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Friday, April 26, 2024

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झण्डा ऊँचा रहे हमारा

गणतन्त्र दिवस पर विशेष
तन्त्र पर लोक की विजय के पर्व हर आमोंखास के अन्र्तमन को जोश और उत्साह से लबलेज कर देते है तथा उमंग की इस तरंग में हर आम आदमी अपनी सुधबुध खो बैठता है। जी हाॅ कुछ ऐसा ही नशा है आजादी के इस जश्न का और मजे की बात यह है कि आजादी के इन सत्तर सालों बाद भी यह सबकुछ स्वतः स्फूर्त ढंग से होता है। रेडियों या ध्वनि विस्तारको के सहारे जोर-शोर से बजते चितपरिचित राष्ट्रप्रेम से भरे गीत हो या फिर किसी भी सामूहिक अवसर पर गुनगुनाई जा सकने वाली राष्ट्रगीत व राष्ट्रगान की धुन, इन्हें सुनने, गाने या गुनगुनाने में हमेशा एक जोश व नयापन सा लगता है और यह अहसास भी नही होता कि हम दशकों से यही सब कुछ सुनते व गाते चले आ रहे है। हाॅलाकि कुछ लोग राष्ट्रप्रेम को प्रदर्शित करने वाले इन तमाम संकेत चिन्हों को विवाद का मुद्दा बना ख्याति हासिल करना चाहते है और जल्द से जल्द चर्चाओं में आने या फिर खुद को राजनीति में स्थापित करने के लिऐ विषयवस्तु से हटकर इन तमाम विषयों को विवाद का मुद्दा बना दिया जाता हैं लेकिन हालातो के मद्देनजर इस तथ्य को दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस तरह के तमाम मामलों में जनता कानून से कहीं ज्यादा अपने दिल की आवाज सुनना पसन्द करती है और सामान्य परिस्थितियों में उसे अपने देश के राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हांे का तो क्या दुश्मन देश के प्रतीको का अनादर व अपमान करना भी पसन्द नही हैं। यह ठीक है कि कुछ राजनैतिक संगठन अपने फायदे के लिऐ राष्ट्रहित को मुद्दा बनाते हुऐ चुनिन्दा विषयों या समाज के एक हिस्से को निशाने पर लेकर अपना राजनैतिक स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं और उनकी नजरों में उनके द्वारा उठाये गये जायज-नाजायज मुद्दो का विरोध करने वाली विचारधारा या किसी खास सख्सियत को कभी भी देशद्रोही का तमगा दिया जा सकता है लेकिन एक आम भारतीय के लिऐ अपने देश से गद्दारी करने के कुछ अलग ही मायने है और सामान्य जीवन में देशद्रोह का आरोप लगना अतंरआत्मा को भीतर से झकझोर देता है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा राष्ट्रीय ध्वज, हमारा राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान अथवा इससे मिलते जुलते अन्य तमाम प्रतीक चिन्ह हमारी सामान्य दिनचर्या में भले ही कोई भूमिका न रखते हो लेकिन एक आम नागरिक के रूप में हर भारतीय इनके प्रति ज़ज्बाती है और मौका मिलने पर वह अपने-अपने अन्दाज में इनके प्रति सम्मान व अपने ज़ज्बातो का प्रदर्शन करने से नही चूकता। हो सकता है कि भावना के अतिरेक में बहकर इन तमाम सम्मान चिन्हो के साथ हम कभी-कभार ऐसा व्यवहार कर जाते हो जिसे संवेधानिक दृष्टि से उचित व न्यायसंगत नही कहा जा सकता या फिर अपने आदर्श महापुरूषो जैसा दिखने व बनने के अतिरेक में कानून की पेचीदगिंयो से हमारी निगाह हट जाती हो लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नही है कि हमे अपने देश से प्यार नही है या फिर हम जानबूझकर कानून का उल्लंघन करना चाहते है। राष्ट्र को प्रेम करते हुऐ जरूरत पड़ने पर उसके लिऐ अपना सबकुछ न्यौछावर कर देना तथा राष्ट्रप्रेम का उन्मुक्त प्रदर्शन कर वाहवाही लूटने के लिऐ माहौल को असमाजिक बना देना, दो अलग-अलग मुद्दे है और दोनो ही स्थितियों में राष्ट्रप्रेम सर्वोपरि है लेकिन पहले तरीके में समर्पण झलकता है तो दूसरा रास्ता हमें अतिरेक की ओर ले जाता है और हमें निहायत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि वर्तमान परिस्थितियाॅ व अपनी बात को मनवाकर ही मानने की जिद हमे अतिरेक के दूसरे रास्ते पर ले जा रही है। शायद यही वजह है कि हमारे आदर्श कहे जाने वाले हमारे नेताओ की भाषणशैली व काम करने के अन्दाज में एक बड़ा बदलाव दिख रहा है और हम ‘मेरे लहू का कतरा-कतरा देश के काम आयेगा’ जैसे शब्दों पर प्रफुल्लित होकर इस तरह की आदर्श विचारधारा का तालियों से स्वागत् करने की जगह ‘यह सब लोग मिलकर मुझे मार डालेंगे’ या ‘चुनाव हारते ही इस मुल्क में दिखाई ही नहीं देंगे’ जैसे जुमलो पर तालियां पीटने लगे है। यह बदलाव ही है जो गाॅधी के चर्खे का इस्तेमाल अपनी छवि बनाने के लिए उकसाता है और स्वदेशी का नारा देने वाली विचारधारा के राज में चीन जैसे मुल्क के साथ व्यापार दो गुना हो जाने के बावजूद भी दिखावे के लिऐ खादी के इस्तेमाल पर जोर देता प्रतीत होता है। ऐसा नही है कि अन्र्तराष्ट्रीय व्यापार समझौतो पर अमल करते हुऐ विदेश से व्यापार को बढ़ावा देना या फिर गाॅधी की विचारधारा के प्रतीक व राष्ट्रीय गौरव के विषय माने जाने वाले चर्खे का इस्तेमाल करते हुऐ अपनी छवि निर्माण की कोशिश करना राष्ट्रद्रोह या लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के अपमान का विषय है लेकिन सवाल यह है कि इस तरह के विवादास्पद मुद्दो को जनता के बीच चर्चा का विषय बनाकर आप साबित क्या करना चाहते है और इन प्रतीक चिन्हों के इस्तेमाल को लेकर आपकी नीयत क्या कह रही है। जनता के बीच से यह एक सामान्य सा प्रश्न हो सकता है कि दीपावली अथवा किसी अन्य तीज त्योहार के अवसर पर अपने घरो की सजावट के लिऐ बाजार में बिकने वाली सस्ती किन्तु चीन निर्मित बिजली की झालरों का इस्तेमाल करने वाला एक सामान्य सख्स या फिर इन्हे थोक बाजार से खरीदकर खुदरा बाजार में बेचने वाला छोटा व्यापारी अगर देशद्रोही है तो जिस सरकार के राज में चीन के साथ होने वाला व्यापार दुगने से भी अधिक हो गया है उस सरकार और सरकारी व्यवस्था को क्या कहना चाहिऐ। ठीक इसी तर्ज पर यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि अपने राजनैतिक जीवन के एक बड़े हिस्से में एक ही धोती पहनकर गुजारा करने वाले महात्मा गाॅधी की तर्ज पर चर्खे के साथ फोटो खिंचवाने वाले हमारे माननीय इस देश की जनता को क्या सन्देश देना चाहते है। गौरेतलब है कि गरीबी और बेकारी से जूझ रहे भारतवासियों को आत्मनिर्भरता के लिऐ स्वनिर्मित वस्त्रो को पहनने का सन्देश देने वाले तथा खादी के प्रचार प्रसार को एक आन्दोलन की तर्ज पर खड़ा करने वाले महात्मा गाॅधी के चर्खे का इस्तेमाल कर लाखो के सूट पहनने वाला कोई नेता अगर अपनी छवि का निर्माण करना चाहता है तो जरूरी नही हैं कि उसकी भावनाऐं गलत ही हो लेकिन उसने अपने दिल के उद्गारों को जनता के समक्ष रखना तो चाहिऐं। वर्तमान माहौल में बस यहीं एक गड़बड़ है और इस गड़बड़ के चलते हर एक व्यक्ति दूसरे की हरकतों के शक भरी निगाह से देख रहा है जबकि पारदर्शिता के आभाव में सरकारी संस्थान व कार्यशैली भी संदिग्ध हो गयी है। राष्ट्रीय अवसरो पर या फिर सार्वजनिक मंचो से बड़ी-बड़ी बाते कहना या फिर व्यापक जनहित के नाम पर तमाम तरह की छोटी-बड़ी घोषणाऐं करना ही राष्ट्रभक्ति नही है और न ही राष्ट्र के निर्माण में, सीमा पर रहकर देश की रक्षा करने वाले एक वीर सैनिक के मुकाबले उस श्रमिक की भूमिका को कम करके आॅका जा सकता है जो दूसरे की जमीन पर हाड़तोड़ मेहनत कर भवन बनाने या फिर फसल उगाने में अपनी जिन्दगी के कई साल यूं ही गुजार देता है लेकिन फिर भी हम अपने सामान्य जीवन में कुछ विशेष लोगो या खास ओहदेदारो को ज्यादा सम्मान देते है और उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह जिम्मेदार पदो पर बैठकर इस देश को एक नई दिशा व इस देश की जनता को छूने के लिऐ एक नया आसमान ढूंढने में हमारे मददगार साबित होंगे।

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