सत्ता पर कब्जे़दारी के लिऐ आज़माये जा रहे राजनैतिक तौर-तरीको से हमारी समाजिकता व दीर्घकालीन हितो को हो सकता है बड़ा नुकसान।
धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक सौहार्द और समानता का अधिकार देने का दावा करने वाले भारतीय गणराज्य में दो घटनाओं ने पिछले दिनो देश की जनता के एक बड़े हिस्से का ध्यान अपनी ओर खींचा और मज़े की बात यह है कि अपनी राजनैतिक सहूलियत व विचारधारा के हिसाब से इन दोनो ही घटनाक्रमों पर देश की युवा पीढ़ी के बीच चर्चाओ का दौर भी खूब चला लेकिन इससे पहले कि इन ज्वलन्त मुद्दो को लेकर समाज किसी निष्कर्ष तक पहुॅच पाता आश्चर्यजनक रूप से इन घटनाक्रमों का पटाक्षेप हो गया और ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो कुछ अदृ्श्य ताकते अपने राजनैतिक नफे-नुकसान को देखते हुऐ छोटी-छोटी किन्तु वैमनस्यता बढ़ाने वाली खबरो के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का आॅकलन करना चाहती हो। हम इस विस्तृत चर्चा पर नही जाना चाहेंगे कि पासपोर्ट कार्यालय के काम करने की प्रक्रिया को जाने बिना देश की विदेश मन्त्री द्वारा एक मुसलिम विवाहित जोड़े की शिकायत पर सम्बन्धित अधिकारी को तत्काल प्रभाव से स्थानांतरित करने व पासपोर्ट जारी़ किये जाने का फैसला सही था या नही और न ही फिलहाल हमारी चर्चा का विषय यह है कि एक दूर संचार कम्पनी के ग्राहक सेवा केन्द्र में बात करने पर विधर्मी पुरूष कर्मचारी से किसी भी प्रकार की जानकारी साझा करने से मना करने वाली महिला ग्राहक की शिकायत पर उस कर्मचारी को नौकरी से निकाले जाने का फैसला कितना गलत या सही था लेकिन इन दोनो ही घटनाक्रमों के बहाने हम आसानी सेे इस निष्कर्ष पर पहुॅच सकते है कि राम मन्दिर या बाबरी मस्जिद विवाद से शुरू हुआ देश के हिन्दू व मुसलिम सम्प्रदाय को बाॅटकर वोटबैंक की ताकत के रूप में एकजुट करने का यह सिलसिला लव-जेहाद, गोकशी या फिर इसी तरह के अन्य संवेदनशील मुद्दो को उठाता या गरमाता हुआ अब इस स्थिति तक पहुॅच चुॅका है कि जनसामान्य का एक हिस्सा अपने रोजमर्रा के जीवन में सामने आने वाली कठिनाईयों या जीवन संघर्ष को भी धार्मिक नज़रियें से देखने लगा है या फिर ऐसा भी हो सकता है कि जाति अथवा धर्म से जुड़े निजी अनुभवो को सार्वजनिक कर सनसनी फैलाने वाले अन्दाज़ में देश और दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकृर्षित करने का यह तरीका युवा पीढ़ी को ज्यादा रोमान्चकारी लग रहा है और इस क्षणिक रोमान्च अथवा सोशल मीडिया की आभासी दुॅनिया के ज्यादा से ज्यादा लोगो का ध्यान अपनी ओर आकृर्षित करने के चक्कर में हम कानून की हदो को पार करने से भी नही चूक रहे है। मज़े की बात यह है कि देश की राजनैतिक सत्ता पर दावेदारी करते हुऐ सरकार बनाने या फिर व्यापक जनहित को मद्देनज़र रखते हुऐ कानून बनाने का दावा करने वाले हमारे जनप्रतिनिधि व इन जनप्रतिनिधियों केे चुनाव को एक संवेधानिक स्वरूप प्रदान करने वाले राजनैतिक दल इस तथ्य को नही समझ पा रहे कि समाज को इस अन्दाज़ में विभाजित कर देश केा गृहयुद्ध की स्थितियों में धकेलने अथवा समाज के विभिन्न वर्गों के बीच शक एंव अविश्वास के माहौल को बढ़ावा देते हुऐ चुनावी जीत की ओर बढ़ने के परिणाम कितने भयावह हो सकते है और पहले से ही जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण अथवा भाषाई व क्षेत्रीय आधार पर विभाजित भारतीय सामाजिक व्यवस्था को अपने राजनैतिक लाभ के लिऐ एक-दूसरे के प्रति संशकित बना देने से लोकतन्त्र को कितना बड़ा नुकसान हो सकता है।यह माना कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में पहले से ही कई कमियाॅ है जिनके चलते हम युवाओं की एक बड़ी संख्या के बावजूद वैश्विक स्तर पर ऐसा कोई भी प्रदर्शन करने में वर्तमान तक नाकामयाब रहे है जिसे सर्वश्रेष्ठ कहा जा सके लेकिन यह तथ्य ज्यादा अफसोसजनक है कि हमारी राजनैतिक व्यवस्था तथा इस व्यवस्था के अनुरूप चलने वाले राजनैतिक दलो ने माहौल को कुछ इस तरह खराब कर दिया है कि जातिगत्, भाषाई अथवा धार्मिक आधार पर दूसरे वर्ग अथवा सम्प्रदाय का सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार करने की बात अब हमारी सामान्य दिनचर्या का हिस्सा हो गया है और हम बिना कुछ जाने या समझे-बूझे अपने छोटे आर्थिक हितो व मानसिक संतुष्टि के लिऐ इस प्रकार की मुहिम का हिस्सा बन बैठते है। हमने देखा और महसूस किया है कि आजा़द भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास में सबसे पहले भाषाई आधार पर विरोध को तूल देकर दक्षिण भारतीय राज्यों में क्षेत्रीय गठबन्धन दलो ने अपनी राजनीति चमकाई लेकिन कालान्तर में जब इन क्षेत्रीय दलो ने महसूस किया कि राष्ट्रीय राजनीति पर हावी दिखने वाले दल अब कमजोर पड़ रहे है तो इन क्षेत्रीय दलो के नेताओ ने अपनी भाषाई जिद व अपनी क्षेत्रीय पहचान छोड़कर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाशने की कोशिशों में कोई देरी नही की किन्तु राजनीति के इस खेल में आम दक्षिण भारतीय ठगा गया और हिन्दी के बहिष्कार के राजनैतिक नारे के चलते उसे शेष भारतीयो की अपेक्षा विकास के कई अवसरो से हाथ धोना पड़ा। इसके उपरान्त क्षेत्रीय स्मिता का दूसरा बड़ा आन्दोलन महाराष्ट्र से जन्मा और मराठी भाषा के सम्मान, स्थानीय रोेज़गार पर क्षेत्रीय जनता की कब्जे़दारी व अन्य प्रदेश वासियों विशेषकर मेहनतकश बिहारियों के राजनैतिक विरोध को हवा देते हुऐ एक कार्टुनिस्ट कैसे महाराष्ट्र की प्रमुख हस्ती व शिवसेना नामक राजनैतिक ताकत का सर्वेसर्वा बन गया किसी को पता ही नही चला लेकिन कालान्तर में ठाकरे का यह मराठा प्रेम हिन्दू प्रेम में तब्दील होकर रह गया और उन्होने अपनी राजनैतिक स्वीकार्यता को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने की भरसक कोशिश की। बाल ठाकरे अथवा शिवसेना की इन राजनैतिक कोशिशों का आम स्थानीय जनता को कोई फायदा हुआ ऐसा नही जान पड़ता और यह भी तय है कि अगर शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने अपनी राजनैतिक महत्वाकाॅक्षाओं को आर्थिक वसूली के गिरोह में तब्दील नही किया होता तो शायद मुबंई व महाराष्ट्र का वर्तमान स्वरूप कुछ बदला हुआ हो सकता था लेकिन कलकत्ता के वामपंथियों के कब्ज़े में आने के बाद एक आर्थिक रूप से सम्पन्न व बौद्धिक रूप से जागरूक प्रदेश के तबाह होने से डरे पूॅजीपति वर्ग व रोज़ कमाकर खाने वाले तबके ने बाला साहेब की महत्वकाक्षाओं के आगे घुटने टेक दिये और उन्हें बेताज बादशाह घोषित कर मुंबई व महाराष्ट्र को बर्बाद होने से बचा लिया। अब यही प्रयोग सारे देश के साथ किये जाने की तैयारी है। राम मन्दिर की सफलता एंव उग्र हिन्दुत्व की एकजुटता से उत्साहित एक राजनैतिक विचारधारा ने जब यह पाया कि बड़े मुद्दे ज्यादा लम्बे समय तक देश की जनता के एक बड़े हिस्से को भावनाओं में बांधकर राजनैतिक रूप से एकजुट करने में पूरी तरह असफल है तो बड़ी ही चालाकी के साथ गो हत्या, लव जेहाद, सड़क पर नमाज़ या फिर स्थानीय स्तर पर सामान्यतः ही नज़र आ जाने वाली दो सम्प्रदायों के बीच की छोटी-मोटी तानातनी को चर्चाओ का विषय बनाकर राष्ट्रीय राजनैतिक शीर्ष पर कब्जे़दारी की एक सफल कोशिश की गयी और इस सफलता को हवा देने में उन दलो का भी पूरा योगदान रहा जो अभी तक सिर्फ मुसलिमों अथवा दलितो को वोट बैंक की ताकत के रूप में स्वीकारते हुऐ सवर्ण हिन्दू वर्ग की अनदेखी कर सत्ता पर कब्जेदारी की राजनीति कर रहे थे। छोटे व सामान्य मुद्दे उठाकर बिना किसी दावे अथवा प्रलोभन के सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुऐ नेताओ को जब यह समझ में आने लगा कि सत्तापक्ष के रूप में निर्धारित कार्यकाल का एक बड़ा हिस्सा व्यतीत हो जाने के बाद सरकारी व्यवस्था उन तमाम विषयों पर मौन अथवा असफल है जो विपक्ष के रूप में उसके द्वारा प्रमुखता से उठाये जाते थे तो जनचर्चाओं में तब्दीली लाने अथवा आम जनता के बीच दिख रहे सरकार विरोधी माहौल से लोगो का ध्यान हटाने के लिऐ सत्ता पक्ष के नेताओ ने बड़े ही सुनियोजित अन्दाज़ से एक बार फिर हिन्दू-मुसलिम विवाद को हवा देने की कोशिश की है और सत्ता पक्ष द्वारा नियुक्त राजनैतिक सलाहकारों व वेतन भोगी आईटी प्रोफेशनलों की मदद से देश की बहुसंख्य जनता को यह समझाया जा रहा है कि एक वर्ग विशेष के आर्थिक बहिष्कार को माध्यम बना आसानी के साथ इन्हे दोयम दर्जे़ का नागरिक बनाकर रखा जा सकता है लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई सम्भव है कि अगर भारत के दो प्रमुख सम्प्रदाय हिन्दू और मुसलिम अपने राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक हितो को देखते हुऐ एक-दूसरे के खिलाफ राजनैतिक रूप से लामबन्द हो जाये तो हमारा यह प्यारा देश भारत वैश्विक मानचित्र पर दिन दूनी व रात चैगुनी प्रगति के साथ नये कीर्तिमान स्थापित करेगा तथा इस बात की गारन्टी कौन लेगा कि मुसलमानो अथवा हिन्दुओं के एक -दूसरे के रास्ते से हट जाने के बाद यह दोनो ही सम्प्रदाय इस लड़ाई को शिया बनाम सुन्नी दलित बनाम सवर्ण या फिर अन्य क्षेत्रीय आधार तक नही ले जायेंगे। वर्तमान दौर में असल संघर्ष पूॅजीपति मानसिकता व सर्वहारा वर्ग के बीच है तथा देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा यह समझ रहा है कि उसे गलत राजनैतिक दिलासा व कोरे आश्वासनो के आधार पर भ्रम में रखने की कोशिश की जा रही है। लिहाजा़ सत्ता पर कब्जे़दारी के लिऐ इस तरह की राजनैतिक कोशिशें आगे और तेज़ होंगी और हमे अपने समाज पर हो रहे इस वैचारिक हमले से बचने के लिऐ उसे तथ्यों व सत्यता से आगाह करवाना आवश्यक होगा।