उत्तराखण्ड के लिए नुकसानदायक हो सकती है अराजक तत्वो के महिमामण्डन की परम्परा व बन्दूको के भरोसे चलने वाली राजनीति।
हमने देखा कि उत्तर प्रदेश में नई पीढ़ी के नेता अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी व सरकार को नई दिशा देते हुए जनता के बीच यह सन्देश देने की कोशिश की है कि सपा अब गुण्डो की पार्टी नहीं है और न ही उसे माफियाओं व अराजक तत्वों केा आगे कर चुनावी जीत हासिल करने मंे कोई रूचि है। हो सकता है कि सपा में इस बीच जो कुछ भी हुआ वह सरकार व समाजवादियों की जनता के बीच छवि सुधारने की रणनीति का एक हिस्सा हो और इस पूरी जंग में खुद को हारा हुआ मान रहे मुलायम सिंह इस हार के पीछे छुपी जीत को स्पष्ट देख पा रहे हो लेकिन इतना तय है कि अखिलेश ने वक्त रहते जनता की नब्ज को पकड़ा है और एक समझदार नेता की तरह उन्होने अपने अनुभवों से यह जाना है कि जनता को अब जोर-जबरदस्ती की राजनीति या बन्दूको की धमक पसन्द नही आ रही है। इसके ठीक विपरीत उत्तराखण्ड में नेताओं व माननीयों की बढ़ती ठसक को दर्शाने के लिए जरूरी माना जाने लगा सुरक्षाकर्मी तथा बन्दूक या पिस्टल के लाइसेन्स को लेकर लगातार बढ़ती दिख रही मारामारी को देखाकर ऐसा लग रहा है कि यहाँ के नेता या तो जनता की नब्ज पकड़ पाने में पूरी तरह असफल है या फिर राजनीति को चलाने के लिए जरूरी माने जाने वाली जुगाड़ के धन्धो की धन्धेबाजी ने उन्हे इतना असुरक्षित बना दिया है कि वह खुद को कमजोर महसूस करते हुए बन्दूको से घिरे रहना व कुछ अराजक तत्वों को साथ रखना जरूरी समझते है। एक समय था जब उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था और उत्तर प्रदेश में चल रही समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान सपा के हर छेाटे-बड़े नेता का वैध-अवैध असले से लैस होना सामान्य बात समझी जाती थी। उस दौर में पहाड़ के लोगो ने इस अराजकता के खिलाफ संघर्ष किया तथा इतिहास गवाह है कि ऐसे अनेक मौके आये जब सपा के नेता बने गुण्डा तत्वों ने आन्देालनकारी साथियों पर बन्दूके तानी या सीधे फांइरिग की। हको की लड़ाई के जुनून में कोई भी आन्दोलनकारी गोली से डरता हुआ नही दिखा और न ही सत्ता पक्ष अथवा विपक्ष के किसी सम्मानित नेता को यह जरूरत महसूस हुई कि वह इस अराजकता से डरकर या आत्मरक्षा के नाम पर किसी भी तरह का वैध-अवैध असले साथ लेकर चले। उस दौर में या फिर राज्य गठन के तत्काल बाद भी पहाड़ो के राजनैतिक दौरो पर निकलने वाले नेता व जनप्रतिनिधि अपनी सुरक्षा के लिए जिम्मेदार सरकारी सुरक्षाकर्मियों को यह ताकीद देते थे कि सार्वजनिक स्थलो व जनसभाओ के दौरान वह उनसे एक निश्चित दूरी बनाकर रहें या फिर अपने हथियारों को इस तरह रखे कि जनता के बीच उनका गलत प्रभाव न पड़े। मजे की बात यह है कि इस ताकीद में आदेश का नही बल्कि अनुरोध का पुट झलकता था और सुरक्षाकर्मी भी माहौल की नजाकत भाॅपते हुए इस तरह के दिशा निर्देशो पर पूरी तरह अमल करते थे। अगर गौर से देखा जाए तो उत्तराखण्ड की राजनीति के शीर्ष पर कहे जा सकने वाले नेताओं की जीवनशैली में आज भी कोई बदलाव नही आया है और प्रदेश के वर्तमान मुखिया हरीश रावत समेत प्रदेश की राजनीति के शीर्ष पर आज भी एक दर्जन से अधिक ऐसे बड़े नेताओं या मन्त्रियों की गिनती की जा सकती है जो जनता के बीच रहने पर अपने सुरक्षाकर्मियों व खुद को संगठन अथवा नेता का समर्थक कहने वाले अराजक तत्वो से खुद को दूर रखना ही पसन्द करते है लेकिन इससे नीचे की स्थिति अब उतनी सहज नहीं दिखाई देती और न ही हम यह कह सकते है कि राज्य की राजनीति पर प्रभावी पकड़ रखने वाले राजनैतिक दल अब भी पूर्व की तरह ही बेदाग व स्वच्छ छवि वाले नेताओं या कार्यकर्ताओ को अपने साथ जोड़ना अपनी शान समझते है। इसे समाज में आ रहे बदलाव का असर कहे या फिर राजनैतिक दलो के मीडिया मैनेजमेन्ट की कमी लेकिन यह सच है कि जिस पहाड़ क बारे में यह माना जाता था कि अगर यहाँ किसी प्रत्याशी को कोई भी छोटा-बड़ा चुनाव हरवाना है तो उसके समर्थन में कुछ वैध-अवैध असलाधारी शामिल होकर उसके निर्वाचन क्षेत्र में घूमना शुरू कर दे तो वह निश्चित तौर पर चुनाव हार जायेगा लेकिन वर्तमान में हालत यह है कि तमाम आपराधिक चरित्र व अराजक तत्व न सिर्फ सार्वजनिक मंचो से राजनैतिक दलो में शामिल हो रहे है बल्कि उनके स्वागत् कार्यक्रमों में पूरी दंबगता के साथ यह घोषणा भी की जा रही है कि अमुक व्यक्ति के दल में शामिल होने के बाद न सिर्फ प्रत्याशी की लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा है बल्कि उसके चुनाव जीतने की सम्भावना भी बढ़ गयी है। समझ में नही आता कि इस तरह का परिवर्तन समाज की सोच में आ रहा है या फिर नेताओं के चाल-चरित्र में और वह कौन सी वजह है जो उत्तराखण्ड जैसे शान्त व अपराध विहीन माहौल वाले जनप्रतिनिधियों को मजबूर कर रही है कि वह राजनीति में अपनी सफलता सुनिश्चित करने के लिए अपने राजनैतिक दल को अपराधियों की शरणस्थली बना ले। यह ठीक है कि उत्तराखण्ड में मोटी कमाई वाले माने जाने वाले शराब, खनन अथवा ठेकेदारी के व्यवसाय में नेताओ के बढ़ते हुए दखल को देखते हुए पहले से ही इन धन्धो पर काबिज परिवारों की नई पीढ़ी ने राजनीति में अपनी दखलंदाजी बढ़ाने की कोशिश शुरू कर दी है और काम धन्धे की तलाश में बाहर से उत्तराखण्ड की ओर रूख करने वाले आस पास के क्षेत्रो के दबंग व्यवसायियों द्वारा अनेक मौके पर दिखाई जाने वाली दंबगता व अराजकता ने भी स्थानीय युवाओं को मजबूर किया है कि वह किसी भी तरह से सशस्त्र हो अपनी रोजी-रोटी को बनाये रखने का प्रयास करे लेकिन इन तमाम विषयों को राजनीति से दूर रखा जाना जरूरी था जो कि हमारे नेताओ के काम करने के गलत तरीके व स्थानीय युवाओं को प्राथमिकता देने के स्थान पर बाहरी लोगो पर ज्यादा तबज्जों दिये जाने के कारण सम्भव नही हो पा रहा। आज उत्तर प्रदेश की राजनीति का छीना-झपटी व गुण्डा तत्वो के हाथो से बाहर निकलकर विकास के नारे पर केन्द्रित हेाने का संकेत देना तथा उत्तराखण्ड में स्थानीय स्तर पर आपराधिक तत्वों व गलत मानसिकता को महिमा मण्डित किया जाना यह संकेत दे रहा है कि राज्य बनने के इन सत्रह वर्षों के भीतर समाज में तेजी से आ रहा बदलाव हमें कहां ले जा रहा है। अगर वक्त रहते इन हालातो को नही सुधारा गया तो वह दिन दूर नही जब राज्य के मैदानी इलाकों में गूॅज रही बन्दूकों की धमक व अराजक तत्वो का बोलबाला पहाड़ो पर भी अपना असर दिखाने लगेगा और जिस दिन उत्तराखण्ड के दुर्गम व दुरूह क्षेत्रो में बंदूकों की खेती शुरू हो गयी, वह दिन इस पहाड़ी राज्य के नेताओ, जनता व व्यवस्था के लिए उलटी गिनती शुरू करने वाला हो सकता है।