उत्तराखण्ड की लोककला व संस्कृति की अपूर्णीय क्षति है पप्पू कार्की का असायमिक निधन।
उत्तराखण्ड के लोकगायक पवेन्द्र सिह उर्फ पप्पू कार्की की असायमिक मृत्यु स्थानीय स्तर पर कार्य कर रहे लोक कलाकारों के लिऐ एक बड़ा झटका है तथा इस रचनाधर्मी कलाकार का यूॅ ही एकाएक हमारे बीच से चला जाना साहित्य एंव लोककला के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व क्षति के समान है क्योंकि चैतीस वर्ष की अपनी अल्पायु में उन्होने जो मुकाम हासिल किया था, वह ख्याति कम ही लोगो को मिल पाती है लेकिन उनकी व उनके एक अन्य साथी पुष्कर गौनिया की इस दर्दनाक हादसे में हुई मौत ने कई सवाल खड़े किये है और इन तमाम सवालों के जबाब स्थानीय शासन-प्रशासन व राज्य की सरकार ने अतिशीघ्र ढ़ूॅढ़ने ही होंगे वरना राज्य में आये दिन होने वाली सड़क दुघर्टनाओं के दौरान होने वाली अपूर्णीय मानव क्षति को रोक पाना हमारे लिऐ कठिन नही बल्कि असंभव होगा। उत्तराखण्ड के मार्गो की खस्ता हालत तथा राज्य के विभिन्न क्षेत्रो में बिना किसी नियन्त्रण के चलने वाले सड़क यातायात में असीमित दुघर्टनाओं की सम्भावनाऐं किसी से छिपी नही है और न ही शासन व सरकार का कोई अंग इन बेलगाम व्यवस्थाओं को लेकर सजग नज़र आता है। इन हालातो में अगर पप्पू कार्की अथवा राज्य का कोई अन्य नागरिक या पयर्टक सड़क दुघर्टना का शिकार होकर अपने प्राण खो बैठता है तो इसके लिऐ किसे ज़िम्मेदार माना जाना चाहिऐं। हो सकता है कि सरकारी तन्त्र की बेलगाम नौकरशाही पर लगाम रखने के लिऐ ज़िम्मेदार राजनेता अथवा राज्य के पहाड़ी व घुमावदार मार्गो पर धीरे चलकर सुरक्षित यात्रा करने का तर्क देने वाले कुछ सरकार के समर्थक हमारे इस तर्क से सहमत न हो और ‘होनी को कौन टाल सकता है‘ ‘ वाले अन्दाज़ में एक सामान्य शोक सभा अथवा शब्दो के माध्यम से दी जाने वाली श्रंद्धाजली के ज़रिये अपने कर्तव्यों की इतिश्री करने वाले तमाम बुद्धिजीवी व लोककला प्रेमी इस गम्भीर घटनाक्रम को काल का फैसला मानकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मात्र करना चाहते हो लेकिन पप्पू कार्की के इस बलिदान ने जिन सवालों की ओर ध्यान इंगित किया है उन प्रश्नो का जबाव शीघ्रातिशीघ्र ढूढ़ा जाना चाहिऐं। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि उत्तराखण्ड की लोककला व लोक संस्कृति के ध्वज वाहक के रूप में कार्य कर रहे राज्य के कई नामचीन व गुमनाम कलाकार अपनी रोजी़-रोटी के संघर्षो के तहत् विभिन्न प्रकार के मंचीय प्रर्दशनों व सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों आदि के माध्यम से ही अपने जीवन का निर्वाह करते है तथा सामान्य परिस्थितियों में उन्हे मिलने वाले मानदेय व अन्य सरकारी मदद इतनी कम है कि अपने दैनिक खर्चो की पूर्ति के लिऐ इन तमाम कलाकारों को अपनी इस कला साधना के साथ ही साथ कुछ न कुछ छोटे-मोटे काम धन्धे करने ही पड़ते है और ऐसा न कर पाने वाले लोक कलाकार मुफलिसी व भुखमरी में अपना जीवन यापन कर रहे है। हालाॅकि इन तमाम तर्को व तथ्यों का एक सीधे तौर पर सड़क दुघर्टना दिखने वाली घटना से कोई वास्ता नही है और न ही हम यह कहने का प्रयास कर रहे है कि लोक कला या लोक संगीत की साधना में लगी प्रदेश भर के कलाकारों की बड़ी फौज को राज्य अथवा केन्द्र सरकार द्वारा इस हद तक मानदेय या अन्य आर्थिक सहयोग उपलब्ध करवाना चाहिऐं कि वह सरकारी तन्त्र पर एक किस्म का भार मात्र बनकर रह जायें लेकिन अगर आॅकड़ो पर नज़र डाले तो हम यह पाते है कि राज्य के विभिन्न हिस्सों में होने वाले तमाम सरकारी अथवा गैर सरकारी आयोजनों के दौरान अपनी कला का बेहतर प्रदर्शन करने वाले इन कलाकारों को इनकी प्रस्तुतियों के आधार पर दिया जाने वाला मानदेय व अन्य भत्ता इतना कम है कि इसकी प्रतिपूर्ति के लिऐ लोककलाकारों द्वारा दिन-रात के हिसाब से लगातार की जाने वाली भागदौड़ व अधिकतम् कार्यक्रमों में भागीदारी की जिद को नाजा़यज भी करार नही दिया जा सकता। यह ठीक है कि राज्य के संस्कृति विभाग द्वारा प्रायोजित अथवा आयोजित कार्यक्रमों में स्थानीय लोक कलाकारों की भागीदारी पर उनके आवास व भोजन की व्यवस्था आयोजकों द्वारा किया जाना पहली शर्त है लेकिन अधिंकाश मामलों में यह देखा जाता रहा है कि आयोजकों द्वारा इस पक्ष की गम्भीरता पर ध्यान नही दिया जाता और किसी भी कार्यक्रम का महत्वपूर्ण अंग होने के बावजूद इन आयोजनों के दौरान स्थानीय लोककलाकारों को भोजन का न मिलना व इनके रात्रि विश्राम की व्यवस्थाओं का न होना एक सामान्य सी बात मानी जाती है। नतीजतन रात-बे रात सफर करने को मजबूर यह लोक कलाकार अनजाने में ही सड़क दुघर्टनाओं या अन्य हादसों के शिकार हो जाते है और इनकी मृत्यु के घटनाक्रम को एक सामान्य सड़क दुघर्टना का दर्जा मात्र देकर शीघ्र ही बिसरा दिया जाता है। कितना आश्चर्यजनक है कि अपनी कला व मंचीय प्रर्दशनों के ज़रिये तमाम कार्यक्रमों में चार-चाँद लगा देने वाले इन लोक कलाकारों को यात्रा व्यय के नाम पर रोडवेज की सामान्य बसों का किराया मात्र ही देय होता है और सामान्य परिस्थितियों में राज्य की अधिकांश सड़कों व ग्रामीण क्षेत्रो हेतु रोडवेज की अनउपलब्धता के चलते इनके यात्रा बिलो के भुगतान हेतु यह पूरी तरह सरकार की बाबूगिरी की दया पर ही निर्भर होते है।इन हालातो में इन लोक कलाकारो व इनके दलनायको की मजबूरी है कि यह साधनो की उपलब्धता के आधार पर ही अपने कार्यक्रमों की रूपरेखा तय करे या फिर राज्य के तमाम हिस्सों में चलने वाली टैक्सी -मैक्सी कैब पर भरोसा जताते हुऐ उनके चालको के रहमोकरम पर खुद को छोड़ दे। यातायात के संसाधनो के रूप में रोडवेज की बसो या अन्य व्यवस्थागत् साधनो को छोड़कर निजी वाहनो अथवा उपलब्धता व घन्टो के आधार पर मिलने वाली टैक्सी-मैक्सी कैब पर कलाकारों के भरोसे का एक बड़ा कारण मंचीय आयोजनों के दौरान इस्तेमाल किये जाने वाले वाद्य यन्त्रो की सुरक्षा व अन्य साजो-सामान को लाने-ले जाने की सुविधा से भी जुड़ा है तथा यह तथ्य काबिलेगौर है कि स्थानीय लोक कलाकारों को इस साजो-सामान को लाने या ले जाने के लिऐ अलग से कोई भत्ता नही दिया जाता जबकि आयोजनों के दौरान इस तरह के साजो -समान की महत्वपूर्ण भूमिका के चलते इसकी हिफाजत अपने प्राणो से भी ज्यादा गम्भीरता से करना एक लोक कलाकार की जरूरत भी है और मजबूरी भी। लिहाजा राज्य के तमाम लोक कलाकारों द्वारा रात-बेरात किया जाने वाला सफर या फिर रात भर मंचीय प्रदर्शन व प्रस्तुति के बाद हुई थकान के बावजूद पहाड़ के घुमावदार मार्गो में पूरे दिन किया जाने वाला सफर एक सामान्य सी घटना है और इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि देवयोग से चल रही इस भागमभाग वाली जिन्दगी में किसी भी लोक कलाकार का पप्पू कार्की की तरह दुघर्टनाग्रस्त होना या फिर प्राणो की परवाह किये बिना छोटी-छोटी धनराशि के लिऐ एक कोने से दूसरे कोने तक भागना सामान्य घटनाक्रम का हिस्सा मात्र है जिसमें किसी भी प्रकार की अनहोनी होने की स्थिति में सामान्यतः कलाकारों को ही दोषी माना जाता है। यह एक बड़ा सवाल हो सकता है कि क्या इस किस्म की जल्दबाजी, राह चलते होने वाली सड़क दुघर्टना अथवा रात- बे-रात यात्रा की स्थिति में महिला कलाकारों के साथ प्रबल दिखने वाली छेड़छाड़ की सम्भावनाओं के लिऐ क्या सिर्फ लोक कलाकार अथवा विभिन्न सांस्कृतिक दलो का नेतृत्व करने वाले दलनायक मात्र ही ज़िम्मेदार है या फिर इसके लिऐ सरकारी व्यवस्था का वह बड़ा हिस्सा भी दोषी है जिसने स्थानीय कलाकारों की स्थिति उन चारण-भाट कलाकारों सी बना दी है जिनके समक्ष किसी भी परिस्थिति में सरकार की कार्यशैली की प्रशंसा करने के अलावा और कोई चारा भी नही है। मजे की बात यह है कि इस प्रकार की बन्धुआ मजदूरी या फिर शोषण के बाद इन कलाकारों को सरकार की ओर से जो मानदेय दिया भी जाता है उस पर पूरी तरह बाबूगिरी का साम्राज्य है और मौखिक निर्देशों के आधार पर पल-पल बदलने वाले सरकारी नियमों के चलते यह कलाकार साल-साल भर से भी ज्यादा अवधि तक अपने देयको व यात्रा बिलो का भुगतान न मिलने के कारण मानसिक यन्त्रणा के दौर से गुजरते है लेकिन इस सबके बावजूद अपनी कला को जनता के बीच रखने का जुनून और मंच पर चढ़ने के बाद दर्शकों की ओर से मिलने वाली तालियों की गड़गड़ाहट उनकी मजबूरी है और शौक भी। इसी शौक को पूरा करने के लिऐ राज्य भर में फैले तथा विभिन्न संगठनों के माध्यम से काम रहे यह उत्साही कलाकार अपने प्राणो की बाजी़ लगा सस्ंकृति व लोककला के क्षेत्र में अपना अतुलनीय योगदान देने में जुटे हुऐ है। अब यह आपको तय करना है कि पप्पू कार्की की इस मौत को एक सामान्य दुघर्टना मात्र मान कर अन्य कलाकारों को एक बार फिर पूर्व की भाॅति हालातों से जूझने के लिऐ छोड़ दिया जाय या फिर लोक कला व लोक संस्कृति के तमाम प्रशंसक व समर्थक समावेत स्वरों में सरकार से यह माॅग करे कि इन कलाकारों को हालातो से जूझते हुऐ तिल-तिलकर मरने देने की जगह वह इनकी बेहतरी की दिशा में प्रर्याप्त कदम उठाये।