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Saturday, April 20, 2024

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चर्चाओं में बने रहने के लिऐ

एक बार फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सहारे की तलाश में है मोदी।
खादी एवं ग्रामोद्योग की डायरी व कलैण्डर पर चर्खा चलाते नजर आ रहे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने निजी जीवन में कितने सादगीपूर्ण विचार रखते है, यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है और न ही देश व दुनिया इस तथ्य से अंजान है कि उनसे संगठनात्मक रूप से जुड़े होने का दावा करने वाली विचारधारा गांधी दर्शन की अपेक्षा गौडसे के सिद्धान्तों व नीतियो के प्रतिपालन पर ज्यादा विश्वास करती है लेकिन इस सबके बावजूद उनके द्वारा सार्वजनिक मंचों पर गांधी की बात करना व जनता को भरमाने के लिऐ गांधी के प्रतिमानों का उपयोग करना, यह साबित करता है कि वर्तमान दौर में भी गांधी जी के सिद्धान्तों व आदर्शों की अहमियत बनी हुई है और उनके विरोधी भी यह मानते है कि सम्पूर्ण राष्ट्र एवं विश्व को संदेश देने के लिऐ गांधी जी से बड़ा रोल माॅडल कोई नही है। हांलाकि मोदी के तथाकथित भक्त व उनके अन्ध समर्थक यह मानते है कि अपने निजी जीवन में संघ प्रचारक के रूप में खिचड़ी खाकर गुजारा करने वाले नरेन्द्र मोदी अपनी राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना व सेवा को सिद्धान्त बना कर ही यहां पहुँचे है तथा सरकारी पद पर रहते हुऐ नाम मात्र का ही वेतन लेने वाले देश के प्रधानमंत्री के तमाम परिजनों का अपने जीवन यापन के लिये सामान्य काम धंधों से जुड़ा होना व मोदी का अपनी पत्नी से दूर रहना, उनकी ईमानदारी व त्याग-तपस्या का प्रतीक है लेकिन गांधी जी के निजी जीवन पर गौर करें तो हम पाते है कि उन्होंने देश सेवा का व्रत लेेने के साथ ही साथ न सिर्फ अपनी तमाम पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाया था बल्कि उनकी अर्धागिंनी का उनके जीवन को संवारने व उन्हें महात्मा बनाने में कदम-कदम पर योगदान रहा था और अगर इन तथ्यों पर भारतीय दर्शन के क्रम में भी गौर करें तो यह कहा जा सकता है कि अपने सामान्य जीवन में अपने परिवार व परिजनों के प्रति लापरवाह या गैरजिम्मेदार शख्स से देश अथवा समाज की सेवा की उम्मीद कम ही की जा सकती है किन्तु इस देश को मोदी से बहुत उम्मीदें है और पिछले तीन वर्षों के कार्यकाल में मोदी सरकार द्वारा जनसमान्य के हितों को ध्यान में रखते हुऐ कोई विशेष कदम न उठाये जाने के बावजूद देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा आज भी यह मानकर चल रहा है कि अगले दो वर्षों में वह जरूर कोई चमत्कार करेेंगे। यह ठीक है कि एक प्रधानमंत्री के रूप में महंगी पोषाकों का पहनना तथा मंहगें पैन समेत तमाम तरह की अत्याधुनिक व्यवस्थाओं का इस्तेमाल करना उनकी मजबूरी है और आधुनिक भारत के युवाओं के बीच लोकप्रिय प्रधानमंत्री से यह उम्मीद भी नही की जानी चाहिऐं कि वह खादी अथवा किसी अन्य उत्पाद के प्रचार हेतु एक नंग-धडंग सन्त वाले अन्दाज में अपनी तस्वीरें खिंचवाकर प्रश्नसूचक निगाहों का सामना करें लेकिन एफडीआई लागू करने की जल्दबाजी में दिखने वाली सरकार व अपने एक फैसले से पेटीएम जैसी विदेशी साझेदार वाली कम्पनी को अरबों का फायदा पहुंचाने वाले प्रधानमंत्री ने इस काम को अंजाम देने से पहले एक बार यह तो जरूर सोचना चाहिएं था कि महिलाओं के साथ खादी बुनने वाले गांधी के इस चित्र का उद्देश्य क्या था? हो सकता है कि देश के प्रधानमंत्री की यह तस्वीर वाकई में युवाओं के बीच खादी की बिक्री बढ़ाते हुये इसकी लोकप्रियता में चार चांद लगाने की दिशा में अहम् भूमिका अदा करती हो और प्रतीकात्मक रूप से नरेन्द्र मोदी द्वारा खिंचवाई गयी इस तस्वीर के बाद देश-विदेश के अलावा संघ के स्वयंसेवकों द्वारा भी अपने निजी जीवन में खादी का उपयोग बढ़ा दिया जाय लेकिन सवाल यह है कि क्या देश के स्वतंत्रता आन्दोलन को एकता के सूत्र में बांधने वाली खादी सिर्फ एक व्यवसाय भर है? यदि इस प्रश्न का जवाब हां मैं है तो वर्ष के कुछ विशेष महिनों में देश भर के गांधी आश्रमों व खादी के उत्पादकों को सरकार द्वारा लगातार दी जाने वाली रियायत पर एक प्रश्नचिन्ह लगता है और यदि इस प्रश्न का जवाब नही है तो फिर मोदी सरकार द्वारा प्रचारित इस तस्वीर पर सवाल खड़े किये जाना जायज माना जा सकता है। देश के प्रधानमंत्री के तौर पर गांधी के प्रतीकचिन्हों को साझा करना मोदी का अधिकार हो सकता है और उनके इस अधिकार से किसी ने तब आपत्ति भी नहीं जतायी जब उन्होंने ‘ स्वच्छ भारत अभियान‘ का नारा देते हुये गांधी के चश्में को आगे कर अपने हाथेां में झाड़ू पकड़ी। यह माना गया कि मोदी गांधी की नजरों से भारत को देखते हुये सारे देश को एकता, समानता व साफ सफाई का संदेश देने निकले है लेकिन उनकी यह कोशिश सिर्फ अपनी छवि बनाने तक सीमित रही और इस अभियान की शुरूवात में अपने हाथों की झाडू आगे कर विभिन्न मुद्राओं में फोटो खिंचाने वाले लोग देश को आजतक यह नही बता पाये कि घर के भीतर अथवा बाहर साफ-सफाई करने के बाद एकत्र हुये कूड़े का निस्तारण किया कैसे जाना है। हांलाकि इस विषय पर चर्चा करने पर तमाम मोदी भक्त व भाजपा कार्यकर्ता लगभग एक सुर में धमकाने वाले अंदाज में यह नारा देते है कि मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत सारे देश को साफ करने का जिम्मा लिया है और इसके प्रथम चरण में कांग्रेस मुक्त भारत अभियान चलाया जा रहा है लेकिन आम आदमी का सवाल है कि देश कांग्रेस मुक्त हो या भाजपा मुक्त अगर उसके लिऐ हालातों में कोई परिवर्तन नही आना है तो फिर उसे क्या फर्क पड़ना है और इस तथ्य को दावे के साथ कहा जा सकता है कि अपने तीन वर्षों के शासनकाल में मोदी सरकार ने इस देश की आम जनता को सिवाय कोरे आश्वासनों के ऐसा कुछ नही दिया है जिससे उसे एक सुखद अनुभूति हो। यह ठीक है कि राष्ट्रपति महात्मा गांधी का अंदाज अथवा उनके विचार किसी एक राजनैतिक दाल की बपौती नही है कि राष्ट्रहित में उनका उपयोग अथवा अनुपालन करने के लिऐ किसी व्यक्ति या दल विशेष की अनुमति ली जानी आवश्यक हो और न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अपनी राजनैतिक लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ाने व मीडिया की चर्चाओं में बने रहने के लिऐ सार्वजनिक मंच से गांधी के सिद्धान्तों की निन्दा अथवा अवहेलना ही की गयी है लेकिन क्या यह ज्यादा अच्छा नही होता कि मोदी, गांधी के अंदाज की नकल कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के चक्करों में पड़ने की जगह उनकी नीतियों व सिद्धान्तों पर अमलकर आम आदमी के जीवन स्तर को उठाने की दिशा में कुछ क्रान्तिकारी आगाज करते। खैर जो कुछ भी हुआ उसपर राजनैतिक चर्चाओं और गहमागहमी का दौर तो जारी ही रहेगा और पांच राज्यों के चुनावों को मद्देनजर रखते हुये देश के लगभग सभी राजनैतिक दल अपनी विचारधारा को गांधी दर्शन के ज्यादा नजदीक बताते हुये उनकी लोकप्रियता व विरासत पर अपना दावा ठोकने की कोशिश भी करेंगे लेकिन मोदी के चित्र पर उठे इस विवाद के बाद एक बार फिर यह तय हो गया कि देश की आज़ादी के सत्तर सालों बाद आम जनता के बीच गांधी आज उससे भी ज्यादा प्रासंगिक व लोकप्रिय है जितने कि देश की आज़ादी के आन्दोलन वाले दौर में थे। अब यह हमारे नेताओं पर निर्भर करता है कि वह उनसे कैसे सबक लेते है।

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