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Saturday, April 20, 2024

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यह कैसा सम्मान?

महिलाओं के सम्मान अथवा उनके सशक्तिकरण के संदर्भ में तमाम लोकलुभावन नारे देने वाली भाजपा के नेताओं की कथनी व करनी में भेद।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे के साथ महिला सशक्तिकरण व नारी सम्मान का दावा करने वाली भाजपा के विधायक पर लगने वाले बलात्कार के आरोप पर जब राज्य के मुख्यमंत्री संवेदनशील नजर नहीं आते तो व्यवस्था पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है और जब जनता के बीच से चुनी हुई सरकार बिना कोई कारण बताये एक तथाकथित सन्यासी पर लगे बलात्कार के आरोप को यूं ही वापस ले लेती है तो यह प्रश्न और ज्यादा गंभीर हो उठता है लेकिन सत्ता की रौ में मदमस्त नजर आ रहे भाजपा के नेताओं को इन प्रश्नों से कोई लेना-देना नहीं है और वह यह मानकर चल रही है कि मोदी के जलवे व उग्र हिन्दुत्व को अपना मुद्दा मानकर चल रही भाजपा की करनी पर विश्वास करना व आगामी चुनावों में भाजपा के पक्ष में मतदान करना जनता की मजबूरी है। ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं जब भाजपा के नेताओं ने लवजेहाद व लड़कियों से छेड़छाड़ को मुद्दा बनाते हुए दो अलग-अलग धर्मों को मानने वाले जनसमूह के बीच धार्मिक उन्माद की स्थितियां पैदा की हैं तथा हथियारों के दम पर सशस्त्र प्रदर्शन करने वाले वीर बजरंगी व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अन्य तमाम अनुषांगिक दलों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने अपनी हदों को पार करते हुए इस तरह के मामलों को निपटाया है लेकिन सत्तापक्ष पर लग रहे इन आरोपों पर यह तमाम ठेकेदार मौन हैं और इनकी चुप्पी यह इशारा कर रही है कि महिला सम्मान को लेकर चिंतित नजर आने वाली भाजपा का वस्तुतः इस तरह के विषयों से कोई लेना-देना नहीं है। हमने देखा कि उत्तराखंड की शांत वादियों में पिछले कुछ वर्षों में अपराध तेजी से बढ़े हैं और काम धंधों की तलाश में देश के विभिन्न हिस्सों से पहाड़ की ओर रूख कर रही मेहनतकश आबादी की आड़ में कुछ अपराधी व क्रूर मानसिकता से ग्रसित लोग भी पहाड़ों पर अपना डेरा डालकर महिलाओं व युवतियों को अपना शिकार बना रहे हैं लेकिन एक राजनैतिक विचारधारा से जुड़े लोग बहुत ही सफाई के साथ इस तरह के तमाम घटनाक्रमों को धार्मिक रंग देते हुए घटित अथवा कपोल-कल्पित घटनाओं की आड़ में पहाड़ से एक धर्म विशेष से जुड़े लोगों को भगाना चाहते हैं और राजनैतिक कौशल के साथ अंजाम दिये जा रहे इन प्रयासों से राज्य के एक बड़े हिस्से में भय का माहौल बनता दिख रहा है। जहां तक महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार या अन्य यौन हिंसा का सवाल है तो इस संदर्भ में यह माना जा सकता है कि महिला के देवीय स्वरूप को पूजने वाली पहाड़ की संस्कृति में इस प्रकार के आपराधिक प्रकरण कम ही सुनाई देते हैं और अगर व्यापक परिपेक्ष्य में बात करें तो हम यह कह सकते हैं कि इस राज्य की अधिसंख्य जनता इन शब्दों की भयानकता व वीभत्सता के सही मायने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान ही समझ पायी तथा यह भी एक आश्चर्यजनक कर देने वाला सत्य है कि वर्तमान में पहाड़ी अस्मिता व संस्कृति के नाम पर आगजनी की वारदातों या फिर तोड़फोड़ व हिंसा को बढ़ावा देने वाली राजनैतिक ताकतें महिलाओं के बलात्कार व अपमान से जुड़े उन तमाम घटनाक्रमों पर चुप्पी साध जाती है जो उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान प्रकाश में आयी। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान घटित हुई मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे की घटना आज भी भूले नहीं भूलती और इस पूरे घटनाक्रम के लगभग चैबीस-पच्चीस वर्षों बाद भी इस घटनाक्रम में लिप्त दोषियों को सजा न मिलना यह दर्शाता है कि राज्यहित का दावा करने वाले नेताओं की कथनी और करनी में कितना फर्क है। उत्तराखंड राज्य गठन के वक्त यह उम्मीद की गयी थी कि राज्य में बनने वाली जनहितकारी सरकार पहाड़ी अस्मिता से जुड़े इन तमाम प्रश्नों पर लम्बी कानूनी जंग लड़कर दोषियों को उनके अपराध के लिए सजा अवश्य दिलवायेगी लेकिन अफसोस राज्य गठन के तत्काल बाद अस्तित्व में आयी अंतरिम सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक किसी ने भी इस तरह के मामलों की पैरवी करने का प्रयास नहीं किया और राजनैतिक दलों के शीर्ष पदों पर काबिज नेताओं व नौकरशाहों से दोस्ती निभाते हुए घोषित अपराधियों व आरोपियों को हमारी राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर सरकारी सम्मान से नवाजा गया। इतिहास गवाह है कि न्याय की आस में सालों-साल तारीखें झेलती रही उत्तराखंड की महिला राज्य आंदोलनकारियों में से एक को भी न्याय नहीं मिला और एक समय ऐसा भी आया जब इन महिलाओं ने न्याय की आस ही छोड़ दी। इनके मुकदमों से जुड़ी फाइलें आज भी पैरवी के आभाव में विभिन्न स्तरों पर धूल फांक रही है और हमारे नेता व स्थानीय स्तर पर अस्मिता एवं संस्कृति का दंभ भरने वाली विध्वंसक ताकतें आगजनी व लूटपाट को दंगों का स्वरूप प्रदान कर पहाड़ की महिलाओं को न्याय दिलाने का स्वांग भर रही है। अगर पहाड़ की संस्कृति व लोकपरम्पराओं पर गौर करें तो हम पाते हैं कि हमने सर्वधर्म सम्भाव की नीतियों पर काम करते हुए खुदा पूजा, सैय्यद साहब का जागर या फिर स्थानीय लोकभाषाओं में गाये जाने वाले क्रिसमस के कैरल गीतों की समृद्ध लोकसंस्कृति को देखा है और स्थानीय जनता के साथ रच-बस गये मुस्लिम व अन्य धार्मिक समुदायों के लोग भी हमारे आयोजनों व स्थानीय पर्वों में पूरी पहाड़ी ठसक के साथ भागीदारी करते हैं लेकिन कभी भी या कहीं भी व्यक्तिगत् वैमनस्य को सामाजिक विरोध का रूप लेते नहीं देखा गया और रामलीला जैसे सार्वजनिक आयोजनों में तो हिन्दू धर्म से इतर सम्प्रदायों या धर्मों की भागीदारी व सहभागिता देखते ही बनती है। इन हालातों में अगर हम यह कहें कि कुछ लोगों द्वारा किए गए अपराध के लिए किसी एक जाति, धर्म या पूरी बिरादरी के लोगों को सजा दिया जाना सही है और इस तरह की हिंसक वारदातों के जरिये हम उत्तराखंड या देश का भविष्य सुधार सकते हैं तो यह स्वीकार करना ही होगा कि हम गलत दिशा की ओर जा रहे हैं लेकिन कुछ राजनैतिक ताकतों व सत्ता के दंभ में बौराये इनके समर्थकों को यह गलतफहमी हो गयी है कि इस तरह के कृत्यों से वह तमाम हिन्दू मतदाताओं को एकजुट कर सकते हैं या फिर मुस्लिम आतंकवाद और अन्य साम्प्रदायिक ताकतों का भय दिखाकर हिन्दू धर्मावलम्बियों को एक राजनैतिक ताकत के रूप में संगठित रखा जा सकता है। वर्तमान में देश बेरोजगारी, आर्थिक भ्रष्टाचार, महंगाई व आतंकवाद जैसी कई समस्याओं से जूझ रहा है तथा पिछले चार वर्षों के भाजपाई शासन में सत्तापक्ष से जुड़े नेताओं व संगठन की मूल सम्पत्तियों में हुई आकूत बढ़ोत्तरी कई तरह के सवाल खड़े करती है लेकिन सत्ता के शीर्ष पर काबिज विचारधारा बड़ी ही सफाई के साथ कानून व कानूनों का अनुपालन करने के लिए गठित की गयी सीबीआई जैसी तमाम एजेंसियों का दुरूपयोग अपना राजनैतिक कुनबा बढ़ाने अथवा अपने राजनैतिक विरोधियो को समाप्त करने के लिए कर रही है। यह माना कि उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में हावी गुण्डाराज पर लगाम लगाने के लिए सरकारी प्रोत्साहन पर हो रही पुलिस मुठभेड़ व इनकांउटर के चलते राज्य में अपराधों पर लगाम लगने की उम्मीद बढ़ी है लेकिन आपराधिक तत्वों की सफाई हेतु चलाये जा रहे इस अभियान में भी अगर तेरा-मेरा का ध्यान रखा जाता है तो इस सरकारी मुहिम को एक गैंगवार का ही नाम दिया जा सकता है जिसमें राज्य की पुलिस, सरकारी वर्दी व असले के साथ सत्ता पर काबिज विचारधारा से जुडे़ गुण्डा तत्वों को संरक्षण देती प्रतीत होती है। हालिया घटनाक्रम में एक युवती द्वारा भाजपा के विधायक पर आरोप लगाये जाने के बाद उक्त महिला के पिता की पुलिस हिरासत में हुई नृशंस हत्या इन तथ्यों को प्रमाणित करती प्रतीत होती है और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा के नेताओं द्वारा महिलाओं के प्रति दर्शायी जाने वाली संवेदनशीलता पूरी तरह फर्जी है और महिलाओं के चलने, कपड़े पहनने या अन्य दैनिक कृत्यों को करने के संदर्भ में तमाम तरह के नियमों का प्रतिबंध लगाने की इच्छा रखने वाला सत्ता पक्ष एक नये तालिबानी स्वरूप की ओर आगे बढ़ रहा है।

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