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Friday, April 19, 2024

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यह सन्नाटा सा क्यों है सरकार

खलने लगा है प्रचण्ड बहुमत वाली व व्यापक जनहितकारी सरकार का जनता के हित से जुड़े मुद्दों पर मौन
गैरसैण में आयोजित दो दिवसीय विधानसभा सत्र के दौरान बहुप्रतीक्षारत् स्थानान्तरण विधेयक को ध्वनि मत से पारित कर कानून का अंग बना दिये जाने के बावजूद उत्तराखंड सरकार इसे व्यापक जनचर्चा का विषय नहीं बना सकी क्योंकि इसके समस्त प्रावधानों व लागू किये जाने की तिथियों को लेकर सरकारी पक्ष द्वारा किसी भी तरह का स्पष्टीकरण अथवा जानकारी जनता के बीच रखने का प्रयास ही नहीं किया गया और इस तरह सरकार की उपलब्धियों को जनता के बीच रखे जाने का एक बड़ा शुभ अवसर प्रदेश के मुखिया त्रिवेन्द्र सिंह रावत व उनके सहयोगियों ने खो दिया। हालांकि सरकारी पक्ष के दावों व जनता के बीच चलाये जाने वाले प्रचार-प्रसार कार्यक्रमों पर गौर करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान से लगभग दस माह पूर्व सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुई उत्तराखंड की पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार न सिर्फ तेजी से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रही है बल्कि इस छोटे समयान्तराल में सरकार द्वारा पलायन के मुद्दे पर आयोग का गठन कर राज्य की तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं को भी विचार-विमर्श का विषय बनाया गया है लेकिन अगर जनसामान्य के बीच से आ रही खबरों और माननीय मुख्यमंत्री अथवा अन्य मंत्रियों द्वारा आयोजित किए जाने वाले जनता दरबार के दौरान आयोजन स्थलों पर एकत्र होने वाली जनसंख्या के आधार पर गौर करें तो हम पाते हैं कि सरकार के अस्तित्व में आने के पहले ही वर्ष में जनता अपने प्रतिनिधियों से उम्मीद छोड़ चुकी है। यह ठीक है कि दीर्घकालीन योजनाओं को अमलीजामा पहनाने तथा किसी भी सरकार की उपलब्धियों को जनता के सामने रखने के लिहाज से एक वर्ष या दस माह का समय बहुत ज्यादा नहीं होता और न ही कोई भी सरकार या राजनैतिक दल अपने एक वर्ष के कार्यकाल में लिए गए फैसलों के आधार पर जनमत संग्रह किए जाने की अपेक्षा करता है लेकिन जब कोई सरकार या राजनैतिक दल पूर्ववर्ती सरकार अथवा सत्ता पर काबिज विचारधारा पर कई तरह के आरोप लगाकर व्यापक जनसमर्थन हासिल करती है तो उससे यह उम्मीद तो की जा सकती है कि उसकी कार्यशैली में पदभार ग्रहण करने के पहले ही दिन से पारदर्शिता के साथ ही साथ उन तमाम विषयों व आरोपों का आभाव दिखे जो उसके द्वारा पूर्ववर्ती सरकार पर लगाये गए हैं। यह माना कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत के वर्तमान कार्यकाल में अभी तक सत्ता के शीर्ष पदों को लेकर पहले वाली जूतमपेजार नहीं दिखाई देती और न ही सत्तापक्ष के नेताओं व जनप्रतिनिधियों का अन्तर्विरोध अभी तक परिलक्षित होता है लेकिन इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा सरकार ने अपने इस कार्यकाल में शराब बिक्री व खनन को लेकर पूर्ववर्ती सरकारों पर लगने वाले आरोपों से बचने का कोई प्रयास नहीं किया है बल्कि अगर इन पिछले दस माह में राज्य के विभिन्न हिस्सों में शराब की बिक्री व खनन आदि के मुद्दों के अलावा स्थायी राजधानी से जुड़े मुद्दे पर लगातार सड़कों पर दिख रही जनता के नजरिये से गौर करें तो ऐसा लगता है कि मौजूदा सरकार राज्य की गंभीर समस्याओं से दो-चार होने का साहस ही खो चुकी है। यह ठीक है कि राज्य में राजनैतिक खींचतान व अन्य कारणों के चलते वर्ष भर होने वाले आंदोलनों के संदर्भ में सत्ता पक्ष के बड़े नेताओं व जिम्मेदार पदों पर बैठे नीति निर्धारकों का मानना है कि पूर्ववर्ती सरकारों की अनदेखी व गलत फैसलों के चलते यह प्रदेश एक आंदोलन प्रदेश बनकर रह गया है और राज्य सरकार के खिलाफ बात-बेबात पर आंदोलन की धमकी देने वाले कर्मचारी संगठनों व तथाकथित जनवादी संगठनों के साथ सख्ती से निपटे जाने की जरूरत है लेकिन व्यापक जनहित से जुड़े तमाम मुद्दों पर सरकार का दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है और वह उन तथ्यों का भी खुलासा नहीं करना चाहती जिनके आधार पर सत्तापक्ष के बड़े नेताओं द्वारा अपनी चुनावी सभाओं के दौरान राज्य के विकास को डबल इंजन देने का दावा किया था। यह तथ्य भी किसी से छुपा नहीं है कि पूरी तरह कर्ज पर आधारित हो चुकी राज्य की आंतरिक अर्थव्यवस्था अपने छोटे-बड़े हर खर्च के लिए विभिन्न माध्यमों से जुटाये जा रहे कर्ज पर पूरी तरह निर्भर हो चुकी है जबकि राज्य के मुख्यमंत्री व सरकार का अन्य जिम्मेदार हिस्सा सामान्य व्यवस्थाओं के लिए धन जुटाने व राज्य की आय के संसाधन जुटाने के स्थान पर लोकलुभावन घोषणाओं व पूर्व के किए गए शिलान्यासों या उद्घाटनों का पुनः शुभारंभ करने में जुटा हुआ है। जनसामान्य के विकास एवं राज्य के अंतिम नागरिक तक आवश्यक जनसुविधाएं जुटाने का दावा करने वाली इस तथाकथित जनहितकारी सरकार ने अपने गठन के साथ ही राज्य की विधायक निधि में एक बड़ा इजाफा करते हुए जनसामान्य को एक संदेश देने का प्रयास तो किया था लेकिन सरकार की ढांचागत कमजोरियों व आर्थिक संसाधनों की कमी के चलते इस तरह के प्रयास अभी जमीन पर उतरते नहीं दिखाई दे रहे। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि किसी भी सरकार की लोकप्रियता अथवा व्यापक जनमत के बीच उसके प्रभाव का अंदाजा लगाने के लिए किसी भी छोटे-बड़े चुनाव को ही पैमाना माना जा सकता है और भाजपा द्वारा आहूत प्रदेश स्तरीय कार्य समितियों के दौर व इस प्रकार की बैठकों के माध्यम से अपने कार्यकर्ताओं व मतदाताओं को एकजुट करते हुए एक संदेश देने की कोशिश को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि सरकार हाल ही में होने वाले स्थानीय निकायों व पंचायत के चुनाव के लिए कमर कसकर तैयार हो चुकी है लेकिन संगठनात्मक स्तर पर पूरे जोर-शोर से शुरू हो चुकी इन तैयारियों के बीच जनता से जुड़े मुद्दे गायब दिखते हैं और कोई भी जिम्मेदार पक्ष यह नहीं बताना चाहता कि इस पर्वतीय राज्य में तेजी से बढ़ती दिख रही बेरोजगारों की फौज, लगातार बंद हो रहे कल-कारखानों अथवा जन सामान्य तक न्यूनतम् जनसुविधाएं पहुंचाने के संदर्भ में, सरकार की कार्ययोजना क्या है? यह माना कि इन तमाम प्रश्नों के उत्तर अभी भविष्य की गर्भ में कैद हैं और अगर सरकार अथवा सत्तापक्ष से जुड़े लोग आवश्यक समझेंगे तो वह समय आने पर इन प्रश्नों का सही जवाब लेकर जनता की अदालत में अपनी उपस्थिति भी दर्ज कराएंगे लेकिन यहां एक गंभीर सवाल यह भी उठ खड़ा होता है कि क्या तब तक सरकार यूं ही हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहेगी या फिर व्यापक जनहित से जुड़े विषयों व कानून एवं व्यवस्था से जुड़े सवालों को यूं ही विपक्ष की साजिश कहकर खारिज किया जाता रहेगा। वर्तमान में उत्तराखंड का लगभग हर सामान्य नागरिक यातायात व्यवस्था में स्पष्ट दिख रही खामियों व टूटी हुई सड़कों के कारण सामने आ रही सड़क दुर्घटनाओं से जूझ रहा है। अपराधी बेलगाम होते दिख रहे हैं और सरकारी मशीनरी पूरी तरह सुस्त है। उपरोक्त के अलावा राज्य के सीमावर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही पलायन की समस्या के कारण तेजी से खाली होते जा रहे गांव अन्य तमाम तरह की मुसीबतों को आमंत्रण दे रहे हैं। इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि उत्तराखंड की सीमाओं पर माओवादी विचारधारा वाले चीन के शासकों की सेनाओं द्वारा लगातार हमले व अतिक्रमण के प्रयास किए जा रहे हैं जबकि निकटवर्ती व सीमाओं को छूने वाले राष्ट्र नेपाल में भी वामपंथी राजनैतिक दलों की सत्ता पर कब्जेदारी के बाद राज्य की सीमाएं एक अलग तरह के वैचारिक हमले की संभावनाओं से जूझ रही है। यदि जनसमस्याओं की दृष्टि से गौर किया जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी हर छोटी-बड़ी परेशानी के लिए आंदोलन अथवा धरने-प्रदर्शन का सहारा लेकर सरकारी तंत्र तक अपनी बात पहुंचाने के लिए मजबूर जनता सरकारी हुक्मरानों की अनदेखी के चलते मानसिक, सामाजिक व आर्थिक रूप से नित नयी परेशानियों का सामना करती प्रतीत होती है। हालातों के मद्देनजर अगर राज्य की अर्थव्यवस्था को ढर्रे में लाते हुए मूलभूत समस्याओं के समाधान को लेकर सरकार तत्काल प्रभाव से प्रयासरत् नहीं दिखती है तो माहौल के खराब होने या फिर राज्य के अंदरूनी मामलात में बाह्य दखलंदाजी बढ़ने की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली पूर्ण बहुमत सरकार से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वह वक्त रहते अपनी हठधर्मिता व सुस्त रवैय्ये को त्याग कर व्यापक जनहित से जुड़े विषयों पर ध्यान देगी।

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