूप में सर्वे भवन्तु सुखिनःजैसी अवधारणा पर ही आगे बढ़ने की बात कहती है तथा संघ का कट्टर राष्ट्रवाद भारत में रह रहे मुसलिमों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने के साथ ही साथ अपने राजनैतिक व सामाजिक फैसलो के परिपेक्ष्य में इस तबके का समर्थन भी चाहता है लेकिन वर्तमान में तेजी से बदले राजनैतिक घटनाक्रमों व अपनी राजनैतिक शत्रुता या वैचारिक वैमनस्यता त्यागकर एक झण्डे के नीचे एकत्र होते दिख रहे विपक्ष ने संघ को सजग बना दिया है और वर्तमान में उसकी पहली प्राथमिकता सत्ता पर अपने प्रभुत्व बनाये रखने की है। भाजपा के नीतिनिर्धारक नेतृत्व के रूप में संघ के रणनीतिकारों ने यह महसूस किया है कि सत्ता के सहयोग से इन पिछले चार वर्षो में भाजपा व संघ ने ऐसा बहुत कुछ हासिल किया है जो पिछले 93 वर्षो के इतिहास में उसके लिऐ एक सपना मात्र था और संघ की रणनीति सत्ता का सहयोग लेकर अपने संस्थापक समेत उन तमाम गुमनाम हस्तियों को एक नई पहचान दिलाने की है जिनका ज़िक्र देश की आजा़दी के इतिहास में बहुत ज्यादा नही किया जाता या फिर उस सम्मान के साथ नही किया जाता जिसके वह हकदार है। लिहाज़ा राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की पहली कोशिश सत्ता के शीर्ष पर अपनी कब्जेदारी बनाऐं रखने की है और इसके लिऐ कुछ समय तक सर्वधर्म सम्भाव का मुखौटा ओढ़कर रखने में उसे कोई हर्ज प्रतीत नही होता । वैसे भी अपनी कट्टर हिन्दुत्ववादी रणनीति को आगे बढ़ाने के लिऐ संघ द्वारा वर्तमान तक कई अधीनस्थ संगठनों व विचारधाराओं को जन्म दिया जा चुका है और संघ के यह तमाम अनुंषागिक संगठन अपने एक निश्चित लक्ष्य के साथ समाज को विभाजित करने व भाजपा की राजनैतिक ताकत बढ़ाने के लिऐ अलग-अलग तरीके से काम कर रहे है। इन हालातो में अगर संघ कुछ अन्तराल के लिऐ अपनी मूल अवधारणा से हटता हुआ या फिर सर्व स्वीकार्यता की दिशा में काम करता हुआ प्रतीत होता भी है तो इसमें हर्ज भी क्या है। यह महसूस किया जा सकता है कि इन चार वर्षो में सत्ता के तमाम केन्द्रो पर कब्जेदारी के बावजूद भाजपा अपने ऐजेण्डे को लागू करने में पूरी तरह असफल रही है और लोकतन्त्र के विभिन्न आधार स्तम्भो पर अपनी विचारधारा से जुड़े लोगो को पद स्थापित करने के बाद भी भाजपा के लिऐ अपने समर्थको व कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करना सम्भव नही हो पाया है। इसलिऐं अपने ऐजेण्डे पर आगे बढ़ने के लिऐ उसे यह आवश्यक लगता है कि वह एक बार फिर सत्ता के शीर्ष पदो को हासिल करे और आगामी लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के तथाकथित राष्ट्रवादी चेहरे को आगे कर भाजपा के नेतृत्व वाली पूर्ण बहुमत सरकार बनाने के लिऐ प्रयास किये जाये। अपने इन्ही उद्देश्यों को पूरा करने के लिऐ भाजपा व संघ के रणनीतिकारों ने यह नये जोड़-जुगाड़ का खेल रचा है और अब यह देखना बाकी है कि संघ की इन कोशिशों में प्रणव मुखर्जी का चेहरा कितना काम आता है।

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