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Wednesday, April 24, 2024

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न्याय की गुहार के साथ ।

मुख्यमन्त्री के जनता दरबार में एक अध्यापिका द्वारा अपनी पीड़ा व्यक्त करने पर उसके साथ हुआ र्दुव्यवहार शर्मनाक।

एक बार फिर हंगामे की भेट चढ़ा मुख्यमन्त्री का जनता दरबार और जनता दरबार के दौरान तैश में मुख्यमन्त्री द्वारा पीड़ित पक्ष अर्थात शिकायत कर्ता अध्यापिका को तत्काल प्रभाव से निलम्बित करने के संदर्भ में जारी किये गये मौखिक आदेश उत्तराखण्ड की पूरी शासन व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। हाॅलाकि उत्तराखण्ड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से ही सरकारी शिक्षको के स्थानांतरण का मुद्दा और सुगम-दुर्गम के निर्धारण को आधार बनाकर कुछ प्रभावशाली लोगो के इशारे पर सुविधाजनक स्थानो का चयन करते हुऐ एक कुटीर उद्योग की तर्ज पर स्थानांतरण के माध्यम से पैसा बनाने की कला हमेशा ही चर्चाओ का विषय रही है लेकिन यह माना जा रहा था कि राज्य की नवगठित सरकार द्वारा स्थांनातरण विधेयक बना इसे सख्ती से लागू किये जाने के आदेश जारी करने के बाद इस प्रकार की तमाम गतिविधियों पर विराम लगेगा और सुदूरवर्ती पर्वतीय क्षेत्रो को अपने स्कूलो के लिऐ पर्याप्त संख्या में अध्यापक, अस्पतालो के लिऐ डाॅक्टर व अन्य कर्मचारी तथा तमाम सरकारी सुविधाओ का बेहतर तरीके से संचालन करने के लिऐ अन्य स्टाॅफ आसानी से उपलब्ध हो पायेगा किन्तु इस हंगामे के बाद यह लगभग स्पष्ट हो चुका है कि एक कानून के अस्तित्व में आने व वर्तमान सरकार द्वारा इस सफलता का श्रेय स्ंवय लेने के बावजूद स्थितियाॅ जस की तस है और जनसामान्य अथवा कर्मचारी वर्ग की समस्याओं का कोई न्यायोचित समाधान नही मिला है। यह ठीक है कि सरकार अगर चाहे भी तो हर व्यक्ति की समस्या का समाधान नही खोजा जा सकता है लेकिन सत्ता के शीर्ष पदो पर बैठे लोकसेवको व जनप्रतिनिधियों का यह फर्ज तो है ही कि वह अपनी शिकायतें अथवा परेशानी लेकर उपस्थित हुई जनता की बात को विनम्रता से सुने और धमकाने वाले अनदाज़ में प्रतिक्रिया व्यक्त करने के स्थान पर वाजिब समस्याओं का संवेधानिक तरीके से हल ढ़ूढ़ने का प्रयास किया जाये। यह एक बड़ा प्रश्न है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में जनता दरबार का क्या तात्पर्य है तथा इस प्रकार के आयोजनों में सरकारी कर्मचारी का अपनी समस्याओं के समाधान की नीयत से जन प्रतिनिधियों अथवा मुख्यमन्त्री से मिलना कितना गलत अथवा सही है लेकिन जहाॅ तक सवाल पीड़ित पक्ष के रूप में उत्तरा पन्त बहुगुणा द्वारा उठाये गये सवालो का है तो उन्हे गलत नही ठहराया जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि अपने पति की आकस्मिक मृत्यु के तत्काल बाद से ही अपने परिवार की देखरेख व अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियों के वहन को लेकर सुदूरवर्ती पर्वतीय क्षेत्र से देहरादून स्थानान्तरित किये जाने की मांग कर रही यह सत्तावन वर्षीय महिला पूरी तरह गलत थी। अगर सवाल पीड़िता द्वारा उठाये गये विषयों का है तो इस तथ्य को नकारा नही जा सकता कि न सिर्फ मुख्यमन्त्री बल्कि राज्य मन्त्रीमण्डल के तमाम अन्य मन्त्रियों व सत्ता पक्ष या विपक्ष के लगभग सभी वर्तमान व पूर्व विधायकों में से जिनकी भी पत्नियाॅ सरकारी शिक्षक के रूप में काम कर रही है उनमें से अधिकांश को सुविधाजनक स्थानो अर्थात हल्द्वानी अथवा देहरादून के आसपास वाले मैदानी क्षेत्रो में समायोजित करने अथवा तैनात करने के लिऐ सरकार अपनी ऐड़ी-चोटी का जा़ेर लगा देती है तथा हरक सिंह रावत जैसे दंबग मन्त्रियों या ओमप्रकाश जैसे नौकरशाह के आगे झुकते हुऐ सरकारी तन्त्र तमाम नियम कानूनो को दाॅव पर रखकर पहुॅच वाले अर्थात इन तथाकथित बड़े लोगो के खास माने जाने वाले अध्यापको व अन्य कर्मियों को मनवांछित तैनाती दे देता है लेकिन एक सामान्य कर्मचारी द्वारा इन विषयों को उठाने की कोशिश भी सत्ता के मद में चूर मठाधीशो द्वारा सहन नही की जाती और अपनी बात उचित मंच पर रखने के लिऐ परेशान व हालातो से जूझ रहे कर्मी को निलम्बन व पुलिस गिरफ्तारी जैसी अड़चनो से जूझना पड़ता है। इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में कर्मचारी संगठनो का क्या रूख है तथा सम्पूर्ण विपक्ष समेत राज्य के तमाम छोटे-बड़े राजनैतिक दल व अन्य सामाजिक संगठन इस घटनाक्रम को किस तरह से लेते है यह तो पता नही लेकिन राज्य में पहली बार बनी एक पूर्ण बहुमत सरकार के समक्ष जिस प्रकार की अड़चने सामने आ रही है और सरकार द्वारा प्रायोजित जनता दरबार में जिस तरह की घटनाऐं घटित होती दिखाई दे रही है उससे तो यह साफ जा़हिर होता है कि मौजूदा सरकार जनापेक्षाओं पर खरी नही उतर रही। यह माना कि सत्ता के उच्च सदनो पर विराजने वाले लोगो की भी अपनी कुछ मजबूरियाॅ है और राजकाज को सुचारू रूप से चलाने के लिऐ कभी-कभी सख्ती का बर्ताव किया जाना भी आवश्यक है लेकिन सवाल यह है कि राज्य सरकार अथवा सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति द्वारा यह नियम सबके लिऐ एक समान रूप से लागू किया जा रहा है और इससे पहले जनता दरबार अथवा अन्य माध्यमों से माननीय मुख्यमन्त्री अथवा अन्य जनप्रतिनिधियों से मिलने वाले या अपनी सिफारिशे लगाने वाले कर्मचारियों के विरूद्ध सरकार द्वारा क्या कार्यवाही की गयी है। हमने देखा कि सरकार के नकारेपन के चलते इसी सरकार के कार्यकाल में एक युवा टाॅसपोर्ट व्यवसायी ने भाजपा कार्यालय में आयोजित जनता दरबार के दौरान ज़हर खाकर न सिर्फ अपनी जान दी बल्कि सरकार बहादुर ने अपनी पूर्व घोषणाओं को पलटते हुऐ पीड़ित परिवार को किसी भी तरह का मुआवजा़ देने से इनकार कर दिया और इसके बाद कुछ इसी तरह की घटनाओ से प्रभावित होकर अथवा भाजपा कार्यालय में अपेक्षाओ के अनुरूप भीड़ न जुटने के कारण जनता दरबार की यह प्रक्रिया अघोषित रूप से रद्द कर दी गयी। नतीजतन अपनी आशाओं व अपेक्षाओं के साथ जनपक्ष के एक हिस्से का मुख्यमन्त्री के इस हालियाॅ आयोजन में दिखना स्वाभाविक था और अभी तक हुऐ इस प्रकार के तमाम आयोजनों में किसी भी नेता अथवा पूर्व या वर्तमान मुख्यमंत्री ने यह शर्त नही रखी कि इस प्रकार के कार्यक्रमो में सरकारी कर्मचारी की भागीदारी निषेध है। रहा सवाल पीड़ित महिला के व्यवहार अथवा आक्रोश का तो इस संदर्भ में सिर्फ इतना ही कहा जाना काफी है कि जब मुख्यमन्त्री ही अपनी वाणी पर संयम न रख पाये तो एक पीड़ित विधवा व वर्षो से अपनी फरियाद लेकर दर-दर भटक रही एक परेशान हाल महिला से यह उम्मीद क्यों करनी चाहिऐं। मुख्यमन्त्री के जनता दरबार में पीड़ित महिला द्वारा सार्वजनिक रूप से की गयी अभ्रद टिप्पणी के अलावा शराब की बिक्री व व्यवसाय को प्रोत्साहित कर रही सरकार के संदर्भ में दिया गया बयान भी इस राज्य की वस्तुस्थिति एंव सामान्य परिवार की महिलाओं के आक्रोश का आभास कराता है तथा शोर-गुल के बीच गूॅज रहे चन्द शब्दो मात्र से ही यह अहसास हो जाता है कि ‘‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओं‘‘, ‘‘सबका साथ सबका विकास‘‘ एंव ‘‘खुशहाल उत्तराखण्ड ‘‘देने के नारो के साथ राज्य की सत्ता पर काबिज हुई भाजपा वाकई में किस दिशा की ओर काम कर रही है। यह ठीक है कि उत्तराखण्ड की सत्ता पर त्रिवेन्द्र सिंह रावत की कब्जे़दारी के बाद हुऐ एकमात्र विधानसभा के उपचुनाव में भाजपा को मिली जीत के बाद यह मान लिया गया है कि जनता अभी इस सरकार को काम करने के लिऐ और वक्त देना चाहती है तथा राज्य में आयोजित योग दिवस व अन्य नेताओ के आगमन पर ठीक-ठाक भीड़ जुटाने अथवा सत्ता पक्ष के मन्त्रियों व विधायकों के गाहे-बगाहे छलकने वाले आक्रोश को नज़रदांज करने से यह माना गया कि अनुभवहीनता के बावजूद टीएसआर सरकार हालातो पर काबू पाते हुऐ राजकाज चलाने में कामयाब रहेगी लेकिन चल रही चर्चाओं को देखते हुऐ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भाजपा का हाईकमान इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में अपनी साख बचाने के लिऐ त्रिवेन्द्र सिंह रावत की बलि चढ़ा सकता है क्योंकि केन्द्रीय सत्ता पर काबिज नेताओ के लिऐ मुख्यमन्त्री को बचाने से कही ज्यादा अहम् राज्य की पाॅच लोकसभा सीटो पर जीत एंव महिलाओं के बीच अपनी साख को बचाना ज्यादा जरूरी है। अगर राजनैतिक कारणो को छोड़ भी दिया जाये तो उत्तराखण्ड राज्य की जनता के हित और पहाड़ में लगातार हो रहे पलायन को रोकने के लिऐ सरकार द्वारा तथाकथित रूप से किये जा रहे प्रयासो के मद्देनज़र भी इस समस्या का स्थायी समाधान निकाला जाना अब जरूरी हो गया है तथा यह माना जा रहा है कि अगर इस वक्त सरकार द्वारा मुख्यमन्त्री की पत्नी समेत तमाम माननीयों व शासन में बैठें नौकरशाहो की सरकारी सेवारत् पत्नियों के बारे में कोई स्पष्ट आदेश व एक श्वेत पत्र जारी नही किया गया तो इस विषय पर जनता व सरकारी कर्मचारियों के संगठनो के आक्रोश का सामना करना नेताओ के लिऐ मुश्किल हो सकता है।

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