मोदी के महिमामण्डन व कांग्रेस के विरोध को आधार बना दोबारा लोकसभा चुनाव जीतने की जुगत में लगी भाजपा।
‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ के नारे के साथ देश की राजनैतिक सत्ता के शीर्ष पर विराजित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ में उनके प्रशंसक व समर्थक यह कहते नहीं थकते कि एक प्रदेश के मुख्यमंत्री व देश के प्रधानमंत्री के रूप में एक लम्बा राजनैतिक जीवन गुजार लेने के बावजूद उनके राजनैतिक जीवन में कोई दाग नहीं है और एक बड़ी राजनैतिक शख्सियत होने के बावजूद उनके तमाम परिजन व भाई-बंधु सामान्य कामकाज से अपने जीवन का गुजारा करते हैं। सामान्य जनजीवन में ऐसी हस्तियां दुर्लभ ही दिखाई देती हैं जो किसी हैसियत या पदवी पर पहुंचने के बाद अपने पद व पहचान का अपने परिजनों को फायदा पहुंचाने की कोशिश नहीं करते और साधारण तौर पर बातचीत की भाषा में ऐसे लोगों को घमण्डी या फिर तुनक मिजाज माना जाता है लेकिन बड़े पद पर पहुंचने के बाद बड़े आदमी के कई अवगुण गुणों में तब्दील हो जाते हैं और व्यक्ति पूजा के इस दौर में निजी प्रशंसा की दृष्टि से बनने वाली सेनाएं या फैन्स क्लब इस तरह की तमाम विशेषताओं का प्रसारण अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए करते हैं। हमने देखा कि मोदी समर्थकों को इस तरह के प्रचार-प्रसार में महारत हासिल है और अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने परिवार व पत्नी तक का त्याग कर देने वाले नरेन्द्र मोदी की कई कमियों व कमजोरियों को उनके समर्थकों द्वारा उनकी योग्यता के रूप में प्रचारित करते हुए एक आभामंडल निर्माण का कार्य उनके राजनैतिक समर्थकों अथवा इस कार्य हेतु तैनात किए गए वेतनभोगी कार्यकर्ताओं द्वारा अनावरत रूप से किया जाता रहा है। यूं तो हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जिन्दगी के तमाम अनछुए पहलू हैं और उनकी शिक्षा-दीक्षा व राजनीति में आने से पूर्व की जीवन-शैली या कामकाज को लेकर अनेक तरह की चर्चाएं हैं लेकिन इन तमाम चर्चाओं में एक तथ्य लगभग समान रूप से सामने आता है कि एक वैरागी के रूप में सन्यासी का जीवन धारण करने के बाद उन्होंने एक लम्बे समय तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक के रूप में देश के तमाम हिस्सों में काम किया है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि सीमित खर्चों में जीवन जीते हुए लक्ष्य की प्राप्ति के उद्देश्यों के साथ संघर्ष करने के आदी संघ के प्रचारकों की अपनी एक नियमित व संतुलित जीवन शैली है और अगर प्रधानमंत्री आवास से छनकर बाहर आने वाली खबरों पर विश्वास किया जाय तो पूरे दिन में अट्ठारह-बीस घंटे काम करने वाले तथा अपनी विदेश यात्राओं के दौरान भी समय का पूरा सदुपयोग करने वाले हमारे प्रधानमंत्री को निजी तौर पर किसी भी तरह का शौक नहीं है। इन हालातों में यह एक बड़ा प्रश्न है कि अपने ढाई-तीन दशक के सार्वजनिक जीवन के दौरान एक लोकसेवक के रूप में मिलने वाले वेतन व अन्य भत्तों का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किस प्रकार उपयोग किया जाता रहा होगा। अगर वह इस धनराशि को अपने परिवार व वृद्ध माता-पिता को बेहतर जीवन देने के लिए खर्च करते तो शायद उन पर कोई आक्षेप नहीं लगता और उनके तमाम भाई-भतीजे अपनी शैक्षिक योग्यता व हुनर के हिसाब से बेहतर रोजगार या कामधंधे कर पाने में सफल होते लेकिन उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि बताती है कि नरेन्द्र मोदी ने एक लोकसेवक के रूप में प्राप्त होने वाले अपने वेतन में से कोई भी पैसा अपने परिवार के कल्याण के लिए खर्च नहीं किया और यह एक बड़ा सवाल है कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन की इस चैथी अवस्था में पहुंचने तक अपने परिवार का ही ध्यान न रखा हो वह इस देश का ध्यान कैसे रख पायेगा। अगर नरेन्द्र मोदी की पत्नी के नजरिये से देखें तो हम पाते हैं कि विवाहित होने के बावजूद एकांकी जीवन जीने के लिए मजबूर की गयी इस महिला का क्या दोष था और अपनी जवानी के उस दौर में एक महत्वाकांक्षी युवा द्वारा की गयी इस हरकत को किन कारणों से सम्मान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। यह स्पष्ट करने के लिए कोई भी सामाजिक चिंतक या मोदी समर्थक तैयार नहीं है लेकिन जिस प्रकार लगभग हर मामले में बड़े आदमी को लेकर समाज के कायदे-कानून बदल जाते हैं ठीक उसी अंदाज में अपने निजी जीवन में नरेन्द्र मोदी द्वारा की गयी गलतियां उनके गुणों में तब्दील हो गयी हैं और उनके समर्थक चिल्ला-चिल्लाकर व्यक्ति पूजा वाले अन्दाज में इन खामियों को योग्यता के रूप में महिमामण्डित करने में जुटे हैं। हकीकत यह है कि ‘मन की बात’ करने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नजरों में दूसरे की भावनाओं या अपने परिजनों के सुख की कोई भी कीमत नहीं है और न ही वह दूसरे की भावनाओं पर तवज्जो देने का हुनर जानते हैं। शायद यही वजह है कि अपने सार्वजनिक जीवन में समस्याओं को सुलझाकर आम आदमी को राहत देने का वादा करने की जगह वह खुले मंचों से कई बार स्वीकार कर चुके हैं कि ‘झोला लेकर आया था और खाली झोला कंधे पर लटका कर चल दूंगा’ लेकिन सवाल यह है कि क्या एक जिम्मेदार प्रधानमंत्री के इस तरह मैदान छोड़ देने की धमकी से समस्याओं का समाधान हो जायेगा और उनको बड़ी उम्मीद से निहारने वाली जनता आसानी के साथ यह स्वीकार कर पायेगी कि देश का नेतृत्व समस्याओं से डरकर भागे। अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से डरकर भागना भी कायरता की ही निशानी है और अगर इस तरह की कायरता देश व समाज का हर व्यक्ति दिखाने लगे तो न्यायालयों में मुकदमों की बाढ़ आ जायेगी व वृद्ध या बुजुर्ग मां-बाप के लिए अनाथालयों में खाली जगह मिलना भी मुश्किल होगा लेकिन मोदी समर्थकों व उनके प्रचार तंत्र ने इस अयोग्यता को उनके आभामंडल से छिपाने की पूरी कोशिश की है और यह बताया जा रहा है कि भारत की राजनीति में स्थापित अन्य नेताओं की तरह मोदी को राजनैतिक भ्रष्टाचार की जरूरत नहीं है क्योंकि वह अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह हंै। देश की सर्वोच्च सत्ता पर भाजपा की कब्जेदारी के इन चार सालों में किसी भी मोर्चे पर यह साबित नहीं हुआ कि सत्तापक्ष ने पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता से काम किया हो या फिर सरकार के मंत्री व सत्ता पक्ष से जुड़े संासद सरकार द्वारा चलायी-बतायी जा रही तमाम योजनाओं का शत्-प्रतिशत् लाभ जनता तक पहुंचाने में सफल रहे हों लेकिन मोदी समर्थकों द्वारा खुद-ब-खुद अपनी ईमानदारी का प्रमाण पत्र बांटा जा रहा है और ढिंढोरा पीटने वाले अंदाज में की जा रही ईमानदारी की घोषणाओं के बीच सरकार यह स्पष्ट करने में नाकामयाब है कि वह तमाम मोर्चों पर असफल क्यों दिख रही है या फिर वह कौन सी मजबूरियां हैं जिनके चलते भाजपा की वर्तमान पूर्ण बहुमत सरकार उन तमाम कानूनों को बनाने, योजनाओं को लाने या घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए बाध्य है जिनका एक सशक्त विपक्ष के रूप में भाजपा द्वारा विरोध किया गया था। हालांकि यह मानने के कई कारण हो सकते हैं कि अपनी असफलताओं व नाकामियों के बावजूद मोदी एक बेहतर प्रधानमंत्री हैं और राजनीति में आने के पीछे उनका कोई छिपा हुआ एजेण्डा नहीं है लेकिन अगर उनके समर्थक या भक्त यह कहने लगे कि राजनीति के मैदान में वह इकलौती ईमानदार शख्सियत है तो इसे अतिशयोक्ति के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता तथा एक राजनैतिक दल व व्यक्ति विशेष द्वारा चार साल तक लगातार सत्ता के शीर्ष पर काबिज रहने के बाद अपनी असफलता व अकर्मण्यता को छिपाने के लिए विपक्ष को दोष देते हुए अनशन या धरने की राजनीति करनी पड़े तो यह समझ जाना चाहिए कि सरकार अपनी रियाया को बेवकूफ समझते हुए उसका ध्यान ज्वलंत मुद्दों से हटाने का प्रयास कर रही है। कितना आश्चर्यजनक है कि परिवर्तन के नारे के साथ सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा राजनैतिक दल आज इस स्थिति में नहीं है कि वह विगत् चुनावों के वक्त अपने ही द्वारा उठाये गये मुद्दों पर खुले मंच से चर्चा कर सके या फिर जनता को अपनी उपलब्धियों से रूबरू करवाने वाले अंदाज में सरकार द्वारा इन पिछले चार वर्षों में चलायी गयी योजनाओं की असलियत व इनके आम जनजीवन पर पड़े प्रभाव को जनचर्चाओं का विषय बनाया जा सके। आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटे भाजपा के नेता व कार्यकर्ता अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए पिछले सरकारों के दौर में हुई गलतियों व गलत फैसलों को मिसाल के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं तथा यह माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को केन्द्र में रखकर तैयार किये गये आभामंडल व हिन्दुत्व के नारे पर भारी पड़ते मुस्लिम आतंकवाद का डर दिखाकर आसानी के साथ अगला लोकसभा चुनाव जीता जा सकता है लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी एक नेता या राजनैतिक दल के चुनाव जीतने मात्र से हमें अपनी समस्याओं के समाधान की गारंटी मिल सकती है। यदि हां, तो यह एक बड़ा सवाल है कि पिछले चुनाव के दौरान दी गयी गारंटी व जुमलों के माध्यम से सामने आये आश्वासनों का क्या हुआ और यदि नहीं, तो क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अथवा उनकी पार्टी को सिर्फ इसलिए वोट दिया जाना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्र की सेवा का बहाना लेकर अपनी पत्नी को छोड़ दिया और जीवन भर उन अहम् व पारिवारिक जिम्मेदारियों से बचते रहे जिन्हें हमारा समाज नितांत रूप से आवश्यक मानता है।