परिसम्पत्तियों के बँटवारे के नाम पर | Jokhim Samachar Network

Friday, April 26, 2024

Select your Top Menu from wp menus

परिसम्पत्तियों के बँटवारे के नाम पर

सोषल मीडिया पर तेजी से चर्चाओं में हैं उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्से को उत्तराखंड से मिलाने की सम्भावनाएं।
उत्तराखंड राज्य को अस्तित्व में आये सत्रह साल से भी ज्यादा का समय हो चुका है और इन सत्रह सालों में राज्य की सत्ता के शीर्ष पर तीन जनता द्वारा चुनी गयी व एक कामचलाऊ सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर चुकी है जबकि वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने राज्य के नौवें मुख्यमंत्री के रूप में वर्तमान तक सत्ता की बागडोर संभाली हुई है या फिर यह भी कह सकते हैं कि राज्य की चैथी जनता द्वारा चुनी गयी सरकार के मुखिया के रूप में जनपक्षीय फैसले लेने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा त्रिवेन्द्र सिंह रावत को नियुक्त किया गया है। अगर व्यापक जनहित के दृष्टिकोण से बात करें तो हम पाते हैं कि राज्य गठन के इन सत्रह वर्षों में उत्तराखंड की सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने वाली तमाम विचारधाराएं व नेता इस राज्य के सर्वांगीण विकास को लेकर उदासीन रही है या फिर यह भी हो सकता है कि अपनी कुर्सी पर विराजमान होने के साथ ही शुरू होने वाली कुर्सी संभालने व बचाकर रखने की मजबूरी ने पूर्व के मुख्यमंत्रियों को राज्य की जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए बड़े फैसले लेने का मौका ही न दिया हो लेकिन वर्तमान पूर्ण बहुमत की सरकार इन तमाम बंधनों से मुक्त लगती है और सत्तापक्ष को सदन में प्राप्त दो तिहाई बहुमत व राष्ट्रीय राजनैतिक पटल पर तेजी से लहराता दिख रहा भाजपा का परचम यह इशारे कर रहा है कि प्रदेश की वर्तमान भाजपा सरकार किसी भी तरह के दबाव में आए बगैर बड़े फैसले ले सकती है। उपरोक्त के साथ ही साथ दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता व प्रदेश की तमाम सीमाओं को छूने वाले राज्यों की सत्ता पर भी भाजपा की कब्जेदारी इस उम्मीद को और ज्यादा बढ़ाती है तथा ऐसा लगता है कि अपने गठन के इन सत्रह सालों में यह राज्य जिन हक-हकूकों को हासिल नहीं कर पाया वह सब अब एक साथ इस प्रदेश की जनता को मिलने ही वाले हैं। नयी सरकार ने इस दिशा में प्रयास भी किए हैं जिसके तहत जानकारी में आया है कि उत्तराखंड व उत्तरप्रदेश के बीच परिवहन संबंधी तमाम विवादों व कर्मचारियों के आबंटन से जुड़े तमाम मुद्दों को निपटाने के अलावा त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने उत्तरप्रदेश के साथ परिसम्पत्तियों के बंटवारे से जुड़े मामलों में भी ठोस प्रयास शुरू किए हैं जिसके तहत उत्तराख्ंाड के हरिद्वार में उत्तरप्रदेश सरकार की परिसम्पत्ति माना जा रहा एक होटल भी उत्तराखंड के हिस्से में आया है लेकिन उत्तराखंड सरकार की इस पहल से कई अन्य चर्चाओं को भी बल मिला है और नहरों, जलाशयों व पूर्व से चल रही जल विद्युत परियोजनाओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उत्तराखंड सरकार इन तमाम विषयों पर अपना स्पष्ट दृष्टिकोण व पक्ष रख पाने में पूरी तरह असफल रही है। उपरोक्त परिसम्पत्तियों के विवाद निपटने-निपटाने के लिए बढ़ी बातचीत व बैठकों के दौर ने कुछ नयी आशंकाओं को बल दिया है और सोशल मीडिया समेत सामान्य जन चर्चाओं के दौरान यह तथ्य कई तरीके से सामने आ रहे हैं कि वर्तमान में केन्द्र के साथ ही साथ उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड में भी भाजपा की सरकार होने के चलते यह राजनैतिक दल उत्तराखंड व उत्तरप्रदेश भूमि बंटवारे के नाम पर कई तरह की समस्याओं का समाधान चाहता है। हालांकि इन चर्चाओं में उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों को काटकर हरियाणा के साथ मिला देने व उत्तरप्रदेश के वृहद स्वरूप को छोटा करने का जिक्र भी कई तरह से किया जा रहा है लेकिन किसी भी सरकार द्वारा इस परिपेक्ष्य में अधिकाधिक सूचना जारी नहीं की गयी है और न ही सरकारी तंत्र का कोई हिस्सा इस तरह की खबरों का खंडन करने को ही तैयार है। लिहाजा दो राज्यों के बीच पिछले सत्रह वर्षों से लटके परिसम्पत्तियों के बंटवारे पर सरकारी सक्रियता के सामने आते ही विवादित व भ्रामक तथ्यों को बढ़ावा देकर आम जनमानस के बीच असमंजसता व असुरक्षा के माहौल को बढ़ाने में किन लोगों का हाथ हो सकता है या फिर इस तरह की चर्चाओं को बढ़ावा देकर क्या साबित करने की कोशिश की जा रही है, इन तथ्यों की व्यापक स्तर पर जांच होनी चाहिए या फिर सरकारी तंत्र ने खुलकर स्वीकार करना चाहिए कि वह वाकई इस दिशा में काम कर रहा है। यह ठीक है कि किसी भी राज्य की सरकार अथवा किसी अन्य सरकारी प्रतिष्ठान ने उ.प्र. के इस संभावित व नये विभाजन को स्वीकार नहीं किया है और न ही राज्य पुर्नगठन आयोग अथवा ऐसी ही किसी संस्था द्वारा इस संदर्भ में कोई दिशा निर्देश या सलाह दिये जाने की खबर है लेकिन उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले समेत बिजनौर के कुछ इलाकों को उत्तराखंड से मिलाये जाने की चर्चाओं के पीछे भी कुछ न कुछ वाजिब कारण अवश्य रहे होंगे और अगर राजनैतिक समीकरणों की दृष्टि से गौर करें तो हम पाते हैं कि इस तरह का कोई भी बंटवारा भाजपा के पक्ष में लगता है क्योंकि उ.प्र. से सहारनपुर व बिजनौर को अलग कर उत्तराखंड में शामिल करने तथा मुजफ्फरनगर व मेरठ समेत तमाम जाट बहुल इलाकों को हरियाणा में मिला देने के बाद न सिर्फ उत्तरप्रदेश में तेजी से सर उठाती दिख रही हरित प्रदेश की मांग का वाजिब समाधान हो जाता है बल्कि इस क्षेत्र की राजनीति में हावी दिखने वाले जाट नेताओं चैधरी अजीत सिंह व किसानों से जुड़े टिकेत परिवार को अलग-थलग कर बसपा की नेता मायावती को भी कमजोर करते हुए भाजपा एक साथ कई राजनैतिक निहितार्थ पूरे करती दिखती है। हालांकि यह सब कुछ इतना आसान नहीं है और सरकार द्वारा इस दिशा में उठाए गए किसी भी कदम के बाद उत्तराखंड की जनता द्वारा इन फैसलों का विरोध किया जाना निश्चित ही लगता है क्योंकि सहारनपुर के साथ ही साथ बिजनौर के भी एक बड़े इलाके को उत्तराखंड में शामिल किए जाने के बाद इस प्रदेश का सम्पूर्ण भौगोलिक स्वरूप व प्राथमिकताएं बदल जाना तय है तथा बदली हुई प्राथमिकताओं के साथ इस राज्य के गठन के परिपेक्ष्य में किए गए लम्बे जनान्दोलन व अन्य कुर्बानियों का कोई मायना ही नहीं दिखाई देता है लेकिन अगर भाजपा के इतिहास पर एक नजर डालें तो यह अहसास होता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दिशा निर्देश पर काम करने वाली भाजपा की तमाम सरकारें अपने राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जन भावनाओं के विपरीत इस तरह के विवादित फैसले लेती रही है और सरकार के किसी भी निर्णय अथवा निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले संघ के जमीनी कार्यकर्ता जनसामान्य के बीच बनी अपनी पैठ के जरिये इस तरह के फैसलों के जनमत पर पड़ने वाले प्रभाव व इसके परिणामस्वरूप सामने आने वाले आंदोलनों की टोह लेते रहे हैं।लिहाजा इन तमाम संदर्भों में जागरूकता व सजगता अति आवश्यक है और इससे भी ज्यादा जरूरी है कि जनता के बीच काम कर रहे तमाम सामाजिक व जागरूक संगठन इन विषयों को लेकर सरकार व सत्तापक्ष के जनप्रतिनिधियों से सवाल-जवाब करे ताकि अगर सत्तापक्ष अंदरूनी स्तर पर कुछ बड़े फैसले लेने व गुप्त समझौते करने की सोच भी रहा हो तो समय की आवश्यकता को देखते हुए जनमत को राज्यहित में खड़ा किया जा सके। हमने देखा है कि सत्ता के शीर्ष पर अपनी कब्जेदारी के दौरान भाजपा ने किस तरह अपने राजनैतिक हितों के लिए उत्तराखंड राज्य का गठन करते वक्त सीमाओं के बंटवारे किए और जनभावनाओं के विपरीत जाकर न सिर्फ राज्य का नाम बदला बल्कि राज्य की स्थायी राजधानी के मुद्दे को ऐसा लटकाया कि यह वर्तमान में स्थानीय जनता व नेताओं के लिए एक समस्या का रूप ले चुका है। इसलिए उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों को उत्तराखंड से मिलने की आशंकाओं को एक सिरे से नकारकर अनदेखा किया जाना सही नहीं है।

About The Author

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *