मीडिया के प्रवेश पर अघोषित रोक | Jokhim Samachar Network

Friday, March 29, 2024

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मीडिया के प्रवेश पर अघोषित रोक

आखिर शासन तंत्र में ऐसा क्या चल रहा है जिसके चलते खोजी पत्रकारों से घबरायी यह सरकार चाहती है कि सचिवालय अथवा सरकार से सम्बंधित अन्य संस्थानों में कम हो पत्रकारों की आवाजाही।
उत्तराखंड की पूर्ण बहुमत वाली सरकार ने पत्रकारों व अन्य बाहरी व्यक्तियों का सचिवालय में अवांछित प्रवेश रोकने के लिए कुछ नये नियम-कानूनों का हवाला देकर मनमानी का प्रयास किया है और जनपक्ष की ओर से इस व्यवस्था पर उठने वाले सवालों को गोपनीयता का नाम दिया जा रहा है लेकिन सरकार यह बताने में असमर्थ है कि व्यापक जनहित के नजरिये से शुरू की जाने वाली योजनाओं अथवा जनहित को ध्यान में रखकर बनने वाली नीतियों में ऐसा क्या है कि उन्हें लागू करने से पूर्व सरकार इन तमाम विषयों को व्यापक जनचर्चा का विषय बनाने से बचना चाहती है या फिर यह भी हो सकता है कि सरकारी तंत्र कुछ ऐसे फैसले लेने की फिराक में है जिन्हें लागू किए जाने से पूर्व उन पर चर्चा किया जाना सरकार के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि व्यापक जनमत के नाम पर जनता द्वारा चुनी जाने वाली सरकारें समय-समय पर अपनी मजबूरियों व सामयिक आवश्यकता का हवाला देकर ऐसे फैसले लेती रही है जो दूरगामी दृष्टिकोण से व्यापक जनहित में नहीं कहे जा सकते या फिर क्षेत्रीय प्राथमिकताओं के आधार पर जिनके विरोध में स्थानीय जनता का एकजुट होना लाजमी माना जा सकता है लेकिन सरकारी तंत्र इन फैसलों को येन-केन-प्रकारेण लागू करने के लिए कानून का भय दिखाकर आम आदमी को इन फैसलों के विरोध में एकजुट होने से रोकने का प्रयास करता है और अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि जनता के बीच समय से सूचना न पहुंचने के अथवा सही सूचना न पहुंचने के कारण अधिकांश जनान्दोलन जनभावनाओं के सरकार के विरोध में होने के बावजूद भी असफल हो जाते हैं या फिर आंदोलनकारी ताकतों को कानून का भय दिखाकर डंडे की ताकत से तितर-बितर कर दिया जाता है। यह ठीक है कि बदले हुए परिदृश्य में एवं विभिन्न आर्थिक कारणों से मीडिया का एक हिस्सा भी सरकारी भोंपू की तरह काम करते हुए सरकार की अपेक्षाओं के अनुरूप सरकारी पक्ष को स्पष्ट करने वाले समाचारों को ही जनता तक पहुंचाने का प्रयास करने में जुटा है और मीडिया के क्षेत्र में तेजी से बढ़े पूंजीपति समूहों के हस्तक्षेप के बाद व्यापक जनहित को ध्यान में रखकर की जाने वाली पत्रकारिता का आभाव स्पष्ट नजर आता है लेकिन इस सबके बावजूद आज भी श्रमजीवी पत्रकारों व छोटे समाचार पत्रों के ऐसे तमाम समूह अपने व्यापक उद्देश्यों के साथ खोजी पत्रकारिता कर रहे हैं जिनके सरोकार आम आदमी से जुड़े हुए हैं और सरकारी तंत्र को असल खतरा इन्हीं छोटे समूहों व पत्रकारों से है क्योंकि प्रसार संख्या सीमित होने के बावजूद इन समाचार पत्रों व इनसे जुड़े सम्पादक रूपी पत्रकारों की स्थानीय जनता के बीच पैठ इतनी ज्यादा मजबूत है कि वह जागरूक सामाजिक संगठनों व अपने अधिकारों के प्रति सचेत जनता को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं और अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि इनके द्वारा उठाए गए मुद्दे व्यापक जनचर्चाओं का विषय ही नहीं बनते वरन् तथाकथित रूप से बिकाऊ व पूंजीपति वर्ग के कब्जे वाले मीडिया के हिस्से को भी इस वर्ग द्वारा व्यापक जनहित को ध्यान में रखकर शुरू की गयी चर्चाओं में शामिल होना पड़ता है। सरकार को असल खतरा इन्हीं छोटे व मझोले समाचार पत्रों से नजर आता है और सरकार येन-केन-प्रकारेण इनके शासन तंत्र में प्रवेश व खबरों के अपने तरीके से पोस्टमार्टम पर रोक लगाना चाहती है। हालांकि देश की संवैधानिक सत्ता पर काबिज मोदी सरकार ने आरएनआई व राष्ट्रीय स्तर की विज्ञापनदाता एजेंसी डीएवीपी के नियमों में फेरबदल कर इन तमाम छोटे व मझोले समाचार पत्रों के प्रकाशन को रोकने के लिए प्रयास शुरू कर दिए हैं और इन समाचार पत्रों के मालिकों को सरकार की हां में हां मिलाने या फिर अपने प्रकाशन बंद कर देने के लिए कई स्तरों पर धमकाने का सिलसिला जारी है लेकिन आगामी लोकसभा चुनावों को देखते हुए सरकार अभी इन पर कड़ी कार्यवाही करने के मूड में नजर नहीं आती और न ही मीडिया के इस हिस्से के लिए दमनकारी कानूनों को सख्ती से लागू करने के प्रयास ही किये जा रहे हैं। लिहाजा विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अपने-अपने स्तर पर इन तमाम छोटे व लघु समाचारों की धार कुन्द करने के प्रयास शुरू कर दिए गए हैं और इसके प्रथम चरण के रूप में इन्हें मिलने वाले तमाम सरकारी अथवा अर्धसरकारी विभागों के विज्ञापनों पर अघोषित रोक या कटौती लागू करने के बाद सरकार इनकी लोकप्रियता के स्तर को प्रभावित करने के लिए इनको मिलने वाले खोजी समाचारों पर अघोषित रोक लगाना चाहती है जिसके लिए पत्रकारों के एक बड़े वर्ग को शासन तंत्र में होने वाले सही-गलत काम पर ताकाझांकी करने से रोका जाना जरूरी है। यह माना कि इस तरह की खोजी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों में एक समूह ऐसा भी है जो विभिन्न स्रोतों से प्राप्त खबरों के आधार पर सरकारी अधिकारियों व अन्य जिम्मेदार लोगों को ब्लैकमेल कर अवैध उगाही में संलग्न हैं या फिर जिसके द्वारा शासन वर्ग के कामकाज में अवैध हस्तक्षेप कर अपने फायदे या धंधेबाजी की राह तलाशी जाती है लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस किस्म के धंधेबाजों या फिर ब्लैकमेलर कहे जा सकने वाले पत्रकारों से उसी वर्ग का आतंकित होना स्वाभाविक है जो जानबूझकर गलत परिपाटी अथवा कार्यशैली को बढ़ावा दे रहे हैं। सरकारी स्तर पर जारी पत्रकारों पर अघोषित रोक के इस शासनादेश से ऐसा प्रतीत होता है कि या तो सरकार जाने-अनजाने में शासन तंत्र में बैठकर गलत काम करने वालों को संरक्षण देना चाहती है या फिर सत्ता के शीर्ष पर काबिज आकाओं के मन में जरूर कुछ ऐसा है जिसके अंजाम तक पहुंचने से पहले सरकार जनचर्चाओं का विषय नहीं बनने देना चाहती। जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की दृष्टि से गौर करें तो यह दोनों ही स्थितियां भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए ठीक नहीं हैं और इनसे सत्ता पक्ष की निरंकुशता एवं हिटलरशाही की बू आती है लेकिन पूर्ण बहुमत के मद में चूर उत्तराख्ंाड की तथाकथित जनहितकारी सरकार लगातार ऐसे ही फैसले ले रही है और पत्रकारों के सचिवालय प्रवेश पर सरकार द्वारा लगायी गयी इस अघोषित रोक से सरकार की संवेदनहीनता का भी पता चलता है। यह ठीक है कि केन्द्र और उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज भाजपा का संघ के कार्यकर्ताओं के माध्यम से आम जनता के बीच एक बड़ा नेटवर्क है और अपने इस नेटवर्क के जरिए मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के बीच अपनी प्रभावी पकड़ को लेकर भाजपा के तमाम नेताओं में दम्भ की स्थिति है लेकिन सामाजिक सरोकारों से जुड़ी पत्रकारिता को नकार पाना किसी भी सरकार के लिए इतना आसान नहीं है और न ही कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था यह दावा कर सकती है कि वह आम जनता और सरकार के बीच सेतु का काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों पर किसी भी तरह की पाबंदी या रोक लगाकर व्यापक जनहित की दिशा में आगे बढ़ सकती है। जहां तक सरकार द्वारा लिए जाने वाले फैसलों अथवा व्यापक जनहित में चलायी जाने वाली योजनाओं के मंत्रीमंडल में चर्चा का विषय बनने से पहले ही मीडिया के माध्यम से जनता के बीच पहुंचकर बहस का मुद्दा बनने का सवाल है तो इसे किसी भी आधार पर गलत साबित नहीं किया जा सकता लेकिन अगर सरकार इस तरह की चर्चाओं को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती तो इसका मतलब साफ है कि सरकार चलाने वाले नेताओं या अधिकारियों की नीयत में कोई खोट है। यह माना कि पिछले कुछ वर्षों में मीडिया की विश्वसनीयता में गिरावट आयी है और प्रचार-प्रसार के इस बड़े जरिए के माध्यम से सामने आने वाली कई अपुष्ट व तथ्यों से परे खबरों को लेकर सरकार को असहजता का सामना भी करना पड़ा है लेकिन इस सबके बावजूद इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि वर्तमान परिस्थितियों में मीडिया के कमजोर कंधों पर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की रक्षा को लेकर महती जिम्मेदारी है और पूर्ण बहुमत के नाम पर तानाशाही करने की इच्छा रखने वाले तमाम सत्तापक्ष के नेता यह नहीं चाहते कि अपने पेशे के प्रति समर्पित व जुझारू पत्रकारों का वर्ग इस जिम्मेदारी व जवाबदेही पर खरा उतरे। शायद यही वजह है कि उत्तराखंड सरकार ने अपने एक हालिया निर्णय के माध्यम से पत्रकारों के सचिवालय प्रवेश पर अघोषित रोक की ओर कदम बढ़ाने शुरू कर दिए हैं और अपने इस फैसले के माध्यम से सरकार यह भी चाहती है कि सूचना महानिदेशक अथवा अन्य माध्यमों से सरकारी तंत्र जो भी खबर समाचार पत्रों या मीडिया के अन्य हिस्से तक पहुंचाये, सभी पत्रकार सरकारी भोपू की तरह उन्हीं खबरों के प्रचार-प्रसार तक सीमित रहें।

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