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Saturday, April 27, 2024

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दांव पर लगा भविष्य

विभिन्न बोर्डो के हाईस्कूल व इन्टरमिडिएट के नतीजे सामने आने के बाद माहौल में दिखने लगा है एक अलग किस्म का तनाव।
उत्तराखंड शिक्षा परिषद समेत तमाम बोर्डो व शैक्षणिक संस्थानों का वार्षिक परिक्षाफल आ चुका है तथा दशकों से चले आ रहे प्रचलन के क्रम में हाईस्कूल व इन्टरमिडिएट के परीक्षाफल को लेकर बना कौतहुल, जिज्ञासा या फिर छात्रों समेत अभिभावकों में भी उत्सुकता का माहौल बरकरार है। हांलाकि जिन देशों की शिक्षण व्यवस्था को मापदण्ड मानकर हमने शिक्षा व परीक्षा के इस तौर-तरीके को अपनाया है वहां परीक्षा व परीक्षाफल को लेकर छात्रों व अभिभावकों में यही माहौल रहता है या फिर दसवीं व बारहवी के परीक्षाफल को छात्र-छात्राओं की योग्यता का मानक मानते हुऐ इस परीक्षाफल को विशेष अहमियत दी जाती है, ऐसी कोई खबर हमारे पास नही है लेकिन चली आ रही परम्परा और परिपाटी के क्रम में हम हर बार छात्र-छात्राओं की मैरिट, बोर्ड के रिजल्ट और परीक्षा फल के आधार पर शिक्षा की गुणवत्ता जैसे विषयों पर चर्चा करके सरकारी संरक्षण में अथवा निजी एवं मिशनरी की देख-रेख में चलने वाले विद्यालयो में चल रहे पढ़ाई के स्तर आदि की चर्चा जरूर करते है तथा तमाम बोर्ड, स्कूल अथवा संस्थान अपनी योग्यता के क्रम को प्रदर्शित करने के लिऐ अपने मेधावी छात्र-छात्राओं को प्राप्त अंको का पूरा ब्योरा विभिन्न माध्यमों से जनता के बीच लाकर अपनी गुणवत्ता को प्रदर्शित करने की पूरी कोशिश करते है। यह प्रक्रिया कितनी सही अथवा कितनी गलत है तथा विभिन्न बोर्डो से संचालित इन परिक्षाओं में छात्र की प्रतिभा का अंाकलन करने के लिऐ रटे-रटाये फार्मूले की तर्ज पर होने वाली अंक प्रदान करने की पद्धति में कितना हेर-फेर है, इस विषय पर काफी लंबी चर्चा की जा सकती है लेकिन स्कूलों का रिजल्ट सामने आने के बाद पुलिस की जानकारी में आने वाले बच्चों की आत्महत्या व घर से भागने के अलावा छोटे-छोटे बच्चों के मानसिक तनाव में रहने की स्थितियों को देखते हुऐ यह जरूर कहा जा सकता है कि मध्यम वर्ग के बीच प्रतिष्ठा व भविष्य संभालने के लिऐ एक मात्र संसाधन मात्र समझा जाने वाला नम्बरों को यह खेल कई मामलों में समाज को मानसिक रूप से बीमार बना रहा है और आधुनिक भारत की नई पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा शारीरिक व मानसिक रूप से तंदरूरस्त होने की जगह कई तरह की बीमारियों व नशे का शिकार होता जा रहा है। यह ठीक है कि किसी भी संस्थान अपना बोर्ड के अन्र्तगत् दी गयी शिक्षा के बाद विद्यार्थी का अंाकलन किया जाना जरूरी है और आंकलन के इस आधुनिक तरीके में ली जाने वाली परीक्षा के अन्र्तगत् विद्यार्थी के साथ ही साथ शिक्षक की क्षमताओं व उसके द्वारा अपने कार्यवृत्त के प्रति निभायी जा रही जिम्मेदारियों की भी जानकारी सामने आती है लेकिन सिर्फ परीक्षा में प्राप्त अंको के आधार पर किसी भी छात्र अथवा छात्रा के जीवन में सफल अथवा असफल होने की गारन्टी नही ली जा सकती और न ही इन छोटी-बड़ी परिक्षाओं में प्राप्तांको को जीवन की सफलता का आधार बनाया जा सकता है। इसलिऐं सरकार को चाहिऐं कि वह अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुऐ शिक्षा के व्यवसायिकरण को बढ़ावा देने वाले नम्बरों के इस खेल पर अविलम्ब रोक लगा हाईस्कूल व इन्टरमीडिएट की परिक्षाओं को विशेष तवज्जों दिये जाने का यह सिलसिला बंद करें और देश की आर्थिक व सामाजिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुऐ विद्यार्थियों को इस तरह शिक्षित किया जाय कि देश की युवा पीढ़ी किसी पर बोझ न बने। हांलाकि इस विचार को गलत बताने वाले कुछ बौद्धिक तर्कशास्त्री यह मानते है कि स्कूलों में प्राथमिक व जूनियर स्तर पर परीक्षाऐं न लिये जाने के सरकारी फैसले ने देश की शिक्षा व्यवस्था का बंटाधार ही किया है और कक्षा आठ के बाद एकाएक ही पढ़ाई का बोझ बढ़ने व परीक्षा में असफल होने के डर से कक्षा आठ के बाद स्कूलों में उपस्थिति घटी है लेकिन हमारा मानना है कि यह असफलता विद्यार्थियों की न होकर सरकारी तंत्र की है क्योंकि उसने एक बड़ा बदलाव लाने के फैसले के बावजूद अपने तौर-तरीके व सोच में कोई बदलाव नही किया है। सरकार द्वारा कक्षा आठ तक किसी भी छात्र अथवा छात्रा को फेल न करने अथवा परीक्षा न लिये जाने के फैसले के पीछे सभी छात्र-छात्राओं को आठ पास का तमगा देने का उद्देश्य नही था बल्कि इस फैसले को लागू करने के लिऐ तार्किक संघर्ष करने वाले लोग यह चाहते थे कि परीक्षाओं का डर हटने के बाद छात्र छात्राओं का संर्वागीण विकास हो और स्कूलों में न सिर्फ छात्र-छात्राओं की संख्या बढ़े बल्कि इस अन्तराल में विद्यार्थियों की अभिरूचि का अनुमान लगाते हुये उसे उस दिशा में रोजगारपूरक शिक्षा लेने के लिऐ प्रोत्साहित किया जाय जो कि वास्तव में उसे पसंद हो लेकिन अफसोस शिक्षा के क्षेत्र में वर्षो से चले आ रहे एक से ढ़र्रे को तोड़ने में शिक्षाविद् नाकाम रहे और एक बड़े परिवर्तन का आगाज सही रणनीति के आभाव में आधे-अधूरे में ही छूट गया। वर्तमान में हालात यह है कि सरकारी तंत्र अपनी जिम्मेदारियों से विमुख होकर सबकुछ खुले बाजार को सौंप देना चाहता है और शिक्षा को व्यवसाय बना इसका बाजारीकरण करने में तुले शिक्षा क्षेत्र के माफिया यह नही चाहते कि छात्रों व अभिभावकों के बीच नम्बरों को लेकर होने वाला दबाव कम हो। शायद यही वजह है कि हाईस्कूल व इन्टरमीडिएट के नम्बरों को विशेष तवज्जों देने वाले शैक्षणिक तौर-तरीके से किसी भी तरह का एतराज जताने की जगह हम व हमारा मीडिया जगत इस तर्कहीन बहस में उलझा है कि किस स्कूल अथवा जिले से कितने छात्र-छात्राओं को कितने-कितने प्रतिशत् अंक प्राप्त हुये या फिर छात्रों के अपेक्षाकृत छात्राओं के पास होने को प्रतिशत कितना रहा और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की जगह निजी अथवा पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं का परीक्षा फल ज्यादा बेहतर क्यों है? अपनी निजी जिन्दगी मे हम सब यह महसूस करते है कि किसी भी परीक्षा में सफलता अथवा असफलता के आधार पर या फिर परीक्षा में प्राप्त अंको के प्रतिशत् के आधार पर यह तय नही किया जा सकता कि सफलता अथवा जीवन से संतुष्टि के रहस्य क्या है और न ही किसी परीक्षा में सफलता अथवा प्राप्त बेहतर अंको के आधार पर यह तय किया जा सकता है कि अपने बेहतर भविष्य के लिऐ विद्यार्थी ने कौन सी दिशा में आगे बढ़ने का मार्ग-चयन करना चाहिऐ लेकिन इस सबके बावजूद हम सभी किसी न किसी मोड़ पर अपने नौनिहालों से यह अपेक्षा करते है कि वह अपनी हर छोटी-बड़ी परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करें और उन तमाम अपेक्षाओं को पूरा करें जो कि संसाधनों के आभाव में हम शायद नही कर पाये थे। हमारी इन्हीं छोटी-छोटी इच्छाओं और अपेक्षाओं ने हमारे नौनिहालों का हंसता-खेलता बचपन बर्बाद कर उन्हे मशीन बना दिया है तथा हम इसे आधुनिक तौर-तरीके और व्यहारिकता का नाम देकर खुद से ही छल कर रहे है लेकिन सवाल यह है कि अगर यह मशीनी अंदाज इसी तरह आगे बढ़ता गया तो हमारे समाज में आगे जाकर ठहराव कहाँ आयेगा। यह एक बड़ा प्रश्न है और इन पर अतिशीघ्र चिन्तन-मनन कर अपनी अगली पीढ़ी को तनावग्रस्त होने से बचाने का वक्त शायद आ गया है।

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