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Thursday, March 28, 2024

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विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह

यह माना कि दिल्ली प्रदेश की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों की बर्खास्तगी न्यायालय के इशारे पर टिकी है लेकिन इस फैसले के बाद केजरीवाल सरकार को कोई बड़ा खतरा नहीं दिखता।
एक करिश्माई अंदाज में भारतीय राजनीति में अवतरित हुई आम आदमी पार्टी अपने गठन के पांच सालों के बाद ही कई तरह के सवालों के घेरों में है और हाल ही के दिनों में चुनाव आयोग द्वारा अयोग्य घोषित किये गए बीस विधायकों के मामले में राष्ट्रपति की अनुशंसा मिलने के बाद यह तय हो गया है कि देर-सबेर इस राजनैतिक दल को जनता की अदालत में जाकर अपना एक और लिटमस टेस्ट पास करना पड़ेगा। हालांकि इस सारे मामले में जो कुछ भी हुआ वह इतनी जल्दबाजी में हुआ कि केन्द्रीय सत्ता पर काबिज राजनैतिक विचारधारा के विरोधी इसे एक राजनैतिक षड्यंत्र की संज्ञा देने में देर नहीं कर रहे और तमाम अन्य राज्यों का उदाहरण देकर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि केजरी ने भी वही सब कुछ किया जो मौजूदा राजनैतिक माहौल में चल रहा था लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि राजनैतिक बदलाव के नारे के साथ जनान्दोलन से चुनावी राजनीति में कूदे अरविंद केजवरीवाल से जनसामान्य के एक बड़े तबके को कुछ आशाएं थीं और यह महसूस किया जा रहा था कि अगर अपेक्षाकृत युवा व राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत-प्रोत पढ़े-लिखे नौजवानों का एक बड़ा तबका राजनीति में आता है तो उनकी अनुभवहीनता के बावजूद यह उम्मीद की जा सकती है कि यह वर्ग कुछ कर दिखाने में सक्षम होगा। अफ़सोसजनक है कि सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद केजरीवाल भी ठीक उसी दिशा की ओर चल पड़े जहां पूर्ववर्ती सरकारें व राजनैतिक दल जा रहे थे या फिर अपने विधायकों की टोली को संतुष्ट करने के लिए उन्हें संसदीय सचिव जैसे कुछ पदों की घोषणा करनी पड़ी लेकिन सवाल उठने पर उन्होंने अपनी इस गलती को स्वीकार करना या फिर जनता के बीच आकर इस मुद्दे पर सफाई देना जरूरी नही समझा और न ही वह अपने समर्थकों को यह समझा पाने में कामयाब रहे कि अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के स्थान पर कुछ पूंजीपति मानसिकता के व्यवसायियों को राज्यसभा के लिए नामित करने के पीछे उनकी क्या रणनीति अथवा मजबूरी रही। यह ठीक है कि अभी यह सारा मामला न्यायालय के विचाराधीन है और अगर न्यायालय भी इस मामले में केजरी सरकार के खिलाफ फैसला देता है तो उनके पास उच्च अदालतों या फिर लोकतंत्र की सर्वोच्च अदालत मानी जाने वाली जनता के बीच जाने का विकल्प है लेकिन सवाल यह है कि केजरी सरकार की ऐसा क्या मजबूरी थी कि उन्हें इस तरह का निर्णय लेने के लिए बाध्य होना पड़ा और व्यापक जनमत का जो हिस्सा राजनीति में अमूलचूल परिर्वतन की दृष्टि से राष्ट्रीय राजनीति में अवतरित इस नयी विचारधारा को निहार रहा था उसे निराशा का सामना करना पड़ा। हमने देखा कि दिल्ली प्रदेश की सत्ता को दूसरी बार हासिल करने के साथ ही केजरीवाल एक बड़े राजनैतिक विकल्प के रूप में सामने आए थे और मीडिया के एक बड़े हिस्से ने आम आदमी पार्टी को प्रचार तंत्र में देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व अन्य प्रमुख विपक्षी दलों के समान ही स्थान दिया था लेकिन अफसोसजनक है कि केजरी व उनका संगठन अपने इस चुनावी प्रदर्शन को संभाल कर नहीं रखा पाया और बहुत ही जल्द आम आदमी पार्टी के विधायकों व कुछ संगठनात्मक हिस्सों से बगावत की खबरें आने लगी। हालांकि देश की जनता ने इस तमाम जद्दोजहद को गंभीरता से नहीं लिया और इस बीच दिल्ली की सरकार द्वारा आम आदमी के हितों में लिए गए फैसलों को सराहा भी गया लेकिन इसी बीच आम आदमी पार्टी के कुमार विश्वास बगावती तेवरों के साथ सामने आए और दिल्ली से निकलकर अन्य राज्यों के चुनावी दंगल में भागीदारी करने के लिए अपने पर तोल रही आम आदमी पार्टी को बढ़े हुए कदम वापस खींचने को मजबूर होना पड़ा। यह माना कि देश की राजधानी दिल्ली में गठित इस सरकार को पूरी तरह राजनैतिक अधिकार प्राप्त नहीं है और केन्द्र की सत्ता पर काबिज भाजपा अपनी सहमति से नियुक्त दिल्ली के उपराज्यपाल के माध्यम से केजरी सरकार के कामकाज में बेवजह का दखल करती रहती है लेकिन सवाल यह है कि क्या दिल्ली की सत्ता सम्भालने से पहले केजरी व उनके साथियों को इस तथ्य का अहसास नहीं था या फिर केजरीवाल इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि केन्द्र की सरकार उनके उठाये गए किसी भी गलत कदम पर तुरत-फुरत में सक्रिय होकर सरकार को घेरने का प्रयास करेगी और देश की जनता को एक बड़े बदलाव का नारा देने वाली आम आदमी पार्टी खुद-ब-खुद कई सवालों से घिरी खड़ी होगी। अभी भी केजरीवाल के पास वक्त है और वह अगर चाहे तो अपनी कई गलतियों से सबक लेते हुए आम आदमी पार्टी को एक राजनैतिक विकल्प के रूप में खड़ा कर सकते हैं लेकिन सवाल यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के तहत तेजी से बदल रहे चुनावी राजनीति के मायनों के बीच कोई भी राजनैतिक दल वह चेहरे कहां से तलाश करे जो निस्वार्थ भाव से आगे आये और अपने निजी हितों को दरकिनार कर आम आदमी के हितों की रक्षा के लिए काम करे। यह भी एक बड़ा सवाल है कि अपनी जरूरतों व राजनैतिक परिस्थितियों के हिसाब से तेजी से बदलने वाली राजनैतिक निष्ठा के इस दौर में कोई भी मतदाता यह भरोसा कैसे करे कि वह जिस दल या विचारधारा से प्रभावित होकर किसी प्रत्याशी के समर्थन में मतदान कर रहा है, वह नेता चुनाव जीतने के बाद लम्बे समय तक उसी राजनैतिक दल का सदस्य बना रहेगा। जहां तक दिल्ली की राजनीति के चुनावी गणित का सवाल है तो हाल-फिलहाल बीस विधायकों का मामला न्यायालय में विचाराधीन है और अगर इन विधायकों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो भी जाती है तो अंकगणितीय हिसाब से दिल्ली सरकार को कोई खतरा प्रतीत नहीं होता लेकिन अगर सोशल मीडिया में चल रही खबरों को आधार बनाया जाये तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो दिल्ली की इस जनहितकारी सरकार के तख्त पलट को लेकर तैयारी पूरी हो गयी दिखती है और लाभ के पद वाले मामले को लेकर चुनाव आयोग द्वारा लिए गए फैसले पर राष्ट्रपति की मोहर लगने के बाद केजरीवाल से इस्तीफा मांगने वाले नेताओं के बयान देखकर यह अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है कि आम आदमी पार्टी के विधायक दल में अभी एक बड़ा विद्रोह होना तय है। यह तो वक्त ही बताएगा कि अगर दिल्ली के इन बीस विधायकों की सदस्यता रद्द होती है और स्थानीय जनता पर एक उपचुनाव थोपा जाता है तो फिर दिल्ली के राजनैतिक समीकरण क्या होंगे लेकिन हालात यह इशारा तो कर ही रहे हैं कि पहली बार केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हुई भाजपा येन-केन-प्रकारेण सारे देश में भगवा ध्वज फहराने की जुगत में जुटी हुई है और इसके लिए उसे आन्दोलन की कोख से निकली आम आदमी पार्टी की भू्रण हत्या से भी कोई ऐतराज नहीं है। आश्चर्य का विषय है कि कई कांग्रेस शासित राज्यों में तख्त पलट का दंश झेल चुकी कांग्रेस भी इस मुद्दे पर भाजपा का मूक समर्थन करती प्रतीत होती है और ऐसा लगता है कि अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में कांग्रेस आम आदमी पार्टी को भाजपा से बड़ा खतरा मानती है। शायद यही वजह है कि देश के किसी भी हिस्से में उन राज्यों की सरकार चर्चा का विषय नहीं है जहां जनता के बीच से चुने गए विधायकों की एक बड़ी तादाद संसदीय सचिव अथवा ऐसे ही तमाम लाभ के पद समझे जाने वाले ओहदों पर काम कर रही है। वैसे भी अगर देखा जाय तो कांग्रेस और भाजपा की सरकारों की कार्यशैली में फर्क किया जाना सम्भव नहीं है और यदि तुष्टीकरण को आधार बनाकर बात करें तो यह साफ दिखाई देता है कि कांग्रेस ने अगर मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति की है तो भाजपा उग्र हिन्दुत्व को अपना आधार बनाकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंची है। मजे की बात यह है कि भाजपा ने सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद उन्हीं विषयों व विधेयकों को अमलीजामा पहनाने की कोशिश की है जिनका वह पहले विपक्ष के रूप में विरोध करती रही है। इन हालातों में यह आसानी से समझा जा सकता है कि सत्ता की राजनीति के खेल में भाजपा व कांग्रेस एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह है और इन दोनों ही राजनैतिक दलों का एकमात्र उद्देश्य पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अंगीकार करते हुए जनवादी विचारधारा का गला घोटना मात्र है। इस परिपेक्ष्य में अपने प्राथमिक प्रयासों के तहत इन दोनों ही राजनैतिक दलों ने वामपंथी विचारधारा से ओत-प्रोत तथा व्यापक जनहित की बात करने वाले तमाम राजनैतिक संगठनों को अपना सहभागी बनाकर गुमनामी के अंधेरों में धकेला है और अब राजनीति में नये विकल्प देने की बात करने वाली आम आदमी पार्टी व आन्दोलनकारी विचारधारा उनके निशाने पर है। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्ता के प्रतिष्ठानों पर राजनैतिक कब्जेदारी का यह अन्दाज भारतीय राजनीति को किस ओर ले जाता है।

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