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Tuesday, April 23, 2024

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जनता का हाल-बेहाल, सड़के बनी तरणताल

गढ़ढ़े भरने के सरकारी फैसले को राजनैतिक तौर-तरीके से अमल में लाने की कोशिश कर रही नौकरशाही को दिख रहा है इस खेल का फायदा-नुकसान।
सड़क दुर्घटनाओं के दौरान बढ़ रही मृतकों व घायलों की संख्या को देखते हुऐ उत्तराखंड सरकार ने प्रदेश की सड़कों को गढ़ढ़ा मुक्त बनाने के आदेश दिये है। इससे पहले उ.प्र. सरकार द्वारा भी कुछ इसी तरह के आदेश निर्गत किये जा चुके है। इन आदेशों की गंभीरता पर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न राज्यों की सरकारें यह मान रही है कि उनके आधीन आने वाली सड़कें सुरक्षित यातायात के दृष्टिकोण से ठीक नही है और इन्हें अतिशीघ्र मरम्मत दिये जाने की जरूरत है लेकिन मौसम की प्रतिकूलता व लगातार हो रही बारिश के चलते दीर्घकालीन योजनओं पर काम करने की जगह फिलहाल गढ़ढे पाटकर काम चलाया जा रहा है या फिर सरकारी तंत्र की माली हालत इतनी खराब है कि वह जोड़-जुगाड़ कर सड़कों को कामचलाऊ बनाने की दिशा में प्रयासरत है। वैसे देखा जाय तो यह दोनों ही तथ्य चिन्ताजनक है क्योंकि सड़क यातायात के संदर्भ में विभिन्न नियमों का अनुपालन करने के अलावा हम वाहनों की खरीद-बिक्री पर एक निश्चित कर तो अदा करते ही है साथ ही साथ हमारें देश की राज्य सरकारें विभिन्न स्तरों पर हमारी यात्रा सुरक्षित रखने के वादे के साथ तमाम तरह के कर भी लेती है लेकिन इस सबके बावजूद सड़कों का यातायात के लिऐ अनुकूल न होना या फिर ठीक बरसात के मौसम में सड़कों के गढ़ढ़े पाटने की बात करना यह दर्शाता है कि सरकारी तंत्र अपनी जिम्मेदारियों पर खरा उतरने को तैयार नही है या फिर सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के बाद भाजपा के नेताओं व पूर्ण बहुमत वाली उ.प्र. व उत्तराखंड की सरकारों को जनता की फिक्र ही नही है। अपनी कमजोरी या असफलताओं को छुपाने के लिऐ इन दोनों ही प्रदेशों की सरकारें बरसात के मौसम का एक बड़ा हिस्सा गुजर जाने के बाद सड़कों की मरम्मत व गढ़ढ़ों के पाटे जाने की बात कर रही है जबकि सड़कों को बनाये जाने, उनके रखरखाव व मरम्मत आदि के लिहाज से सबसे ज्यादा ठीक माना जाने वाला अप्रैल व मई का महिना कबका गुजर चुका है। सही समय पर सड़कों की मरम्मत का काम न होने के लिऐ सरकारी तंत्र राज्य में नवगठित सरकार व बजट की कमी का रोना भी नहीे रो सकता क्योंकि ऐसे एक नही बल्कि सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते है जब विभिन्न विभागों के ठेकेदारों व जिम्मेदार अधिकारियों ने आपसी मिलीभगत से सीवर लाइन डालने, पानी की लाइन ठीक करने या फिर सड़कों व पुलिया आदि का पुर्ननिर्माण करने के नाम पर ठीक-ठाक हालत वाली सड़कां की ऐसी-तेसी कर दी है। इसलिऐं हम यह कह सकते है कि बात-बेबात पर भ्रष्टाचार के मामले में जीरो-टालरेन्स का नारा देने वाला सरकारी तंत्र इस वक्त सड़कों के गढ़ढ़े भरने व उन्हें ठीक-ठाक करने के नाम पर एक अलग तरह के भ्रष्टाचार की योजना बना चुका है। यह स्पष्ट दिख रहा है कि इन गढ़ढों की कुल सख्ंया व इनकी मरम्मत आदि में आयी लागत को लेकर कोई निश्चित तथ्य दिया जाना सरकार के लिऐ भी संभव नही होगा और न ही बरसात के पूरी तरह खत्म हो जाने के बाद प्रदेश की जनता एक बार फिर सड़के टूटी-फूटी होने या फिर गड्डों से भरी होने को मुद्दा बनाते हुऐ उद्देलित नही हो पायेगी। हम यह जान और समझ रहे है कि अपने आवानुगमन को आसान व समय के लिहाज से किफायती बनाने के लिऐ अधिकांशतः हवाई मार्गो से यातायात करने की पेरोकारी करने वाली राज्य सरकार के मंत्री व अफसर किसी भी शहर व कस्बाई इलाके में लगातार बिगड़ रही सड़कों की हालत व इसमें हो रही सड़क दुर्घटनाओं की संख्या को देखते हुऐ इन सड़कों की अतिशीघ्र मरम्मत करने व इनके गढ़ढे पाटने के मूड में नही है बल्कि गढ़ढ़े भरने के इस खेल में होने वाले लाखों के वारे-न्यारे देखते हुऐ पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी एकाएक ही हरकत में आ गयी है। कितना आश्चर्यचकित करने वाला किन्तु कटु सत्य है कि उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय क्षेत्रों में लगातार हो रही बरसात के कारण सड़कों के टूटने, बादलों के फटने से भू-स्खलन व मकानों के दरकनें, बसों के गिरने या फिर अन्य कारणों से मानवीय क्षति की घटनाऐं रोजाना ही संज्ञान में आ रही है तथा कर्मठ व श्रमजीवी नागरिकों के इस प्रदेश में किसानों द्वारा कर्ज से त्रस्त होकर आत्महत्या किये जाने की खबरें भी लगातार प्रकाश में आ रही है लेकिन व्यापक जनहित के नाम पर चुनी गयी सरकारें अपने कार्यकाल के शुरूवाती चार-पांच महिनांे में बामुश्किल गढ़ढ़े भरने के आदेश तक पहुँची है ओर इसे भी सरकारी तंत्र में एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। यह ठीक है कि नवगठित सरकारों को सत्ता हासिल करने के बाद हालात समझने व तंत्र पर काबिज नौकरशाही की मनोस्थिति को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ढ़ालने के लिऐ थोड़ा वक्त चाहिऐं और इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि हर राजनैतिक दल व सरकार की अपनी-अपनी प्राथमिकताऐं होती है लेकिन व्यापक जनहित व जनसुरक्षा से जुड़े मामलों में तत्काल प्रभाव से निर्णय न लेते हुऐं विषय को लटकाना या फिर हद से ज्यादा देरी के बाद फैसले लेना यह साबित करता है कि एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार में भी जनभावनाओं व जनसुरक्षा के लिहाज से आवश्यक लगने वाले फैसले यथासमय सरकार तक पहुँच ही जाय, यह जरूरी नही है। हो सकता है कि वर्तमान सरकार की नीतियों व रीतियों का समर्थन करने वाले कुछ लोग राज्य की तमाम छोटी-बड़ी सड़कों के क्षतिग्रस्त होने का आरोंप पूर्ववर्ती सरकार पर लगाते हुऐ इस संदर्भ में यह तथ्य प्रस्तुत करें कि नवगठित सरकार को स्थितियों को काबू में लेने व व्यवस्था सुधार में थोड़ा वक्त लगना लाजमी है लेकिन यहाँ पर विनम्रतापूर्वक यह कहना जायज होगा कि अगर पूर्ववर्ती सरकार ने यह गढ़ढ़े न छोड़े होते तो जनता उसकी कार्यशैली से नाराज होकर आपको सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने का मौका भी नही देती और रहा सवाल इन तमाम छोटे-मोटे खर्चो के लिऐ धन की व्यवस्था का तो जो सरकार अपने गठन के तत्काल बाद विधानसभा सत्र के दौरान विधायक निधि की मद में लाखों की बढ़ोत्तरी एक ही झटके में कर सकती है या फिर जिस सरकार द्वारा सत्ता पर काबिज होने के तत्काल बाद पूर्ववर्ती सरकार द्वारा विरोध या विपक्षी हमले के चलते रोके गये तमाम तरह के देयकों का भुगतान एक ही झटके में कर दिया जाता है वह सरकार या राज्य किस भी तरह के आर्थिक संकट से गुजर रहा है, ऐसा कहा जाना या विश्वास करना तर्कसंगत नही लगता। इस तथ्य को आसानी से जाना और समझा जा सकता है कि अपने चुनाव-प्रचार के दौरान लम्बी-लम्बी दूरियों का सफर तय करने वाले व रात-बेरात तक सड़को पर ही यात्रा करने वाले हमारे तमाम माननीयों ने कुछ ही समय पूर्व सड़कों के खस्ताहाल व टूटी-फूटी हालत को बहुत नजदीक से महसूस किया होगा तथा हमारे पंचायत व स्थानीय निकाय के जनप्रतिनिधि समेत सत्ता पक्ष व विपक्ष के भी तमाम निचले स्तर के कार्यकर्ताओ को अपनी गली-मोहल्ले की सड़कों के हालात व अन्य तमाम तरह की छोटी-बड़ी समस्याओं के बारे मेें बहुत अच्छी तरह व पहले से पता होगा लेकिन इस छोटी सी जानकारी को राज्य के मुखिया तक पहुँचाने व वहाँ से इस खामी को दूर किये जाने के संदर्भ में आदेश जारी करने में लगभग पांच माह का समय क्यों और कैसे लग गया, यह स्वंय में एक जाँच का विषय हो सकता है। एक सामान्य नागरिक के रूप में यह मानना हमारी मजबूरी है कि सरकारी कामकाज को धरातल में उतरने में कुछ समय तो लगता ही है, इसलिऐं अगर गढ़ढे भरने के काम के लिऐ शासनादेश जारी होने में कुछ समय लग भी गया तो इसमें कोई आश्चर्य नही होना चाहिऐं लेकिन सवाल यह भी है क्या सरकारी तंत्र गढ़ढे भरने के अलावा जनसामान्य की अन्य समस्याओं को लेकर भी गंभीर होगा या फिर अगले पांच साल फिर गढ़ढे भरने में ही निकल जायेंगे।

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