वोट-बैंक की राजनीति | Jokhim Samachar Network

Thursday, March 28, 2024

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वोट-बैंक की राजनीति

न्यायालय के आदेशो पर चल रहे अतिक्रमण विरोधी अभियान को रोकने के लिऐ एकजुट होते दिख रहे है राजनेता व जनप्रतिनिधि।

न्यायालय के आदेशो पर उत्तराखंड की राजधानी देहरादून समेत राज्य के तमाम हिस्सो में चल रहे अतिक्रमण विरोधी अभियान को लेकर राजनैतिक लामबन्दी अब तेज हो गयी है और विभिंन मुद्दो पर एक- दूसरे के विरोध में दिखने वाले अलग-अलग दलो के राजनेता व जनप्रतिनिधि शहरों व कस्बाई क्षेत्रो में अतिक्रमण हटाने के नाम पर हो रही तोड़फोड़ के विरोध में एकसाथ खड़े दिखाई दे रहे है। इसे जनप्रतिनिधियों का दबाब कहे या फिर सरकार की कार्यशैली को लेकर उत्तरदायी मानी जाने वाली राजनैतिक सोच का असर लेकिन यह सच है कि अतिक्रमण विरोधी अभियान पर उच्चतम् न्यायालय के माध्यम से रोक लगाने में नाकाम रहा सरकारी तन्त्र अब इन तमाम विषयों को लेकर मन्त्रीमण्डल के माध्यम से अध्यादेश लाने की तैयारी कर रहा है और मुख्यमन्त्री के बयान से यह साफ है कि वह इस अभियान के चलते खतरें की जद में खड़े दिखाई दे रहे शहर के गरीब व बेसहारा वर्ग के प्रति चिन्तित दिखते हुऐ इस प्रक्रिया पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने के पक्ष में है। यह माना कि राजधानी दून समेेत राज्य के अन्य हिस्सो में तेज़ गति से चल रहे अतिक्रमण विरोधी अभियान से इस वक्त हर ओर अफरातफरी का माहौल है तथा इसकी जद में आ रहे लोग अपने व्यवसायिक प्रतिष्ठान बचाने के लिऐ हर स्तर पर दौड़भाग कर रहे है लेकिन अगर तर्कसंगत तरीके से देखा जाये तो अतिक्रमणकारियो का पक्ष किसी भी कीमत पर सही नही कहा जा सकता और न ही किसी अवैध कब्जेदार को इस आधार पर अपना कब्जा बरकार रखने की छूट दी जा सकती है कि वह काफी लम्बे समय से उक्त स्थान पर काबिज है या फिर कब्जे की भूमि पर चल रहा उसका प्रतिष्ठान उसके व उसके परिवार के लिऐ रोज़ी-रोटी का एकमात्र सहारा है। वर्तमान में जब सरकार ‘‘दून‘‘ को स्मार्ट सिटी बनाने, नगरों व व्यवस्थाओं को व्यवस्थित करने या जनसामान्य को सभी न्यूनतम् सुविधाऐं उपलब्ध कराने की बात कर रही है और सड़को पर लगातार बढ़ रहे यातायात के दबाब के कारण सड़क दुघर्टनाओं की बढ़ती संख्या देखकर सड़को के चैड़ीकरण व ओवरबिज्र बनाने की बात की जा रही है तो चन्द गरीब व बेसहारा परिवारों का बहाना लेकर शहरों व कस्बाई क्षेत्रो में अव्यवस्था का जंगलराज कायम करने वाले अनैतिक कब्जेदारों को बक्शने की नीयत से सरकार का स्ंवय ही कोई अध्यादेश लाना एक आत्मघाती कदम हो सकता है लेकिन सरकारी तन्त्र जनप्रतिनिधियों के दबाब के आगे बेबस दिखाई दे रहा है और ऐसा प्रतीत होता है कि विकास के स्थान पर वोट बैंक की राजनीति करने वाले लोग सरकार को अपने हिसाब से चलाना चाहते है। हाॅलाकि यह कहना भी गलत है कि माननीय उच्च न्यायालय के आदेश का अक्षरता पालन किये जाने के बाद पीड़ित वर्ग के समक्ष रोजगार एवं रिहाईश को लेकर कई तरह की गम्भीर समस्याऐं खड़ी हो जायेंगी और प्रशासन द्वारा त्वरित अन्दाज में अंजाम दी जा रही कार्यवाही के बाद आंशिक रूप से रोजगार से जुड़ी समस्याऐं भी बढ़ती प्रतीत होगीं लेकिन अगर व्यापक परिपेक्ष्य में देखा जाय तो सरकार अपने स्तर पर कुछ व्यवस्था करके इन तमाम समस्याओं से आसानी से निपट सकती है और शहर को भी एक व्यवस्थित आकार देकर बेहतर तरीके से बसाया जा सकता है। तो क्या यह माना जाये कि सरकार के समक्ष इच्छाशक्ति का अभाव है या फिर अवैध कब्जों के इस खेल में कुछ न कुछ ऐसा है जो हमारे जनप्रतिनिधियों व विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से जुड़े नेताओ को बैचेन किये हुऐं है और व्यापक जनहित अथवा उत्पीड़न का नाम देकर तोड़फोड़ की कार्यवाही का विरोध कर रहे हमारे नेता यह अच्छी तरह जानते है कि अगर न्यायालय के आदेशो का अनुपालपन करते हुऐ यह तमाम कार्यवाही एक अंजाम तक पहुॅचती है तो न सिर्फ कईयों की कलई खुल जायेगी बल्कि स्वच्छ छवि को बनाए रखते हुऐ आगामी चुनावों के वक्त जनता के बीच जा पाना बड़ा मुश्किल होगा। शायद यहीं वजह है कि लगभग सभी दलो के नेता व जनप्रतिनिधि सरकार पर यह दबाब डालने का प्रयास कर रहे है कि वह किसी भी कीमत पर इस अतिक्रमण विरोधी अभियान को रोके या फिलहाल के लिऐ टाल दे लेकिन न्यायालय के आदेश का विरोध करने के लिऐ उन्हे कोई वैधानिक रास्ता नही मिल पा रहा और सरकार पर दबाब डालते हुऐ कुछ समय के लिऐ इस तोड़फोड़ को स्थगित करने का अध्यादेश लाने के नाम पर राजनेताओं का हर पक्ष अपनी इज्जत बचाने में जुटा हुआ है। अगर राज्य गठन से वर्तमान तक उत्तराखण्ड के शहरी व कस्बाई क्षेत्रो में बढ़ी आबादी के ग्राफ पर एक नज़र डाले तो हम पाते है कि यह जनसंख्या विस्फोट न सिर्फ आश्चर्यजनक कर देने वाला है बल्कि इसी दौर में सबसे ज्यादा राज्य की नदियों,नालों और खालो के तटवर्ती इलाकों में अवैध कब्जे हुऐ है और मज़े की बात यह है कि शहरों अथवा कस्बाई क्षेत्रो के आबादी सन्तुलन को बिगाड़ने वाले इन सभी कब्जो तक सड़क, बिजली या पानी जैसी न्यूनतम् सुविधाऐं पहुॅचाने के साथ ही साथ यहाॅ अस्पताल, स्कूल अथवा अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान बनाने में राजनेताओं व जनप्रतिनिधियों के साथ ही साथ नौकरशाही के भी एक हिस्से का बड़ा योगदान रहा है जिसकी एवज में इन तमाम गरीबो व जरूरतमन्द लोगो ने समय-समय पर इसकी कीमत भी अदा की है। लिहाजा़ यह तय है कि अपना सबकुछ उजड़ जाने की स्थिति में यह तबका जनप्रतिनिधि का चोला ओढ़े दलालो पर अपने द्वारा समय-समय पर खर्च की गयी धनराशि की वापसी को लेकर दबाब बना सकता है और दबाब की इस राजनीति में कई ऐसे किस्से-कहानियाॅ खुलकर जनता के सामने आ सकते है जिनपर चर्चा होना किसी भी राजनैतिक दल अथवा राजनेता के लिऐ नुकसान का सौदा हो सकता है। इन स्थितियों में नेता, जनप्रतिनिधि अथवा विधायक का न्यायालय के आदेश के खिलाफ सड़को पर उतरना तथा इस मामले को यहीं खत्म करने के लिऐ सरकार पर दबाब बनाना एक रणनीति का हिस्सा माना जा सकता है लेकिन सवाल यह है कि संकट की इस घड़ी में सरकार का ऊॅट किस करवट बैठता है और अपने अब तक के कार्यकाल में ढ़ीले-ढ़ाले मुख्यमन्त्री साबित हुऐ त्रिवेन्द्र सिंह रावत इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य में क्या रणनीति बनाते है। अगर मुख्यमन्त्री के पूर्व के बयानो व कार्यक्रमों पर गौर करे तो हम पाते है कि देहरादून में बहने वाली रिस्पना को लेकर एक वृहद अभियान चला इसे सद्नीरा बनाने की दिशा में कई तरह की योजनाऐं शुरू कर चुके मुख्यमन्त्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत अपनी कुर्सी अथवा सत्ता को लेकर बहुत ज्यादा चिन्तित नज़र नही आते क्योंकि उन्हे यह अहसास है कि उनको यह पद और मौका माननीय विधायकों के सहयोग अथवा समर्थन से नही बल्कि हाई कमान की अनुकम्पा से प्राप्त हुआ है तथा सम्पूर्ण राष्ट्र में स्वच्छता अभियान चलाते हुऐ पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देने वाले देश के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी स्मार्ट सिटी एवं स्मार्ट गाॅव जैसी परिकल्पनाओं के पक्षधर है। इन हालातों में दून समेत दून समेत राज्य के अन्य तमाम शहरों अथवा कस्बों को व्यवस्थित रूप प्रदान करने के लिऐ उठाये जाने वाले कड़े कदमों से सरकार को कोई एतराज नही होना चाहिऐं उसपर भी सरकार के समक्ष अपनी सफाई देने के लिऐ यह मौका है कि वह किसी भी मंच से यह कह सकती है कि न्यायालय के आदेशों के समक्ष वह बेबस है लेकिन आगामी स्थानीय निकायों व लोकसभा चुनावों को देखते हुऐ वह कुछ घबड़ायी हुई है और सरकार की हड़बड़ाहट यह इशारा कर रही है कि वह इस समस्त प्रक्रिया को कुछ दिनो के लिए टालना चाहती है किन्तु सवाल यह है कि क्या सरकारी तन्त्र इतना सक्षम है कि वह इस प्रक्रिया पर एक बार लगी लगाम के बाद फिर दोबारा ऐसा माहौल बना सकता है कि स्थानीय जनता खुद-व -खुद अपने निमार्णो को गलत मानते हुऐ अहिंसक रूप से अथवा बहुत ही कम विरोध के साथ प्रशासन को अपना फैसला लागू करने की छूट दे। मौजूदा हालातो व राजनैतिक व्यवस्थाओं को देखते हुऐ यह सबकुछ इतना आसान नही लगता। तो क्या यह माना जाये कि राजनैतिक संयोग से मुख्यमन्त्री का पद हासिल करने में कामयाब रहे त्रिवेन्द्र सिंह रावत राजधानी देहरादून समेत अन्य कई शहरों की फिंजा सम्भालने का यह मौका खो देंगे और न्यायालय के आदेशो से शहरो व कस्बाई क्षेत्रो को ‘‘स्मार्ट‘‘ बनाने की दिशा में मिला यह अवसर एक बार फिर राजनीति की भेंट चढ़कर रह जायेगा।

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