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Friday, April 26, 2024

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एक और गरीबमार

अतिथि शिक्षकों को हटाये जाने का सीधा असर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब नौनिहालो के भविष्य पर।
शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लगभग साढ़े पांच हजार अतिथि शिक्षकों का भविष्य आज अंधकारमय में हो गया और इसका ज्यादा फर्क उन प्रतिभाशाली छात्रों को पड़ा जो कि विषम परिस्थितियों के बावजूद भी उत्तराखंड के दुरूह व दूरस्थ क्षेत्रों में कुछ कर दिखाने की ललक के साथ अपनी पढ़ाई जारी रखे हुऐ है। अतिथि शिक्षकों के मामले में सरकार देर-सबेर कोई न कोई फैसला जरूर लेगी और अगर फैसला इनके पक्ष मे नही हुआ तो इनके पास आन्दोलन का विकल्प है लेकिन इन शिक्षकों को भरोसे अपनी स्कूली शिक्षा पूरी होने की उम्मीद लगा रहे छात्रों के पास क्या विकल्प है? क्या इन विद्यार्थियों की समस्याओं पर सिर्फ इसलिऐं विचार नही होना चाहिऐं क्योंकि इनके पास लोकतात्रिक व्यवस्था के तहत वोट देने व अपनी सरकार चुनने का अधिकार नही है या फिर किसी भी तरह की हड़ताल या अंादोलन करने में अक्षम इन बच्चों की आवाज सरकार इसलिऐं नही सुनना चाहती क्योंकि शिक्षा जैसे अनुत्पादक क्षेत्र में ज्यादा खर्च करने से उसे कुछ भी हासिल होने की उम्मीद नही है। पहाड़, पलायन और पहाड़ों की समस्याओं पर लंबी-लंबी बातें करने वाले हमारे नेता यह मानते है कि अगर पहाड़ों पर शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का उचित प्रबन्ध हो तो पलायन की दर को रोजगार के संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर कम किया जा सकता है लेकिन इसे पहाड़ों का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि पहाड़ो में पढ़ लिख कर सरकारी मास्टर बनने की कगार तक जा पहुंचा पहाड़ी युवा अपना रोजगार सुरक्षित हुआ जानने के बाद एक मिनट भी पहाड़ पर रूकने को तैयार नही है और सरकारी कर्मचारियों विशेषकर अध्यापकों के इस पलायन को बढ़ावा देने में असल योगदान उन नेताओं का है जिन्हें स्थानीय जनता द्वारा इन पिछले सोलह-सत्रह सालों में जनप्रतिनिधि बनाकर सत्ता के उच्च सदनों में भेजा गया है। ध्यान देने योग्य विषय है कि उत्तराखंड के संसाधनविहीन नेताओं में से अधिकांशतः के परिजन सरकारी स्कूलों में मास्टरी कर अपने पारिवारिक खर्च चला रहे है और इन तमाम नेताओं ने सत्ता के शीर्ष पदो को हासिल करते ही स्थानीय जनता व नौनिहालों की फ्रिक छोड़कर अपना सारा ध्यान अपने इन परिजनों को सहुलियत वाले स्थानों पर स्थानांतरित करने में लगाया जिसके कारण जोर-जबरदस्ती मैदानी व सहूलियत वाले स्कूलो में अध्यापन कराने की इच्छा रखने वाले अध्यापकों ने पहाड़ से मैदान की ओर दौड़ लगाने के जुगाड़ ढ़़ूढ़ने शुरू कर दिये। नतीजतन इन पिछले सोलह सालों में पहाड़ों के स्कूल या तो शिक्षक विहीन है या फिर दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में नियुक्त अध्यापक अपनी नौकरी को ईमानदारी से अंजाम देना जरूरी नही समझते। पूर्ववर्ती सरकार ने स्थानीय छात्रों की इस समस्या को समझा और बजटीय स्थिति व पहाड़ी क्षेत्रों में खाली पड़े स्कूलों को देखते हुऐ वरीयता के आधार पर अतिथि शिक्षक नियुक्त किये गये। हांलाकि सरकार चाहती तो इन पदो के सापेक्ष स्थायी नियुक्ति भी कर सकती थी लेकिन स्थायीकरण के बाद शिक्षक वर्ग द्वारा अपने स्थानांतरण को लेकर आजमायें जाने वाले दांवपेंच तथा प्रदेश की कमजोर माली हालत को देखते हुऐ सरकारी पक्ष द्वारा यह निर्णय लिया गया। कुछ लोगों को यह व्यवस्था रास नही आयी और वह जनहित याचिका के माध्यम से इसके विरूद्ध न्यायालय चले गये और इधर जल्दी बहुत कुछ पाने को आतुर अतिथि शिक्षकों के संगठन ने भी चुनाव नजदीक जान अपनी तमाम जायज-नाजायज मांगो के साथ सरकार के खिलाफ मोर्चा लेने की ठान ली। चुनावी मौसम में अनमने से हालातों में जोर-जबरदस्ती हुई समझौता वार्ताओं के बीच अतिथि शिक्षकों को क्या कुछ हासिल हुआ, यह तो पता नही लेकिन हालिया विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली बुरी हार व भाजपा को मिले दो तिहाई बहुमत के बाद यह तय हो गया कि अब इतनी जल्दी सरकार कर्मचारियो व तथाकथित श्रमिक संगठनों के दबाव में आने वाली नहीं लिहाजा न्यायालय के निर्देशों के चलते इक्कतीस मार्च को ही समाप्त हो चुकी सेवाओं के साथ अतिथि शिक्षकों का संगठन किसी भी तरह का आंदोलन करने की स्थिति में नही है और वर्तमान सरकार भी इन शिक्षकों को अपनी जिम्मेदारी नही मानती लेकिन मानने-मनाने के इस दौर में उन विद्यार्थियों की चिन्ता किसी को नही है जो अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों व बेबसी के चलते इस प्रदेश के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रो में ही रहकर अपनी पढ़ाई करने को मजबूर है। उत्तराखंड की नवनिर्वाचित सरकार का मानना है कि शिक्षा विभाग में नई भर्तियों या फिर किसी भी अलग व्यवस्था की जरूरत ही नही है और इस सारे ताने-बाने को ठीक करने के लिऐ वह विद्यालयी शिक्षा में स्थानातंरण को लेकर एक अलग कानून बनाये जाने की भी बात करती है लेकिन सवाल यह है कि जब तक यह सबकुछ पटरी पर नही आ जाता या फिर नये पदो पर नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू नही की जाती तब तक इन स्कूलो में पढ़ने वाले बच्चों का भविष्य क्या होगा। दाल-भात वितरण केन्द्रो में तब्दील हो चुके उत्तराखंड सरकार के आधीन आने वाले तमाम सरकारी स्कूलों का हाल वैसे ही इतना बुरा है कि यहां का कोई भी साधन सम्पन्न व्यक्ति इन स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ने नही भेजना चाहता। इसके उपर बेमौसम होने वाले स्थानातंरण व अध्यापकों के विभिन्न गुटो की हड़ताले रही सही कसर पूरी कर देती है और अब लगभग साढ़े पांच हजार अतिथि शिक्षकों को एक ही झटके में स्कूलों से बाहर कर देने के बाद नये शिक्षा सत्र की क्या हालत होगी, यह हम और आप अच्छी तरह समझ सकते है लेकिन सत्ता के नशे में चूर नयी-नवेली सरकार को इन तमाम बातों से क्या लेना देना। उसे तो अपने तयशुदा ऐजेण्डे पर ही काम करना है।

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