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Tuesday, April 23, 2024

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पूर्ण शराबबंदी के लक्ष्य के साथ

न्यायालयी आदेशों में फेरबदल के बावजूद कम नहीं होगी सरकार की दुश्वारियाँ और आगामी वर्षो में भी चुभता रहेगा शराब विरोधी आन्दोलन का दंश
आखिरकार भाजपा के नेता न्यायालय को यह समझाने में कामयाब रहे कि लगातार बढ़ रहे सरकार के खर्चो की पूर्ति के लिऐ न्यायालय द्वारा विगत् में दिये गये शराब बिक्री पर रोक या वैकल्पिक स्थानों के चयन वाले आदेश में सुधार किया जाना क्यों आवश्यक है। इस विषय पर अलग से चर्चा की जा सकती है कि उत्तराखंड सरकार द्वारा कितने खर्च व किन कुशल अतिवक्ताओं के दल द्वारा की गयी पैरवी के बाद सरकार ने यह सफलता हासिल की लेकिन यह तय है कि अब उच्चतम् न्यायालय द्वारा किये गये रद्दोबदल के बाद प्रदेश का सरकारी तंत्र काफी हद तक राहत महसूस करेगा और प्रदेश के लगभग सभी पुराने ठिकानों पर शराब की दुकानें बदस्तूर खोली जा सकेंगी। हांलाकि अभी यह कहना मुश्किल है कि न्यायालय के इस फैसले के बाद सुदुरवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों के साथ ही साथ प्रदेश के तमाम कस्बाई इलाको व छोटे शहरों में हो रहा शराब विरोधी आन्दोलन पूरी तरह समाप्त हो जायेगा और इन आन्दोलनों में विशेष भागीदारी कर रही स्थानीय महिलाऐं न्यायालय के इस फैसलों को अपनी जीत मानते हुऐ चुपचाप अपने घरेलू कामकाज को संभालते हुऐ पुरानी दिनचर्या पर लौट आयेंगी लेकिन इतना तय है कि न्यायालय के इस फैसले के बाद सरकार राहत महसूस करेगी और उसकी पूरी कोंशिश अपना लक्ष्य प्राप्त करने व राजस्व घाटे की भरपाई का होगा। सरकार यह जानती है कि उसे हाल-फिलहाल किसी चुनाव का सामना नही करना और न ही जनता विशेषकर महिला वर्ग की शराब बिक्री के मामले में स्पष्ट जाहिर हो रही सरकार के खिलाफ नाराजी में इतनी ताकत है कि वह एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार का बाल भी बांका कर सके। इसलिए सरकारी स्तर पर शराब बिक्री, इसकी खपत को कम करने के लिऐं किसी भी तरह के कड़े फैसले की उम्मीद नही की जा सकती और न ही यह माना जा सकता है कि सरकारी तंत्र अथवा सत्ता के शीर्ष पदों पर बैठे नेता उन कारणों की तलाश करने की कोशिश करेंगे जिनके चलते जनसामान्य का एक बड़ा हिस्सा अर्थात् बेरोजगार, युवा और रोज कमाकर खाने वाला श्रमिक वर्ग अपने रोजमर्रा के खर्चो को पूरा करने की जगह शराबखोरी में अपनी पसीने की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर रहा है। लिहाजा यह कहना गलत होगा कि शराब के मुद्दे पर पिछले लगभग चार-पाँच माह से आन्दोलन कर रहे स्थानीय जनसंगठनांे व महिला समूहों ने इस लंबे संघर्ष के बाद किसी भी तरह की उपलब्धि हासिल की है या फिर एक लंबे अन्तराल के बाद सड़कों पर उतरे महिलाओं के जत्थे सिवाय मुकदमेंबाजी के अन्य कोई भी मुकाम हासिल पाये है लेकिन इस अंतराल में आन्दोलनकारी संगठनों से हुई वार्ताओं के बाद आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि शराब के मुद्दे पर सरकार द्वारा आनन-फानन में लिये गये निणर्याें से प्रदेश की जनता का एक बड़ा हिस्सा विशेषकर देश-दुनिया की आधी आबादी माना जाने वाला महिला वर्ग बहुत ज्यादा खुश नही है और इस नाराज तबके में वह लोग भी शामिल है जिन्होंने प्रदेश विधानसभा के चुनावी अवसर पर भावनाओं के अतिरेक में बहकर भाजपा के पक्ष में मतदान किया था। इसलिऐं यह कहना गलत नही होगा कि अगले पाँच सालों में सरकार की किसी भी छोटी-बड़ी गलती की स्थिति में यह गुस्सा ज्वालामुखी बनकर बाहर आ सकता है या फिर शराब बिक्री के विरोध में बन रहे वर्तमान माहौल को आगामी चुनावों में एक हथियार बना विपक्ष द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है । हांलाकि शराब के विरोध में लगभग पूरे उत्तराखंड में हुऐ हाॅलिया आन्दोलन के दौरान विपक्ष की भूमिका भी संदिग्ध नजर आयी है और ऐसा कोई भी उदाहरण नही है कि किसी जाने-पहचाने बड़े नेता या विपक्षी दल ने खुलकर शराब विरोधी आन्दोलन में भागीदारी करते हुऐ सरकार विरोधी प्रदर्शनों में भागीदारी की हो लेकिन यह तथ्य सत्तापक्ष के लिये भी राहत भरा नही हो सकता क्योंकि प्रदेश में हाल-फिलहाल में होने वाले सबसे अहम् चुनाव पंचायतों व स्थानीय निकायों के है और यह तथ्य किसी से भी छुपा नही है कि इन चुनावों के बाद सत्तापक्ष व विपक्ष के नेताओं द्वारा दिये जाने वाले बयान भले ही किसी भी राजनैतिक दल के पक्ष में नजर आते हो किन्तु इन चुनावों में चुने जाने वाले जनप्रतिनिधि जनता के बीच आते समय अपनी दलीय भूमिका को दरकिनार करने के बाद ही मैदान में जाते है। इसलिऐं उम्मीद की जानी चाहिऐ कि आगामी पंचायत व स्थानीय निकाय चुनाव में शराब विरोधी आन्दोलनों में अहम् भूमिका निभाने वाला तबका इस बार खुलकर चुनावी मैदान में दो-दो हाथ करने की कोशिश करेगा और देश की प्राथमिक स्तर वाली जनपंचायतों के तमाम छोटे-बड़े पदों पर शराब विरोधी आन्दोलनकारियों का कब्जा होगा और अगर ऐसा हुआ तो यकींन जानियें कि पूरे देश व दुनिया में यह संदेश जाते देर नही लगेगी कि लोकतंत्र की इन प्राथमिक पाठशालाओं के माध्यम से इन पहाड़ी प्रदेश की जनता ने किस तरह का संदेश प्रदेश सरकार व समुचे विपक्ष को देने का प्रयास किया हैं। लोकतंत्र की यहीं एक विशेषता है कि यहाँ जनता द्वारा सही समय पर लिये गये फैसले प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर पर गठित होने वाली सरकारो व इन सरकारों के गठन हेतु प्रयासरत् तमाम छोटे बड़े राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों को अपनी भाषा में संदेश देने का प्रयास करते है और राजनीति के माहिर खिलाड़ी राजनेता व राजनैतिक दल इन्हीं संदेशों के आधार पर अपनी नीतियाँ व प्राथमिकताऐं सुनिश्चित करने के लिऐ विवश होते है। लिहाजा आगामी स्थानीय निकाय व पंचायत चुनावों में उत्तराखंड की जनता ने सत्तापक्ष एवं विपक्ष को यह संदेश देना चाहिऐं कि शराब के व्यापार को लेकर नेताओं द्वारा अपनाये जा रहे दोहरे चरित्र से वह किसी भी कीमत पर सहमत नहीं है। जनता द्वारा दो टूक अंदाज में व्यक्त की गयी यह असहमति हमारे नीतिनिर्धारकों व विपक्ष में रहकर भी सरकार के गलत फैसलों पर मौन दिख रहे विपक्ष को सचेत करने की दिशा मे उठाया गया एक कदम होगी तथा आगामी अवसरों पर जनान्दोलनों व जनता के आक्रोश को प्रदर्शित करने वाले विरोध प्रदर्शनों को सिर्फ सरकारी पक्ष द्वारा ही नही बल्कि विपक्ष द्वारा भी गंभीरता से लिया जायेगा। हम देख रहे है कि एक बार जनसमर्थन प्राप्त करने के बाद हमारे नेताओं व जनप्रतिनिधियों का अंदाज बदला हुआ नजर आता है और खुद को जनता का सेवक बताने वाले यह तमाम महानुभाव मौका मिलते ही अपने विशिष्ट व्यक्तित्व एंव आचरण का प्रदर्शन करना नही भूलते जबकि व्यापक जनमत के आधार पर चुनी जाने वाली अथवा गठित सरकारें लोकहित एवं जनकल्याण के ज्यादा करीब होनी चाहिऐं लेकिन नेता, विधायक या मंत्री बनने के बाद इस गलतफहमी में आ जाता है कि उसके इर्द-गिर्द उमड़ने वाली जनता उससे आर्थिक सहायता, विधायक निधि अथवा अन्य श्रोतों के जरिये विकास या फिर काम मांगने के उद्देश्य से उसकी जी-हुजूरी कर रही है और इन स्थितियों से निपटने के लिऐ वह ठेकेदारों, माफिया व अन्य आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की मदद से एक ऐसा तंत्र खड़ा करने का प्रयास शुरू कर देता है जो आने वाले वक्त में उसकी हर तरीके से मदद करते हुऐ उसे अगला चुनाव भारी बहुमत से जुटाने की गारन्टी दें। उत्तराखंड की सम्मानित जनता को चाहिऐं कि वह कुछ समय के लिऐ व्यक्तिगत् स्वार्थो से ऊपर उठकर इन नेताओं व जनप्रतिनिधियों से क्षेत्रीय समस्याओं का समाधान एवं शराबबंदी के मुद्दे पर उनके विचार जानने का कष्ट करें तथा समीकरणों, चुनावी खर्च अथवा लहर को दरकिनार करते हुऐ मुद्दों के आधार पर मतदान करने का लक्ष्य समाज के सामने रखे। यदि स्थानीय जनता ने पूर्ण शराबंदी के लक्ष्य और ग्रामीण, कस्बाई व शहरी क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं की प्राप्ति का मंत्र धारण कर आगामी चुनावों में मतदान का मन बना लिया तो यह तय है कि कुछ ही अंतराल बाद उन्हें बार-बार आन्दोलन का नारा देकर सड़कों पर उतरने की जरूरत महसूस नही होगी।

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