एक नई राजनैतिक पारी खेलने को तैयार दिखते हैं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी
कई दशकों तक देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस वर्तमान में खुद ही संशय की स्थिति में है और कार्यकर्ता स्तर पर उठ रही मांग के बावजूद वर्तमान तक भी कांग्रेस संगठन अपने शीर्ष नेतृत्व को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं कर पाया है। हालांकि कांग्रेस की वर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने दायित्वों का निर्वहन भली-भंाति किया है और राजनैतिक अनुभवहीनता के बावजूद, एक दिशाहीन हो चुके राजनैतिक संगठन को एकजुट कर सत्ता संघर्ष में वापस लाने का पूरा श्रेय भी उन्हीं को जाता है लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि उनके बूढ़े कंधे व बीमार शरीर इस जिम्मेदारी का लम्बे समय तक निर्वहन करने को तैयार नहीं हैं। लिहाजा कांगे्रस के भीतर नए उत्तराधिकारी की तलाश पिछले कुछ वर्षों पूर्व ही शुरू हो गयी है और कांग्रेस के तमाम नेताओं का बयान व विभिन्न राजनैतिक मंचों से गांधी परिवार को लेकर प्रदर्शित की जाने वाली आस्था को देखकर यह साफ लगता है कि अपने युवराज के रूप में कांग्रेस ने राहुल गांधी का नाम पहले ही आगे कर रखा है लेकिन हालात यह इशारा कर रहे हैं कि या तो राहुल खुद को इस बड़ी जिम्मेदारी के योग्य नहीं मानते या फिर वह संघर्षों की राजनीति के जरिए आगे बढ़ने के लिए कुछ और थकना व पकना चाहते हैं। उनके इस चिंतन को उनके राजनैतिक विरोधियों ने पप्पू का नाम दिया है और राजनीति के गलियारों में यह चर्चा है कि राजनैतिक रूप से कुशाग्र व सक्रिय न होने के बावजूद भारतीय राजनीति पर राहुल को जबरदस्ती थोपा जा रहा है। हालांकि यह कथन बहुत ज्यादा भरोसेमंद नहीं जान पड़ता और कांगे्रस के शीर्ष पदों पर काबिज न होने के बावजूद राहुल द्वारा संगठन को मजबूती प्रदान किए जाने के परिपेक्ष्य में लिए गए कुछ फैसलों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि राहुल भारत की राजनीति में एक बड़ा बदलाव लाना चाहते हैं लेकिन यह समझ पाना अभी भी मुश्किल है कि बिना एक मजबूत टीम व अनुभवी कंधों के यह बदलाव लाया जाना कैसे संभव है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज रह चुके तमाम उम्रदराज कांग्रेसी नेता वर्तमान में जनता के बीच जाकर संघर्ष करने के स्थान पर आराम से बैठकर अपनी बारी का इंतजार किया जाना ज्यादा मुफीद मान रहे हैं और इसके लिए उन्हें राहुल जैसे किसी चेहरे की तलाश है जिसे आगे कर गांधी परिवार द्वारा देशहित में दिए गए बलिदानों को याद दिलाया जा सके लेकिन इस तरह के दिवास्वप्न देखने वाले नेता यह भूल रहे हैं कि समय के बदलने के साथ ही साथ मौजूदा दौर के समाज की प्राथमिकताएं भी बदल चुकी हैं तथा वर्तमान में देश के तमाम लोकतांत्रिक फैसले लेने वाले मतदाताओं में अधिसंख्य संख्या उन युवाओं की है जिन्होंने गांधी या नेहरू का दौर नहीं देखा है और न ही वह इस तथ्य पर विश्वास कर रहे हैं कि कोई भी परिवार सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा व सम्मान के मकसद से अपनी कई पीढ़ियों को देशहित पर कुर्बान कर सकता है। लिहाजा यह तय है कि देश का युवा मतदाता राहुल को अपना नेता मानने से पहले उसे कई मोर्चों पर आजमाना चाहता है और राहुल भी एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह युवाओं के इन हमलों से बचने का प्रयास करते नहीं दिख रहे हैं या फिर यों कहिये कि खुद को पप्पू साबित कर अन्य दलों के बड़े पेट वाले नेताओं को दलितों के घर भोजन हेतु जाने पर विवश करने या खुद गांव देहात के चक्कर काटने में उन्हें भी मजा आ रहा है और शायद यही वजह है कि वह राजनीति में आगे बढ़ने का कोई शार्टकट नहीं चाहते। हो सकता है कि हमारे कई पाठक इस तथ्य से सहमत नहीं होंगे कि राहुल राजनीति में आगे बढ़ने के लिए कोई शार्टकट नहीं चाहते या फिर राजनीति के मैदान में कोई भी बड़ी जिम्मेदारी हासिल करने से पहले खुद को साबित करना राहुल गांधी की मजबूरी है लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल या उनकी मां सोनिया गांधी को कांग्रेस की राजनीति पर थोपा नहीं गया बल्कि कांग्रेस को संकटग्रस्त जान वक्त की जरूरत के हिसाब से ही यह दोनों हस्तियां राजनीति में आयी व बनी हुई हैं और अपनी राजनीतिक उपलब्धियों के पिटारे को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने लगभग हर मोर्चे पर संघर्ष किया है। एक समय था जब सोनिया गांधी अगर चाहती तो बड़ी ही आसानी से प्रधानमंत्री पद को हासिल कर सकती थी लेकिन उन्होंने यह सब कुछ हासिल करने से बेहतर राष्ट्रहित को तजरीह दी और अब इस तथ्य को कई तरीके से साबित किया जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने व एक नई दिशा देने में एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का कितना बड़ा योगदान है। ठीक इसी तरह हम यह भी महसूस कर सकते हैं कि अगर राहुल चाहते तो खुद की कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर ताजपोशी उनके लिए बहुत बड़ी बात नहीं थी लेकिन उन्होंने इस तरह की कोई भी जिम्मेदारी लेने से पूर्व विभिन्न मोर्चों पर राजनैतिक समस्याओं से जूझना ज्यादा श्रेष्ठकर माना और हार या जीत की परवाह किए बिना वह एक सिपाही की तरह राजनीति के हर मोर्चे पर जूझते दिखाई दिए। यह ठीक है कि उनका एकाएक ही देश को छोड़कर गुप्त तौर पर यात्रा पर निकल जाना या फिर एकाएक ही राजनैतिक परिपेक्ष्य से गायब हो जाना लोगों को अखरता है और उनके तमाम विरोधियों ने राहुल की इन यात्राओं को कई तरह के नाम देकर उन्हें राजनैतिक रूप से बदनाम करने की कोशिश भी की है लेकिन क्या यह संभव नहीं है कि अपनी हर हार या प्रत्येक बड़े फैसले से पूर्व उन्हें आत्मचिंतन की आवश्यकता महसूस होती हो और राजनीति के इस दौर में भी वह अपने फैसलों पर पुर्नविचार करने या फिर उन्हें तर्कों की कसौटी पर कसे जाने की आवश्यकता महसूस करते हो। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी संवैधानिक पद पर न रहने के बावजूद राहुल आज भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी-पहचानी जाने वाली हस्ती हैं क्योंकि वह उस राजनैतिक दल के सम्भावित मुखिया हैं जिसने न सिर्फ देश की आजादी के आंदोलन में भागीदारी की है बल्कि आजाद भारत के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। लिहाजा यह तय है कि अगर राहुल गांधी अपने गुप्तकाल अथवा राजनैतिक सुशुप्तावस्था में कहीं दांये-बायें जाते हैं (जैसा कि सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रम फैलाने की कोशिश की जाती रही है) तो उनके इस तरह के कोई कार्यक्रम मीडिया की तीखी नजरों से बचे नहीं रह सकते और न ही इस तरह की आदतों को सार्वजनिक मंचों पर छुपाया जा सकता है। दुनिया ने राहुल गांधी को जितना भी देखा, सुना और समझा है, उससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि उनमें ऐसा कोई ऐब या कमी नहीं है जिसे जनसामान्य से छिपाने की कोशिश की जाय और रहा सवाल उनकी सफलता या असफलता का तो इस परिपेक्ष्य में उन्होंने स्वयं भी कई बार यह माना है कि वह राजनीति की बिसात के नौसिखिया खिलाड़ी हैं। इसीलिए किसी भी मोर्चे पर उतरने से पहले वह हर तरह के अनुभव को पाने व अनुभवों से कुछ सीखने की कोशिश कर रहे हैं और अगर राहुल की कार्यशैली को सफलता या असफलता के पैमाने से देखने की जगह उनकी मेहनत व जज्बे की नजर से देखा जाय तो हम पाते हैं कि राहुल नयी पीढ़ी के एक ऐसे नेता हैं जो सिर्फ कुछ पाने के लिए नहीं बल्कि एक सामाजिक बदलाव लाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उनका राजनीति करने का यह तरीका उनके विपक्ष को ही नहीं बल्कि उनकी ही पार्टी के भी कई नेताओं को हैरान व परेशान किए हुए है। नतीजतन राहुल को राजनीति के मैदान से बाहर धकियाये जाने की साजिशें व कोशिशें समानान्तर रूप से जारी हैं और राहुल के राजनैतिक प्रतिद्वन्दी यह कदापि नहीं चाहते कि भारत के लोग राहुल गांधी की राजनैतिक सामथ्र्य एवं योग्यता को जनचर्चा का विषय बनायें।