चुनाव मैदान में उतरने से पहले ही खेल से बाहर हुये राकेश शर्मा और रोहित शेखर तिवारी।
उत्तराखंड की राजनीति में तूफान लाने के दावे के साथ चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे दो चर्चित चेहरे नामांकन के लिऐ निर्धारित समय-सीमा के गुजरने से पहले ही नेपृथ्य में खो जायेंगे, ऐसी किसी को उम्मीद नही थी। राजनैतिक विश्लेषक और जनता की नब्ज पहचानने का दावा करने वाले तमाम छोटे-बड़े खबरनवीस यह मानकर चल रहे थे कि चुनावी आचार संहिता के ऐलान से काफी पहले ही अपने पंसदीदा निर्वाचन क्षेत्रों में जुट चुके यह तथाकथित बयानवीर चुनावी मोर्चे पर कुछ न कुछ उथल-पुथल जरूर मचायेंगे लेकिन राजनैतिक दलो द्वारा किये गये टिकट बंटवारे के बाद सामने आयी भागमभाग में अपना-अपना घर संभालने में जुटे दोनों ही राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं ने इनसे इस तरह पल्ला झाड़ा कि इनके प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरने के ख्वाब चकनाचूर नजर आ रहे है। जी हां हम यहां पर बात कर रहे है उत्तराखंड के उस चर्चित नौकरशाह की जिसने राज्य निर्माण से वर्तमान तक अपने करिश्माई अंदाज व राजनैतिक संबंधों के चलते न सिर्फ राज्य की सरकार को अपनी जरूरतों के हिसाब से चलाया बल्कि पिछले दिनो सत्ता पक्ष में हुई बगावत के पीछे जिसके अहम योगदान की चर्चाओं के चलते जिसे राजप्रसाद से बाहर धकिया दिया गया। खबर थी कि परिवर्तन का दावा कर रहे राजनैतिक दल के अनेक बड़े नेताओं के साथ नजदीकी सम्बन्धों का दावा कर रहे इन महाशय ने मान्यवर बनने की जल्दबाजी में ऊधमसिंहनगर के किच्छा निर्वाचन क्षेत्र में अपने चुनाव कार्यालय भी खोल लिये थे। अच्छी खासी चहल-पहल वाले यह चुनावी कार्यालय आज कल सन्नाटे के हवाले है और चर्चा है कि कांगे्रस प्रत्याशी के रूप में खुद मुख्यमंत्री के किच्छा में अवतरित होने की खबरों के बाद नेताओं की नब्ज पहचानने का दावा करने वाले इन महाशय ने अपना इरादा भी बदल लिया है लेकिन ‘चोर-चोरी से जाय पर हेराफेरी से न जाय‘ वाली कहावत पर अगर विश्वास करें तो यह उम्मीद कम ही है कि यह महोदय अब चुपचाप हिमाचल या दिल्ली का रास्ता नापेंगे और फिर राजनीति में स्थापित होने के लिऐ उन्होंने कुछ गुरूओं को जो बयाना दिया है उसका हिसाब-किताब न होेने तक तो राजनीति या फिर सत्ता हासिल होने पर शीर्ष नौकरशाह के रूप में तो इनका दावा बनता ही है। वैसे भी इनके हिमायती हर तरफ है सो यह चुनाव लड़े या ना लड़े इनकी दुकान तो अभी बंद नही होती। अब अगर दूसरे दावेदार की बात करें तो एक पूर्व मुख्यमंत्री के कानूनी वारिस के रूप में लंबी लड़ाई लड़कर यह महाशय जब पहले-पहले उत्तराखंड की ओर आये तो यह माना गया कि अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले इस जीवट योद्धा के अपने निजी जीवन में भी कुछ उसूल और संस्कार होंगे लेकिन पिता के नाम का इस्तेमाल कर जल्द ही राजपाठ हासिल करने के जुगाड़ में लगे इस युवा के तेवर देखकर पहली ही नजर में यह अंदाजा आ गया कि अब पिताश्री की छिछालेदार होना तय है। अपने राजनैतिक अनुभव व योग्यता के बल पर राजनीति में एक बड़ा मुकाम हासिल करने वाले इस वयोवृद्ध नेता ने उत्तराखंड सरकार पर तोहमतें लगाते हुऐ जब उत्तर प्रदेश की ओर प्रस्थान किया तोे वहां इन्हें प्रर्याप्त आदर व देखरेख मिली तथा न्यायालय के फैसलो के अनुरूप प्राप्त इनके पुत्र को भी उ.प्र. सरकार ने पूरा सम्मान देते हुये राज्य मंत्री का ओहदा दिया। उस समय यह माना गया कि कांग्रेस द्वारा की जा रही अनदेखी के मद्देनजर इस वयोवृद्ध नेता ने यह सही कदम उठाया और बाजरिया समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश या उत्तराखंड की राजनीति में हस्तक्षेप के लिऐ जमीन तलाशने के परिपेक्ष्य में अपने कानूनी पुत्र को राजनीति क, ख, ग सिखाने की कोशिशें उन्होंने तेज कर दी है। उस समय माना गया कि चार बार उ.प्र. की पूर्व मुख्यमंत्री रह चुकी यह शख्सियत अगर अपने बेटे को अपने ही अंदाज में समाजवादी पाठशाला से राजनीति शुरू करने की सलाह दे रही है तो उसकी कोई न कोई वजह जरूर होगी और इसके लिऐ प्राथमिक तैयारियां भी शुरू की जा चुकी होगी लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव घोषित होने से लगभग चार-पांच माह पूर्व अपनी पुरानी कर्मभूमि में डेरा जमा इस नेता ने तमाम राजनैतिक पंडितों को एक बार के लिऐ फिर स्तब्ध कर दिया। इसी बीच जन्मदिन का भव्य आयोजन कर सत्ता पक्ष व विपक्ष के तमाम छोटे-बड़े नेताआंे को इक्कट्ठा कर अपनी ताकत का अहसास कराने के इनके अंदाज और मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान की गयी सुशीला तिवारी मेडिकल काॅलेज जैसी तमाम बड़ी शुरूवातों की हालत को लेकर इनके द्वारा व्यक्त की गयी चिन्ताओं को देखकर ऐसा लगा कि पुत्र मोह में यह एक बार फिर सक्रिय राजनीति में वापसी चाह रहे है। इसी बीच इनके शीघ्र भाजपा में शामिल होने की चर्चाऐं उड़ती रही और कतिपय राजनैतिक विश्लेषकों द्वारा यह माहौल बनाया गया कि बाप-बेटे की इस जोड़ी के भाजपा में जाते ही कुमाँऊ के प्रवेश द्वार व तराई-भावर वाले इलाके में कांग्रेस बस समाप्त ही हो जायेगी। गलतफहमी के शिकार भाजपा के बड़े नेताओं ने इस चर्चा को सही माना और पूरे जोर-शोर के साथ मयपुत्र इस दिग्गज नेता के भाजपाई होने की रस्म अदा की गयी लेकिन कहीं कोई हंगामा नही हुआ और न ही कोई राजनैतिक भूचाल आया बल्कि भाजपा की इस उपलब्धि को उससे जुड़े तमाम नेताओं ने एक शर्मशार घटनाक्रम माना और भूलसुधार वाले अंदाज में यह सफाई दी गयी कि भाजपाईकरण की यह रस्म पूरी तरह निभाई नही गयी और अभी सिर्फ आर्शीवाद का ही कार्यक्रम अंजाम दिया गया है। यह माना गया कि भाजपा के खेमे में शामिल होकर होनहार पूत कुछ करिश्मा करेंगे और पूरे कुमाँऊ के न सही कम सक कम नैनीताल व ऊधमसिंहनगर के चुनावी समीकरणों में तो कुछ बदलाव आयेगा लेकिन एकाएक ही जारी हुई भाजपा के शेष प्रत्याशियो की सूची में इस होनहार नेता का नाम कहीं नहीं दिखा और जनता के बीच यह संदेश गया कि कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा को भी इस अनमोल रत्न की कद्र नही है। अब देखना यह है कि समाजवादी दामन में लिपटे इस तथाकथित कांग्रेसी का भाजपाईकरण होने के बाद राजनीति के खेल के धुरन्धर खिलाड़ी माने जाने वाले तमाम बड़े भाजपाई नेता इस सुंदर-सलोने चेहरे व इससे जुड़े बड़े नामों का कैसे फायदा उठाते है लेकिन यह लगभग तय हो चुका है कि भाजपा की तथाकथित उपलब्धि कहा जा सकने वाला यह सितारा हाल-फिलहाल तो उत्तराखंड की राजनीति को रोशन नही करेगा।
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