एकता, समानता और शान्ति के नाम पर – ‘पदोन्नति मे आरक्षण‘ का नारा देकर कर्मचारी संगठनों को बांटने की कोशिशें शुरू | Jokhim Samachar Network

Friday, April 26, 2024

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एकता, समानता और शान्ति के नाम पर – ‘पदोन्नति मे आरक्षण‘ का नारा देकर कर्मचारी संगठनों को बांटने की कोशिशें शुरू

पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ व समर्थन में कर्मचारी लामबंद होने लगे है और ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार जानबूझ कर इस मुद्दे को हवा दे रही है क्योंकि देश के दलित मतदाताओं को भाजपा से जोड़े बिना उसे आगामी लोकसभा चुनावों की वैतरणी पार करना आसान नही लग रहा है। कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत प्राप्त करने के बावजूद भाजपा के रणनीतिकारों को यह उम्मीद नही लगती कि हिन्दू एकता का नारा बहुत ज्यादा समय तक टिका रह सकेगा जबकि दलित मतो की राजनीति करने वाले राजनैतिक दलों व नेताओं द्वारा गढ़े गये मुस्लिम-दलित या फिर मुस्लिम-यादव-निचली जातियों के समीकरण उन्हें ज्यादा मजबूत लगते है। ऐसा माना जा रहा है कि मोदी सरकार द्वारा अपने अबतक के कार्यकाल में किये गये तमाम तरह के प्रोपेगण्डा को कोई निष्कर्ष न निकल पाने के कारण भाजपा व संघ के नीति निर्धारकों ने आगामी चुनावों को लेकर अलग तरह की रणनीति बनाना शुरू कर दिया है और मोदी समर्थक व संघ के निचले कार्यकर्ता कुछ चुने हुऐ मुद्दों के साथ एक सधे हुऐ अंदाज में मुस्लिम मतदाताओं पर इस तरह से हावी होना चाहते है कि वह आगामी चुनावों तक डर व आंतक के साये में रहे। इसकी प्राथमिक तैयारी के तौर पर रेल या बस में सफर करने वाले अकेले-दुकेले मुस्लिम यात्री पर सुनियोजित तरीके से हमला कर भय फैलाने की साजिशें शुरू हो गयी है और सुनियोजित तरीके से इस तरह के कृत्यों को अंजाम दे रहे लोग माहौल खराब करने का कोई मौका नही चूकना चाहतें। इनकी कोशिश है कि मुस्लिम मतदाता सार्वजनिक जीवन से कटकर दोयम दर्जे का नागरिक बनके रहना शुरू कर दें और अगर वह किसी भी मोर्चे पर इस ज्यादती का विरोध करते है तो इस अवसर का उपयोग दंगे भड़काते हुऐ हिन्दू मतदाताओं को मुस्लिमों के विरूद्ध संगठित करने के लिऐ किया जाये। भाजपा व संघ की यह रणनीति अधिकांश अवसरो पर कारगार साबित हो रही थी लेकिन इधर नोटबंदी, जीएसटी किसानोें के आन्दोलन व इसी तरह के अन्य मुद्दों ने मतदाताओं को भाजपा की कार्यशैली के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है और सामाजिक न्याय का नारा लगाकर एक बार फिर अपना वोट-बैंक वापस पाने मे जुटे दलित नेताओं की मतदाताओं के एक विशेष वर्ग में बनी हुई जनस्वीकार्यता को देखते हुऐ भाजपा ने एक बार फिर नये सिरे से चुनावों की तैयारी शुरू कर दी है जिसके तहत सबसे पहले एक अनजान से नाम रामलाल कोविंद को आगे कर पूरी रणनीति के साथ दलित वर्ग का हित चिन्तक व दलित प्रत्याशी बताते हुऐ राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिऐ मैदान में उतारा गया है और अब इसी दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाते हुऐ भाजपा का शीर्ष नेतृत्व न्यायालय के आदेशों के खिलाफ विधेयक लाकर पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की बात कह रहा है। ऐसा मालुम होता है कि भाजपा की रणनीति इस विषय में भी कोई निष्कर्ष लेने की नही है बल्कि वह पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे को हवा देकर कर्मचारी संगठनों को आन्दोलन के लिऐ उकसाना चाहती है जिससे कि देश के दलित मतदाताओं तक यह संदेश जाय कि सरकार वाकई में उनके पक्ष में विचार कर रही है और सरकार आन्दोलनरत् कर्मचारियों पर कार्य के प्रति लापरवाह होने के आरोंप लगाते हुऐ अपने अन्य ऐजेण्डों पर भी काम कर सके। हमने देखा कि देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी उदारवादी व्यवस्था को अंगीकार करने के लिऐ हद से ज्यादा बैचेंन है और उनके नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने इन पिछले तीन वर्षों में एक के बाद एक कर ऐसे तमाम फैसले लिये है जिनका विपक्ष में रहते हुये भाजपा द्वारा न सिर्फ पुरजोर विरोध किया गया था बल्कि जिनके चलते भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है और निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर तेजी से घटे है। ऐसा लगता है कि सरकारी तंत्र अब अपना ढाँचागत् खर्च कम करने के नाम पर कुछ सरकारी व्यवस्थाओं का भी निजीकरण करना चाहता है और उसे मालुम है कि इसके लिऐ बड़ी संख्या में सरकारी कर्मकारों की सेवाओं को समाप्त करते हुये उनके पद समाप्त करने होंगे लेकिन सरकार यह भी अच्छी तरह जानती है कि यह सभी सरकारी कर्मचारी विभिन्न छोटे-छोटे संगठनों के चलते एकता की डोर में बंधे हुऐ है और इनकी इच्छा के बगैर कर्मचारियों की सेवा शर्तो से छेड़छाड़ करना या फिर इन्हें काम से बाहर करना आसान नही है क्योंकि ऐसी स्थिति में सारे देश की सरकारी मशीनरी एकदम ठप हो जाने की संभावनाओं से इनकार नही किया जा सकता है। इसलिऐं सरकार ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे को हवा देकर कर्मचारी संगठनों की ताकत के आंकलन का मन बनाया है। यह तय है कि जब कर्मचारी संगठनों के मोर्चे पदोन्नति में आरक्षण के समर्थन व विरोध के नाम पर सड़कों में उतरेंगे तो न सिर्फ कर्मचारियों की एकता प्रभावित होगी बल्कि इस दौरान होने वाले कार्य बहिष्कार, आम हड़ताल व धरने प्रदर्शन की आड़ में सरकार के लिऐ उन कर्मचारियों को निपटाया जाना आसान होगा जोकि सरकार द्वारा विभिन्न स्तर पर प्रस्तावित कर्मचारियों की छँटनी के विरोध में एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करने की कुब्बत रखते है। इसके अलावा सरकार कुछ कर्मचारी नेताओं से गुप्त समझौते करते हुऐ उन्हें अगले चुनाव में प्रत्याशी बनाये जाने का लालच देकर अपने साथ मिला सकती है या फिर कर्मचारियों को इस बात के लिऐ भी राजी किया जा सकता है कि समय से पूर्व सेवानिवृत्ति की स्थिति में उन्हें पूर्ण वेतन व अन्य भत्ते देय होंगे बशर्ते कि वह उन पदों को समाप्त करने के मार्ग में बाधा न खड़ी करें जिनके सापेक्ष वह अभी तक कार्य कर रहे है। हमने देखा कि भाजपा शासित राज्यों में अगले लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुऐ व्यूह रचना शुरू हो गयी है और सरकारी तंत्र अपनी हर एक योजना को धरातल में उतारने से पहले उन तमाम राजनैतिक समीकरणों पर पूरी तरह ध्यान दे रहा है जो उसकी चुनावी हार का कारण बन सकते है। लिहाजा सरकार में बैठे लोग यह अच्छी तरह जानते होंगे कि उनके द्वारा राख की ढ़ेर में दबे हुऐ अंगारे के समान पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे को छेड़ने से न सिर्फ कर्मचारी वर्ग में संघर्ष बढ़ेगा बल्कि सामाजिक रूप से भी इस घटनाक्रम का प्रभाव पड़ेगा। यह तथ्य भी किसी से छुपा नही है कि मूलतः बनियों की पार्टी कहलायी जाने वाली भाजपा में हमेशा से ही संवर्ण हिन्दुओं का प्रभुत्व रहा है और समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले आरक्षण विरोधी आन्दोलनों में संघ के समर्थन के अलावा भाजपा के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की सीधी भागीदारी रही है लेकिन इधर कुछ वर्षों के सत्ता संचालन के बाद भाजपा के नेताओं की समझ में आ गया है कि देश का सवर्ण मतदाता किसी अन्य मुद्दे के स्थान पर धर्म के नाम पर ज्यादा आसानी से लामबंद हो सकता है तथा राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत भाषणों के साथ ही साथ हिन्दू व हिन्दुस्तान को खतरें में बताकर या फिर तथाकथित धार्मिक जेहाद का डर दिखाकर उसे आसानी से राजनैतिक रूप से लामबंद किया जा सकता है जबकि देश भर में ठीक-ठाक संख्याबल रखने वाले दलित मतदाताओं का आत्मसम्मान व अधिकारों को लेकर पहला टकराव सवर्णो से ही होता है और सामाजिक रूप से मुस्लिम विरोधी होने के बावजूद दलित अपने राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिऐ मुस्लिमों के साथ जा मिलने से संकोच नही करते। इसलिऐं भाजपा की कोशिश है कि वह दलित मतदाताओं के साथ आरक्षण जैसे हथकण्डे अपनाकर इस गठबंधन को तो तोड़ने की कोशिश करें जबकि मुस्लिम मतदाता को चुनावों से पहले ही इतना भयभीत कर दिया जाय कि मतदान के लिऐ अपने घर से बाहर निकलने से पहले कई बार अपने फैसले पर पुर्नविचार करें। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का मानना है कि चुनावी मोर्चे पर देश की जनता से किये गये वादो को पूरा करने में नाकाम रहने के बावजूद आगामी लोकसभा चुनावों में भी उनकी सफलता पक्की है क्योंकि इन तीन सालों में उन्होंने उन तमाम राजनैतिक सूत्रों को अच्छी तरह समझ लिया है जिनके दम पर कांग्रेस के लोगो में इतने ज्यादा लंबे समय तक देश में शासन किया है।

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