उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में बदस्तूर जारी है शराब विरोधी आन्दोलन उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में चल रहा शराब की दुकानों के विरोध का आन्दोलन बिखराव के साथ किन्तु सतत् रूप से जारी है तथा आन्दोलन की अगुवाई कर रही स्थानीय महिलाओं का मनोबल पुलिस प्रशासन के धमकाने व विभिन्न धाराओं के तहत् मुकदमें दर्ज करने के बावजूद भी टूटता नही दिख रहा है। हांलाकि सरकार का रवैय्या इन तमाम आन्दोलनकारियों को लेकर सख्त नही है, शायद यही वजह है कि सरकार को हो रहे राजस्व के नुकसान के बावजूद अभी तक पूर्व निर्धारित शराब की दुकानों में से आधी ही दुकानें नियमित रूप से खुल-बंद हो रही है लेकिन स्थानीय स्तर पर पुलिस-प्रशासन बंद दुकानों को खुलवाने व शराब विरोधी आन्दोलन में भागीदारी कर रही महिलाओं को धमकाने की पूरी कोशिश कर रहा है। यहीं वजह है कि कुछ स्थानों पर शराब विरोधी आन्दोलनकारी महिलाओं व स्थानीय पुलिस-प्रशासन के बीच हाथापाई की ख़बरें आने लगी है तथा माफिया व अपराधी प्रवृत्ति के लोग स्थानीय स्तर पर पूंजीपति वर्ग व पुलिस प्रशासन से सांठगांठ करके विवादित परिसम्पत्तियों पर कब्जेदारी कर शराब की दुकानें खोलने की कोशिशों में जुटे हुऐ है लेकिन मजे की बात यह है कि कोई भी राजनैतिक दल या बड़ा नेता खुलकर इस शराब विरोधी आन्दोलनकारियों को साथ देता नही दिख रहा और न ही किसी सामाजिक संगठन अथवा जनवादी विचारधारा के आन्दोनकारी व्यक्तित्व द्वारा इन तमाम आन्दोलकारियों को एकजुट कर प्रदेश स्तरीय बड़ा व शराब विरोधी आन्दोलन खड़ा करने का प्रयास किया गया है। यह तथ्य किसी से भी छुपा नही है कि राज्य में भाजपा दो तिहाई से भी अधिक बहुमत के साथ चुनाव जीतकर सत्ता के शीर्ष पर काबिज है और हाल-फिलहाल प्रदेश में कोई छोटे-बड़े चुनाव प्रस्तावित भी नही है। इसलिऐं चुनाव की राजनीति करने वाले नेताओं का ध्यान छुट-पुट रूप से हो रहे इन शराब की दुकान विरोधी आन्दोलन की ओर कम है। वैसे भी उत्तराखंड राज्य गठन के बाद अस्तित्व में आयी प्रदेश की विभिन्न राजनैतिक दलों के नेतृत्व वाली सरकारों की कार्यशैली पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रदेश में नेताओं व शराब व्यवसायियों या माफियाओं के बीच हमेशा ही बेहतर तालमेल रहा है और शराब के व्यवसाय को संगठित रूप देने वाली पौन्टी चढ्ढ़ा की ‘कम्पनी‘ से लेकर छुटपुट रूप से शराब का कारोबार करने वाले छोटे व्यवसायी तक चुनावी मौको व इससे इतर लगभग सभी राजनैतिक दलो की आर्थिक रूप से मदद करते रहते है। हालातों के मद्देनजर नेताओं का शराब की दुकानों के विरोध में हो रहे इस आन्दोलन से कतराना तो समझ में आता है लेकिन पहाड़ के विकास के लिऐ तरह-तरह के ऐजेण्डे व विचारधाराऐं प्रस्तुत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता तथा एनजीओ के नाम पर अब तक अरबो करोड़ों का बजट डकार जाने वाले तथाकथित सामाजिक संगठन व्यापक जनहित के इस मुद्दे से दूरी क्यों बनाये हुऐ है, यह एक व्यापक जांच का विषय हो सकता है। यह ठीक है कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन में आम आदमी की भागीदारी के बाद अस्तित्व में आये उत्तराखंड राज्य में राज्य आन्दोलनकारी घोषित करने के नाम पर मची मतलबपरस्ती की लूट से हैरान व परेशान जनता को एकजुट कर एक लंबे व निर्णायक आन्दोलन के लिऐ तैयार करना आसान नही है और न ही स्थानीय स्तर पर आन्दोलन कर रहे इन तमाम शराब की दुकान विरोधी आन्दोलनकारियों में इतना जज्बा है कि वह शराबबंदी व नशाबंदी जैसे शब्दों के सही मायने समझते हुऐ एक बड़े आन्दोलन की रूपरेखा तैयार कर सके लेकिन यह यकीन जानियें कि शराब की दुकानों के विरोध में लोगो के दिलों में सुलग रही यह छुटपुट आग एक दिन क्रान्ति की ज्वाला को जन्म देगी और उत्तराखंड के लगभग सभी क्षेत्रों में चल रहा यह शराब की दुकानों के विरोध का आन्दोलन एक नये राज्य स्तरीय व प्रेरक आन्दोलन का आधार बनेगा। यह तथ्य किसी से छुपा नही है कि उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से लेकर वर्तमान तक इस राज्य के दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों ही नही बल्कि कस्बाई व शहरी क्षेत्रों में भी जनसुविधाओें का पूरी तरह आकाल है तथा व्यापक जनहित की बात करने वाली सरकारें व प्रदेश के दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्रों का कायाकल्प करने वाले एनजीओ इन पिछले सत्रह सालों में अरबों करोड़ का बजट ठिकाने लगाने के बाद भी जनसामान्य को कोई राहत नही दे पाये है। शायद यहीं वजह है कि स्थानीय स्तर पर होने वाले किसी भी जनान्दोलन के दौरान सबसे पहले यहीं नेता व एनजीओ जनता के निशाने पर आते है और अपनी पोल-पट्टी खुल जाने के डर से नेता व स्थानीय स्तर पर एनजीओ का संचालन करने वाले तथाकथित समाजसेवी बाहरी तौर पर भले ही इन आन्दोलनों के साथ खड़े दिखे लेकिन वस्तुतः उनकी पहली कोशिश होती है कि स्थानीय स्तर पर होेने वाले तमाम आन्दोलन एकजुट होकर बड़ा रूप न ले लें। इसलिऐं यह कहना न्यायोचित नहीं है कि उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में हो रहा शराब विरोधी आन्दोलन वास्तव में स्थानीय स्तर पर खुलने वाली शराब की दुकानों का विरोध मात्र है जिसके नेपृथ्य में महिलाओं के बीच बढ़ रही असुरक्षा की भावना समेत कई कारण है। वास्तविक स्थिति यह है कि आज पहाड़ में शराब एक बड़ी समस्या का रूप ले चुकी है तथा नेताओं द्वारा अपना चुनावी जनाधार तैयार करने के लिऐ पुरूषवादी मानसिकता के बीच अमोघास्त्र के रूप में पेश की जाने वाली शराब सरकारी धन से संचालित कई योजनाओं के कागज से धरती में न उतरने व फाइलों में ही खंड़जं, गूल या सीसी रोड के निर्माण का कारण बन रही है। इन तमाम कमियों व संसाधनों की अनउपलब्धता के चलते स्थानीय स्तर पर लगातार समस्याओं से दो-चार होने वाला महिला वर्ग अपने काम-धाम व पारिवारिक जिम्मेदारियाँ छोड़कर रोजाना सरकारी मशीनरी के विरोध व अपने अधिकारों के लिऐ संघर्ष करने की स्थिति में नही है। इसलिऐं कोई भी मौका मिलते ही उसका पहला गुस्सा शराब पर फूँटता है और लगभग हर पहाड़ी व पारिवारिक महिला यह मानती है कि अगर शराब का यह जंजाल उसके घर-परिवार से थोड़ा दूर ही रहे तो उसके घर की खुशहाली व सुख-शान्ति बनी रहेगी। इसलिऐं कोई भी मौका मिलते ही वह अपने घर, मोहल्ले, गली, गांव या कस्बे समेत जिले तक में शराब की वैध-अवैध बिक्री को बंद करने के लिऐ किसी भी स्तर पर संघर्ष का ऐलान करने से नही हिचकिचाती। बस अगर जरूरत है तो इस संघर्ष को एकजुटता के साथ एक राज्य स्तरीय मंच देने की और हमें पूरा विश्वास है कि राज्य सरकार द्वारा महिलाओं की स्थानीय समस्याओं पर ध्यान न देने की स्थिति में उन्हें देर-सबेर एक बड़ा मंच भी मिल ही जायेगा।