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Saturday, April 20, 2024

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एक बड़ी जिम्मेदारी के साथ।

राष्ट्रीय काॅग्रेस के महासचिव के रूप में उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून पहुँचकर हरीश रावत ने किया कार्यकर्ताओ में एक नये उत्साह का संचार।

आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र अभी कुछ भी साफ नही कहा जा सकता और नही यह दावा किया जा सकता है कि अपने मौजूदा कार्यकाल में कुछ भी बेहतर न करने के आरोपों को झेल रही भाजपा को कोई भी राजनैतिक दल या गठबन्धन खुली चुनौती देने की स्थिति में है। इन हालातों में यह अन्दाज़ा लगाया जाना आसान है कि अपने राजनैतिक अस्तित्व पर आये इस संकट की स्थिति में काॅग्रेस की राजनैतिक हालत बहुत मज़बूत नही है और न ही यह माना जा सकता है कि काॅटो के ताज की तरह सुशोभित काॅग्रेस संगठन का कोई भी महत्वपूर्ण पद किसी संवेदनशील नेता को उसकी जिम्मेदारियों का अहसास कराते हुऐ ज्यादा विनम्र बनाने की जगह तिकड़मबाज़ व महत्वाकांक्षी बना सकता है लेकिन हरीश रावत को राष्ट्रीय काॅग्रेस के महामन्त्री पद से नवाजे़ जाने के बाद कुछ छुटभैय्ये नेता व बिना किसी जनाधार के महत्वपूर्ण पदो की आकांक्षाऐं रखने वाले चाटुकार यह सन्देश देने का प्रयास कर रहे है कि राहुल के दरबार में तेज़ी के साथ बड़े हारीश रावत के कद के कारण उनके इस क्षेत्र के एकछत्र नेता बनने तथा उनके विरोध में उठने वाले सुरो के मन्द हो जाने की सम्भावनाओं पर कोई सवाल नही है। हाॅलाकि काॅग्रेस, शीर्ष स्तर पर हमेशा ही दिखाई देने वाली गुटबाज़ी का खामियाज़ा भुगतती रही है और उत्तराखण्ड के परिपेक्ष्य में तो हरीश रावत के नेतृत्व वाली काॅग्रेस सरकार पर तानाशाही के रवैय्ये का आरोप लगाकर सरकार को गिराने की साज़िश का किस्सा किसी से छिपा नही है लेकिन इस सबके बावजूद काॅग्रेसी दिग्गज आपसी गुटबाज़ी व खेमेबाज़ी छोड़ने को तैयार नही दिखते है और काॅग्रेस द्वारा आहुत तमाम कार्यक्रमों व सगंठनात्मक बैठको में यह आभास स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है कि यहाॅ कार्यकर्ता चुनावी जीत व संगठन को मज़बूत करने के ऐजेण्डे के साथ नही बल्ेिक अपने नेता की मज़बूती व अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने की नीयत से काॅग्रेस के कार्यक्रमों में भागीदारी करता है। हाॅलाकि यह कहना गलत होगा कि उत्तराखण्ड के काॅग्रेस संगठन में पहली ही नज़र में दिखाई देने वाली गुटबाज़ी के लिऐ हरीश रावत ही ज़िम्मेदार है या फिर एक नेता के रूप में उनमें इतनी काबीलियत नही है कि वह सबको साथ लेकर चल सके लेकिन हम यह महसूस कर सकते है कि उत्तराखण्ड की राजनीति में हरीश रावत ने जब-जब मज़बूती के साथ कदम रखते हुऐ एक धमक पैदा करने की कोशिश की है तब-तब इस राज्य के काॅग्रेस संगठन व सरकार को गुटबाज़ी के अहसास ने ज्यादा नुकसान पहुॅचाया है। तो क्या यह मान लिया जाये कि राजनीति के इस खेल में दोनो ही हाथों में लड्डू लेकर चलने के आदी काॅग्रेस के तमाम नेताओं को हरीश रावत का अख्खड़ काॅगे्रसीपन रास नही आता या फिर हरीश रावत के राजनैतिक अन्दाज़ व कार्यशैली में ही ऐसी कुछ खामियाॅ है कि मौका मिलते ही उनके अपने व निकटवर्ती उनके विरोध में मोर्चाबन्दी करने में देर नही करते। खैर वजह चाहें जो भी होे लेकिन इस सच का अहसास आसानी के साथ किया जा सकता है कि अपने राजनैतिक जीवन की प्राथमिक पाठशाला में काॅग्रेस के सिपाही की तरह भर्ती होने वाले हरीश रावत ने अपने इस लम्बे राजनैतिक जीवन में कई तरह के उतार-चढ़ाव देखे है और इन राजनैतिक झंझावातो के बीच ऐसे भी अनेक अवसर आये जब उन्हे संगठन का साथ छोड़ देने पर बेहतर भविष्य का प्रस्ताव प्राप्त हुआ किन्तु काॅग्रेस के इस सिपाही ने किसी भी कीमत पर अपनी आस्थाओं को डिगने नही दिया और न ही किसी छोटे लालच को लेकर संगठन से विश्वासघात का आरोप हरीश रावत पर लगा। यहीं हरीश रावत की बड़ी उपलब्धि है और इसी उपलब्धि की नाव पर सवार होकर वह एक साथ दो विधानसभा क्षेत्रो से चुनाव हारने के बावजूद काॅग्रेस संगठन के इस शीर्ष पद तक पहुॅचेे है लेकिन किसी भी शीर्ष तक पहुॅच जाना सफलता की गारन्टी नही है बल्कि इस तथ्य को ज्यादा स्पष्ट तरीके से कहने के लिऐ हम यह भी कह सकते है कि राजनीति के इस शीर्ष पर पहुॅचने के बाद उत्तराखण्ड की जनता की हरीश रावत से अपेक्षाऐं व एक जननेता के रूप में हरीश रावत की जिम्मेदारी अब और भी बढ़ गयी है। इसलिऐं यह देखना अब ज्यादा महत्वपूर्ण होगा कि हरीश रावत अपने इस महत्वपूर्ण ओहदे की जिम्मेदारी को निभाते हुऐ उत्तराखण्ड की काॅग्रेस को गुटबाज़ी से कैसे बचाते है और उनको मिली इस नयी जिम्मेदारी के बाद उत्साह में दिख रहे उनके समर्थक जनपक्षीय मुद्दो पर किस हद तक जनता के साथ कदम से कदम मिलाते हुऐ चल पाते है। हमने देखा कि उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में आयोजित काॅग्रेस की कार्यसमिति बैठक के दौरान काॅगे्रस कार्यकर्ताओ में एक अजब सा उत्साह था और सत्ता में न रहने के बावजूद हरीश रावत के इर्द-गिर्द जुटती दिखाई दे रही उनके समर्थको व पार्टी कार्यकर्ताओ की भीड़ यह अहसास कराने को काफी थी कि हरीश रावत को मिली इस नई ज़िम्मेदारी से राज्य की काॅगे्रस में एक नई जान आयी है लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रदेश काॅग्रेस में दायित्वों के तलबगार अन्य नेता इस महती जिम्मेदारी को आसानी से सम्भाल पायेंगे और एक उत्सव के आयोजन के रूप में उमड़ी कार्यकर्ताओं की इस हालिया भीड़ को मतदान केन्द्रो तक ले जाना पाना व इनसे काॅग्रेस के समर्थन में मतदान करवा पाना कितना आसान होगा। हम यह महसूस करते है कि हरीश रावत ने कभी काफल या आम पार्टी के आयोजन के माध्यम से तो कभी दूरबीन लेकर सत्ता पक्ष के कामकाज की निगरानी करने की घोषणा कर हमेशा खुद को राजनैतिक रूप से सक्रिय रखा है और उनकी इसी सक्रियता का परिणाम है कि राज्य के मुख्यमन्त्री के रूप में बहुत ज्यादा उत्साहवर्धक फैसले न लेने के बावजूद भी आम जनता के बीच उनकी छवि एक जुझारू नेता व इस पहाड़ी राज्य के प्रति समर्पित व्यक्तित्व की रही है लेकिन उनका विरोध करने वाले उनकी ही पार्टी के नेता यह मानते है कि एक राजनैतिक तानाशाह की तरह काम करने वाले हरीश रावत अपने इर्द-गिर्द अथवा संगठन में ऐसे लोगो को पनपने ही नही देना चाहते जों उनके कामकाज के तरीके अथवा राजनैतिक प्रोपेगण्डा के लिऐ एक चुनौती प्रस्तुत करते हो और उनकी इस कोशिश से ही पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। यह माना कि राजनीति कें अनुभवी खिलाड़ी के रूप में हरीश रावत ने जब भी मौका मिला अपनी मनमर्ज़ी करने की पूरी कोशिश की है और अगर उनके इर्द-गिर्द रहने वाले नेताओ पर एक सरसरी नज़र डाली जाये तो हम यह भी महसूस करते है कि उनका तालमेल हमेशा उन्ही नेताओ के साथ बेहतर रहा है जिन्होने मौके का फायदा उठाकर अपनी राजनैतिक हैसियत अथवा कद बढ़ाने की कोशिश नही की है लेकिन इसका तात्पर्य यह भी तो नही है कि उत्तराखण्ड काॅग्रेस में अपना वर्चस्व बनाऐ रखने के लिऐ उनके द्वारा जानबूझकर या फिर किसी रणनीति के तहत पार्टी को चुनावी हार के मुॅह में धकेल दिया गया हो बल्कि इसके ठीक विपरीत लगभग हर छोटे-बड़े चुनाव में उन्होने ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं के साथ सामजस्य बनाकर खुद को साबित करने की कोशिश की है और मज़े की बात यह है कि उनकी इस तरह की हर कोशिश के बाद मिली सफलता के बावजूद जब हाईकमान द्वारा उन्हे अनदेखा करने की कोशिश की गई तो उन्होने बगावती सुरो को कभी भी हवा नही दी। हाॅ इतना जरूर है कि अपना पक्ष हाईकमान तक पहुॅचाने के लिऐ उन्होने समय-समय पर रणनैतिक कौशल व अपने प्रति समर्पित जनप्रतिनिधियों के सहयोग का सहारा लिया और सही समय पर अपनी ताकत का सही इस्तेमाल करने में भी उन्होने कोई चूक नही की लेकिन अपने राजनैतिक फायदे के लिऐ काॅग्रेस को नुकसान पहुॅचाना उन्हें कभी भी कबूल नही हुआ। अब उत्तराखण्ड के बड़े नेता के रूप में काॅगे्रस से जुड़े तमाम छोटे-बड़े नेताओ को साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी के साथ ही साथ आगामी लोकसभा चुनावों में ही नही बल्कि स्थानीय निकायों व पंचायत चुनावो में भी खुद को साबित करने की एक महती ज़िम्मेदारी हरीश रावत के कन्धो पर है और हम यह उम्मीद कर सकते है कि संगठन में मिली राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारी व असम के प्रभार के साथ वह उत्तराखण्ड की राजनीति में हस्तक्षेप करते हुऐ खुद को साबित करने का कोई मौका चूकना नही चाहेंगे और राज्य सरकार द्वारा लिये जाने वाले हर सही अथवा गलत फैसले पर अपनी पैनी नज़र बनाये रखते हुऐ यहाॅ के लोकमानस की भावनाओ के अनुरूप स्थानीय कृषि उत्पादो व तीज़ त्योहारो को एक अलग पहचान देने का मोह उनसे छूटेगा नही।

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