उपलब्धियों का एक साल | Jokhim Samachar Network

Wednesday, April 24, 2024

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उपलब्धियों का एक साल

भव्य आयोजन व लम्बे चैड़े तामझाम के बावजूद जनपक्ष के बीच एक संदेष छोड़ने में नाकामयाब रही उत्तराखंड की सरकार
उत्तराखंड की नवगठित सरकार के कामकाज का एक साल पूरा होने के अवसर पर आयोजित जश्न के दौरान प्रदेश के मुख्यमंत्री उत्साह से लवलेज दिखे और उनके सम्बोधन या फिर अपनी भावी योजनाओं के बखान के दौरान दूर-दूर तक यह अहसास नहीं हुआ कि प्रदेश में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार के भीतर किसी तरह की खींचतान है या फिर उन पर चुनावों के दौरान भाजपा द्वारा संगठनात्मक स्तर पर की गयी घोषणाओं को पूरा करने का कोई दबाव है। हालांकि मुख्यमंत्री समेत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के प्रति जिम्मेदार मंत्रियों ने इस आयोजन के माध्यम से अपना रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत करने वाले अंदाज में अपनी व अपने विभाग की उपलब्धियों का बखान किया तथा चुनावी तैयारी वाले अंदाज में भविष्य की घोषणाओं व योजनाओं को भी इस मंच के माध्यम से जनता के बीच प्रस्तुत किया गया लेकिन जनता इस पूरे कार्यक्रम के प्रति उदासीन दिखाई दी और सरकारी तंत्र द्वारा जारी करोड़ों के विज्ञापन व राजधानी के परेड ग्राउंड में पूरे तामझाम के साथ किए गए आयोजन के बावजूद यह सब कुछ जनचर्चाओं का विषय नहीं बन सका। यह ठीक है कि अपने गठन के बाद से ही अस्थिरता के दौर से दो-चार होती रही सरकारी व्यवस्था के लिए यह सबसे बड़ी उपलब्धि है कि इस पिछले एक वर्ष के दौरान वर्तमान मुख्यमंत्री ने विरोध के सुरों को मजबूती से कुचला है और राजनैतिक रूप से अनुभवहीन होने के बावजूद त्रिवेन्द्र सिंह रावत अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने या सबक सिखाने में कामयाब रहे हैं लेकिन सरकार चाहते हुए भी इस उपलब्धि को प्रचारित नहीं कर सकती और न ही जनता को यह समझाया जा सकता है कि पिछली सरकारों के एक ही ढर्रे पर काम करने के चलते राजकोष में स्पष्ट दिख रहे आर्थिक तंगी के माहौल में योजनाओं का नाम बदलकर उन्हें एक बार फिर अपनी घोषणाओं में शामिल करने या फिर जनता को भरमाने के लिए लकीर के फकीर वाले अंदाज में उद्घाटनों व शिलान्यासों का सिलसिला जारी रखने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है। जनता कुछ नया चाहती है और समूचा उत्तराखंड राज्य की स्थायी राजधानी समेत अन्य तमाम मुद्दों पर अंदर ही अंदर सुलग रहा है तथा राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत चुनावों के दौरान मिली शर्मनाक पराजय के बावजूद मैदान में डटे रहकर सरकार को आईना दिखाने व राज्य के पहाड़ी परिवेश को लागू किए जाने के संदर्भ में दबाव बनाने के लिए विभिन्न आयोजनों के जरिये प्रयासरत् दिख रहे हैं लेकिन सरकार के पास अपना कोई विजन नहीं है और न ही मुख्यमंत्री अपने मंत्रिमंडल के वरीष्ठ सहयोगियों के अनुभव अथवा सलाह पर अमल करने के मूड में ही दिख रहे हैं। नतीजतन कुछ चाटुकार किस्म के सलाहकारों की मदद से चलता मुख्यमंत्री कार्यालय पूरी तरह नौकरशाहों के कब्जे में है और राज्य के संसाधनों व बजट पर अपनी गिद्धदृष्टि रखने वाली सरकारी कर्मकारों की फौज का एक हिस्सा अपनी सहूलियतों व फायदे को ध्यान में रखते हुए व्यापक जनहित के नाम पर पुरानी योजनाओं व घोषणाओं को नये मुलम्मे के साथ जनता के बीच ला रहा है जिस पर वाहवाही करने के लिए सरकार की गोद में बैठे मीडिया के एक हिस्से को विज्ञापनरूपी उत्कोचों से नवाजकर विभिन्न मोर्चों पर तैनात भी किया गया है लेकिन जनता इन तमाम विषयों पर तवज्जो देने के मूड में नहीं है क्योंकि उसे यह अंदाजा है कि मौजूदा हालातों में वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती और सड़कों पर चल रहे आंदोलनों से सरकार के कान में जूं तक रेंगने वाली नहीं है क्योंकि वह पूर्ण बहुमत के दम्भ में है। यह माना कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में आम आदमी की राय अथवा समर्थन की बड़ी कीमत होती है तथा सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के संयुक्त प्रयासों से चलने वाला जनतंत्र का यह ढांचा सत्ता परिवर्तन के लिए चुनावों पर ही निर्भर नहीं होता लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हालात तेजी से बदले हैं और अक्सर यह देखने में आया है कि सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद लोकतंत्र के यह तथाकथित पहरूए अपना अंदाजे बयां बदलने लगे हैं जिसके चलते आम आदमी भावावेश अथवा रस्म अदायगी वाले अंदाज में अपना मतदान करने के बाद सरकारों की कार्यशैली को लेकर किसी प्रकार की चर्चा करने से विमुख दिख रहा है और सरकार द्वारा व्यापक जनहित में चलायी जा रही योजनाओं को अपनी उपलब्धि के रूप में जनता के बीच पहुंचाने के लिए किए जाने वाले तमाम आयोजन औचित्यहीन होते दिख रहे हैं। उत्तराखंड की मौजूदा सरकार ने अपने इस एक वर्ष के कार्यकाल के दौरान क्या-क्या उपलब्धियां हासिल की या फिर सरकार अपने चुनावी घोषणा पत्र और अपनी पार्टी के वरीष्ठ नेताओं द्वारा किए गए वादों के अनुरूप उनके अनुपालन की दिशा में कितना आगे बढ़ पायी, यह जानने की जिज्ञासा राज्य के लगभग हर नागरिक को है लेकिन इन पिछले सत्रह वर्षों में वह घोषणाओं व वादों के जमघट में कुछ इस तरह उलझा है कि उसका आत्मविश्वास टूटता दिख रहा है और यहां पर यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि राजनैतिक दलों में अंदरूनी तौर पर चलने वाली उठापटक तथा सत्ता के शीर्ष पदों को हासिल करने के लिए की जाने वाली खींचतान के बीच यह तय कर पाना अब मुश्किल होता जा रहा है कि उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में सरकार के गठन अथवा चुनावों का असल उद्देश्य क्या है। हमने देखा कि सत्ता के शीर्ष को हासिल करने के बाद त्रिवेन्द्र सिंह रावत भी उन्हीं तमाम उलझनों से दो-चार होते दिखाई दिए जो पूर्ववर्ती सरकारों की नाकामी की असल वजह रही है तथा सुशासन व ईमानदार सरकार देने का दावा करने के बावजूद भाजपा के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि आर्थिक संसाधनों की कमी से जूझते इस राज्य में महानुभावों की हवाई यात्राओं से लेकर चाय-पानी तक के खर्चों में हुई बढ़ोत्तरी के लिए कौन जिम्मेदार है। जहां तक सरकार की सफलता और उपलब्धियों का सवाल है तो किसानों की आत्महत्या और भुखमरी के चलते हुई मौत के अलावा न्याय की तलाश में जनता दरबार में हाजिरी लगाने वाले युवा व्यवसायी द्वारा हताशा व निराशा के माहौल में खुद ही मौत को गले लगाने के बाद अपने वादे से मुकरती सरकार अपनी सफलता व कार्यशैली के किस्से खुद ही बयान करती है लेकिन इस सबके बावजूद सत्तापक्ष के समर्थक अपनी उपलब्धियों पर इतरा सकते हैं क्योंकि इस एक साल के भीतर भाजपा ने न सिर्फ चुनावी चंदे के रूप में पच्चीस करोड़ से भी ज्यादा की रकम जमा की है बल्कि सरकार के मंत्रियों ने अपनी राष्ट्रवादिता को प्रदर्शित करने के लिए झंडे की ऊंचाई बढ़ाई जाने समेत विश्वविद्यालयों में मानद उपाधियों के वितरण के लिए नये डेªस कोड के चयन जैसे अनेकानेक फैसले लिए हैं। यह माना कि किसी भी राज्य अथवा राष्ट्र की व्यवस्था को रातोंरात नहीं बदला जा सकता और उत्तराखंड जैसे दुर्गम परिस्थितियों वाले राज्य में तो योजनाएं बनाना व उन्हें अमलीजामा पहनाना भी आसान नहीं है लेकिन यहां पर यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि राज्य की स्थानीय जनता को इस डबल इंजन वाली पूर्ण बहुमत सरकार से बहुत उम्मीदें थी और यह माना जा रहा था कि इस बार सत्तावन विधायकों के समर्थन से बनने वाली सरकार न सिर्फ स्थिर होगी बल्कि चुनावी घोषणाओं और नारों के अनुरूप राज्य के विकास को चार चांद लगाने के लिए नयी योजनाओं को अमलीजामा पहनाते हुए नया इतिहास लिखा जाएगा। अफसोसजनक है कि अपनी घोषणाओं और वादों के अनुरूप मौजूदा सरकार आम आदमी की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने में असफल रही तथा सरकार के मुखिया समेत तमाम मंत्रियों व अन्य जिम्मेदार जनप्रतिनिधियों ने आम आदमी की समस्याओं पर ध्यान देने अथवा व्यापक जनहितकारी योजनाएं बनाने के स्थान पर खाली हवा-हवाई बयानबाजी करने या फिर सहारनपुर और बिजनौर के कुछ हिस्सों को उत्तराखंड से जोड़े जाने के जैसे विवादित मुद्दे उठाकर सुर्खियों में बने रहना ज्यादा आसान समझा तथा सरकार गठन के एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर एक गंभीर बहस और धरातल पर काम करने की जरूरत को नकारते हुए अपने मुंहमियां मिट्ठू बनने वाले अंदाज में सरकार के आका खुद ही अपनी तारीफों के पुल बांधते नजर आये।

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