राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के जंजाल में | Jokhim Samachar Network

Friday, March 29, 2024

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राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के जंजाल में

आम आदमी की दैनिक जरूरतों पर जातिगत व धार्मिक मुद्दे हावी
आरक्षण एवं अन्य राजनैतिक कारणों से भारतीय जनमानस के बीच स्पष्ट दिखने वाला सामाजिक विभेद कोई नयी बात नहीं है और न ही यह कोई पहला अवसर है जब सरकारी तंत्र अथवा न्यायपालिका के किसी फैसले के खिलाफ समाज के कई समूह आमने-सामने खड़े हैं लेकिन देश की आजादी के बाद यह पहला अवसर जान पड़ता है जब भारत की तमाम तथाकथित रूप से दलित जातियों ने सामूहिक रूप से न्यायालय के खिलाफ भारत बंद का आह्वान किया है और इस आह्वान के बाद यह भी स्पष्ट हो जाता है कि खुद को पिछड़ा, उत्पीड़ित व विकास की दौड़ में छूटा हुआ घोषित करने वाला देश की आबादी का यह तबका अब धीरे-धीरे कर संगठित होता हुआ अपने अधिकारों व जरूरतों के प्रति सजग हो रहा है। इन हालातों में अगर कोई यह कहे कि देश की आजादी के साथ ही लागू की गयी आरक्षण व्यवस्था या फिर दलितों, पिछड़ों व अन्य निचली जातियों के लिए अलग से कानून बनाये जाने का कोई फायदा नहीं हुआ तो यह कथन मौजूदा आंकड़ों तथा अपने अधिकारों व सम्मान की सुरक्षा के लिए आगे आ रहे तमाम दलित व पिछड़ों के संगठनों की ओर से आ रहे बयानों व लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत शांतिपूर्ण ढंग से न्यायालय के फैसले के विरोध में आहूत भारत बंद के माध्यम से झुठलाया जा सकता है लेकिन अगर बंद के इस आह्वान में हिंसा या जोर-जबरदस्ती की झलक दिखती है और ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ समूह बंद की इस आड़ में अपना शक्ति-प्रदर्शन करते हुए कानून की धज्जियां उड़ाना चाहते हैं तो इसे क्या माना जाना चाहिए? यह माना कि भाजपा के लोकतांत्रिक भारत की सत्ता के एक बड़े हिस्से पर कब्जेदारी के बाद खुद को कमजोर महसूस कर रही तमाम जातीय सेनाएं व वोटों के अंकगणितीय समीकरण के आधार पर राजनैतिक दलों के गठन या प्रत्याशियों के चयन का फैसला लेने वाली राजनैतिक ताकतें खुद को कमजोर महसूस कर रही है और एससी-एसटी एक्ट में गिरफ्तारी के प्रावधानों के संदर्भ में किए गए कुछ न्यायालीय संशोधनों के बाद उन्हें अपनी राजनैतिक जमीन वापसी का बेहतर मौका दिखाई दे रहा है लेकिन सवाल यह है कि क्या सामाजिक परिवर्तन व बदलाव लाने की दृष्टि से इस प्रकार के आंदोलन क्रांतिकारी साबित हो सकते हैं और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच विभेद की स्थिति पैदा कर सामाजिक समरसता व सामंजस्य कायम किया जा सकता है। अगर न्यायिक दृष्टिकोण से विचार करें तो हम पाते हैं कि भारतीय न्यायालयों में लाखों की संख्या में वाद लंबित हैं और कानून की धीमी रफ्तार व जन सामान्य के बीच स्पष्ट महसूस की जाने वाली संसाधनों की कमी के चलते ऐसे आरोपियों की संख्या बहुतायत है जो बिना किसी दोष के अथवा क्षम्य अपराध के बावजूद एक लंबे समय से जेल में पड़े हुए हैं। सजायाफ्ता कैदियों व विचाराधीन या फिर सुनवाई के आभाव में जेल के सीकचों के पीछे अपना जीवन जी रहे जनसंख्या के इस बड़े हिस्से की देखरेख, सुरक्षा व अन्य तीरमदारी में सरकार द्वारा प्रतिवर्ष एक बड़ी धनराशि खर्च की जाती है तथा जेलों में बंद यह तमाम विचाराधीन कैदी या फिर अपराध हेतु निर्धारित सजा की अवधि पूरी कर लेने के बावजूद न्याय प्रक्रिया की धीमी गति के चलते जेलों में बंद रहने को मजबूर कई तरह से न्यूनतम मानवाधिकारों से वंचित भी रह जाते हैं। इन हालातों में अगर न्यायालय यह चाहता है कि कुछ मामलों में गिरफ्तारी व जेल भेजने की प्रक्रिया पूरी करने से पूर्व जांच इत्यादि की तमाम कार्यवाही कर ली जाये तो शायद इसे गलत नहीं कहा जा सकता और जहां तक एससी-एसटी एक्ट में कानून के दुरूपयोग को रोके जाने का मामला है तो यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि एक हथियार की तरह ही इस्तेमाल होने वाले कानून के कुछ हिस्से सामाजिक सद्भाव व समरसता कायम करने में नाकाम रहे हैं और यह जरूरत बहुत लंबे समय से महसूस की जा रही है कि सरकार व हमारी न्याय व्यवस्था सिर्फ एक ही वर्ग के हितों को ध्यान में रखते हुए बनाये गए कानूनों की समीक्षा करते हुए इनमें मूलभूत सुधार किए जाने की दिशा में सकारात्मक कदम उठाये। वैसे भी एससी-एसटी एक्ट में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाने के संदर्भ में न्यायालय द्वारा लिया फैसला एक विशुद्ध रूप से कानूनी कदम है और हमारे नेता व राजनैतिक दल यह अच्छी तरह जानते हैं कि न्यायालय के किसी भी फैसले के खिलाफ आहूत बंद या अन्य राजनैतिक कदमों से न्याय प्रक्रिया को बाधित अथवा मजबूर नहीं किया जा सकता बल्कि न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील करने के अन्य संवैधानिक रास्ते हैं और सरकार द्वारा इस दिशा में पहल करते हुए अपील करने की घोषणा की जा चुकी है। लिहाजा इन विषयों को लेकर राजनीति करना या फिर आंतक का साम्राज्य कायम करने की कोशिश करना सही नहीं कहा जा सकता और न ही यह माना जा सकता है कि बाबा साहेब अम्बेडकर को अपना आदर्श मानने वाले राजनैतिक व सामाजिक संगठनों को इस सामान्य प्रक्रिया की जानकारी नहीं होगी लेकिन नरेन्द्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने के बाद से ही हिन्दूवाद व तथाकथित राष्ट्रवाद के नाम पर एकजुट होते दिख रहे भारतीय मतदाताओं के बीच विभेद की स्थिति पैदा करने के लिए राजनैतिक मुद्दों को तलाश में निकले तमाम अवसरवादी संगठनों के लिए यह एक बड़ा मौका है और वह किसी भी कीमत पर इसे खोना नहीं चाहते। इसलिए देश की आजादी के बाद धीरे-धीरे कर कम हो रहे छूआछूत व अस्पर्शता के मुद्दे को हवा देने के लिए वह समय-समय पर एकजुटता व संघर्ष के नारे के साथ नये मोर्चे खोलने के प्रयास जारी हैं और आरक्षित जनसमुदाय को शोषण व सामाजिक उत्पीड़न का भय दिखाकर एकजुट किया जाना आसान भी है क्योंकि समाज के एक बड़े तबके ने इस दंश को एक लम्बे अरसे तक झेला है और देश की आजादी के बाद सक्षम कानूनों के अस्तित्व में आने के बावजूद यह कहा जाना मुश्किल है कि आरक्षण जैसे तमाम प्रावधानों का लाभ उसी वर्ग या तबके को मिला है जिसे वाकई इसकी जरूरत है। हकीकत यह है कि देश में लागू आरक्षण की व्यवस्था व इस वर्ग के लिए बने तमाम कानूनों का लाभ इन तमाम समुदायों के एक छोटे हिस्से को ही मिल पाया है तथा सरकार द्वारा प्रदत्त इन तमाम सुविधाओं व अधिकारों ने दलित व पिछड़े समुदायों के बीच भी एक ऐसा वर्ग पैदा कर लिया है जो अपनी बिरादरी के नाम पर इस पूरे वर्ग का राजनैतिक इस्तेमाल तो करना चाहता है लेकिन संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को इस वर्ग तक पहुंचने नहीं देना चाहता। इस छोटे से तबके (जिसे हम दलित व पिछड़ी जाति जातियों की क्रीमीलेयर भी कह सकते हैं) की लगातार बढ़ रही राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं यह कदापि नहीं चाहती कि समाज में तेजी से कम होता दिख रहा जातिगत वैमनस्य या छूआछूत पूरी तरह परवान चढ़े और अपने जातियों के आधार पर निकृष्ट समझे जाने वाले पैतृक व्यवसायों को कर रहे कमजोर तबके आर्थिक सुरक्षा के अहसास के साथ शिक्षा व अन्य सामाजिक संदर्भों को ग्रहण करे। नतीजतन जनसामान्य को भड़काने वाली गतिविधियों व अराजक बयानबाजी के माध्यम से राजनैतिक मोर्चेबंदी के प्रयास तेज हो गए हैं और हर स्तर पर यह कोशिश की जा रही है कि तत्कालीन परिस्थितियों के मद्देनजर सदियों पहले रचा गया जातीय ढांचा किसी भी कीमत पर बना रहे। देश की गुलामी वाले दौर में अंग्रेजों ने भारतीय समाज की इस कमजोरी को समझा और सभी के लिए समान शिक्षा की व्यवस्था को लागू कर इस तानेबाने को नष्ट करने का प्रयास भी किया लेकिन देश की आजादी के बाद आरक्षण समेत तमाम अन्य कानूनी प्रावधानों के बावजूद भी दलित व पिछड़े समुदायों से निकले नेता अपने सहोदरों के लिए उचित व्यवस्थाओं के इंतजामात करने में असफल रहे या फिर अपने राजनैतिक वर्चस्व को बनाये रखने के लिए इन तमाम जातिगत् व्यवस्थाओं को बनाये रखने में ही उन्होंने अपनी भलाई समझी और वर्तमान में भी हो यही रहा है। लगातार व तेजी से बदल रहे सामाजिक परिवेश में होना तो यह चाहिए था कि सरकारें आम आदमी को अपने नाम के साथ जाति, गोत्र व धर्म जैसी तमाम व्यवस्थाओं के प्रदर्शन को लेकर हतोत्साहित करती तथा कानूनी समानता व सामाजिक समरसता की दिशा में बढ़ रहे कदमों में और तेजी लाते हुए आर्थिक व शैक्षणिक रूप से कमजोर तबकों को विकास की मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास किया जाता लेकिन राजनेताओं की धूर्त कारगुजारियों के चलते हम अपने धर्म व जाति को लेकर ज्यादा सजग दिखाई दे रहे हैं तथा हमारे सामाजिक जनजीवन में तेजी से बढ़ती महंगाई व बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दों की अपेक्षा धार्मिक व जातिगत मसले ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं।

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